Sunday, May 11, 2014

तिब्बती लामा साधना

तिब्बती लामा सम्पूर्ण जीवन
“ॐ मणिपद्मे हुम” का जप करते हैं और
जीवन के सभी रहस्य और उन से
सम्बंधित मर्म ज्ञात कर लेते हैं,उन
सभी रहस्यों का जिनकी जानकारी एक
सामान्य साधक
को कभी नहीं हो सकती है.
आखिर क्या विशेषता है इस मंत्र की जिसके
द्वारा असंभव को भी संभव
बनाया जा सकता है,तिब्बती परंपरा में चक्र जागरण
की क्रिया दो प्रकार से
की जाती है.
१. क्रमशः चक्रों का शोधन कर उनका जागरण और भेदन करके
२. सीधे आज्ञा चक्र
की जागृति या भेदन की क्रिया विशिष्ठ
शल्य चिकित्सा से करके
हैं ये दो ही मूल तरीके,किन्तु दोनों मे
एक सामंजस्यता है की दोनों के द्वारा आंतरिक
शरीर की चेतना,अवचेतना और
अचेतना का योग कर के पूर्णता प्राप्त
की जा सकती है. और भले
ही कोई साधक सीधे
अपना आज्ञा चक्र भेदित कर ले तब
भी वो उपरोक्त मंत्र का सतत जप
करता ही है,और जो क्रमशः शोधन,जागरण और
भेदन की क्रिया द्वारा चक्र यात्रा को पूरा करते हैं,वे
तो उस मंत्र का जप करते ही हैं. यहाँ मैं उस
मंत्र के ऊपर बात नहीं कर
रही हूँ,बल्कि ये बताने का प्रयास कर
रही हूँ की वे जो क्रिया करते
हैं,उसका मूल रहस्य क्या है,ताकि हम भी उस
गुप्तता को समझ सकें,जिसके द्वारा अगोचर को गोचर
किया जा सकता है.
जैसा की मैंने ऊपर बताया है की वे
उपरोक्त मंत्र का जप निरंतर करते हैं,और उनका ये जप सतत
चलता ही रहता है,क्यूंकि कहा भी गया है
की-
जकारो जन्म विच्छेदः
पकारः पाप नाशकः |
तस्या जप इति प्रोक्तो
जन्म पाप नाशकः ||
अर्थात ‘ज’ शब्द जन्म विच्छेदक है,जो सर्व कर्म फलों से
साधक को मुक्त कर देता है,कर्म फलों से मुक्त होते
ही जन्म चक्र से उसे मुक्ति मिल
जाती है,ठीक वैसे
ही ‘प’शब्द सभी प्रकार के
पापों का नाश करता है. इसलिए जप
की इतनी महिमा है क्यूंकि जप के
द्वारा ही सर्व जन्मों के पाप का नाश होता है.
किन्तु हमें उस जप के पीछे का रहस्य ज्ञात
होना आवश्यक है,हम मंत्र के पूर्ण विन्यास को समझें और
उसके पीछे
की क्रिया को भी. वस्तुतः लामा साधनाओं
मे दो चक्रों को प्रधानता देते हैं,१. आज्ञा चक्र २.मणिपुर चक्र
और दोनों ही चक्र एक विशेष स्थिति का प्रतिनिधित्व
करते हैं.दोनों ही का सम्बन्ध अग्नि तत्व से
है,दोनों ही काल ज्ञान से सम्बन्ध रखे हैं और
दोनों मे विस्तार की अनंत क्षमता और स्थायित्व है.
दोनों ही चक्रों का महाविद्या साधनाओं से बहुत
गहरा सम्बन्ध है. हम सभी इस तथ्य से
भली भांति अवगत हैं की जब
भी बच्चे का जन्म होता है तो वो नाभि से
ही माँ के द्वारा जुड़ा होता है और
जीवन का प्रवाह व आहार आदि पाता है.
ठीक उसी प्रकार आप महाविद्याओं
का ध्यान समझेंगे तो पायेंगे की सृष्टि पथ से
जुडी हुयी ये महाशक्तियां भगवान शिव
या भगवान विष्णुं की नाभि से उत्पन्न
हुयी हैं.
किन्तु ये मात्र प्रतीक है,क्यूंकि वास्तविकता ये है
की साधना के चरम स्तर पर जब साधक स्वयं
ही अपनी सत्ता को जान लेता है तब
वो स्वयं ही शिव या विष्णु स्वरुप हो जाता है और
तभी उसमें उस पात्रता का अभ्युदय होता जिसके
द्वारा इन महाशक्तियों का पूर्ण प्राकट्य हो सके. आप इस बात
को भी समझ लीजिए
की साधक का जब तक मूल उत्स जाग्रत
नहीं होगा तब तक उसमे ऐसी कोई
पात्रता प्रकट नहीं होगी.और मूल
उत्स जागृति के लिए आपको सबसे ज्यादा मेहनत “मणिपुर चक्र”
के जागरण पर करनी होगी.वस्तुतः हम
जितनी भी सिद्धियों की बात
करते हैं,वे सभी हमारे शरीर के
अन्तः ब्रह्माण्ड से ही प्रसारित
होती है,इनका कोई बाह्य उद्गम स्थल
नहीं होता है. सप्त
लोकों की जागृति का अर्थ ही ये होता है
की हमने क्रमशः एक एक चरों के मूल बिंदुओं
का भेदन सफलता पूर्वक कर लिया है. जब मैंने बात “मणिपुर
चक्र” की की तो उसका मात्र
यही अर्थ था की जब तक हमारे प्राण
और हमारी वायु शक्ति का पूर्ण जागरण
नहीं होगा तब तक वे अन्तः ब्रह्माण्ड में व्याप्त
चेतना की प्राप्ति हमें बाह्य रूप से
नहीं हो पाएगी.
यही एकमात्र ऐसा चक्र है जिसमें प्राणों और वायु
का आपस मे योग होता है तथा अग्नि संयोग से ये प्राण-वायु
हमारे शरीर मे उर्जा और ऊष्मा के स्तर को बनाये
रखते हैं. प्राणों का ये प्रसार आज्ञा चक्र से प्राण योग कर
काल ज्ञान की शक्ति को जाग्रत कर देता है और
तब अदृश्य को जान पाना सहज हो पाता है. भले
ही साधक सीधे आज्ञा चक्र
का जागरण कर ले तब भी उसे काल विखंडन और
संलयन को समझने के लिए मणिपुर चक्र का आश्रय
लेना ही होगा. वस्तुतः काल को विभक्त करना संभव
ही नहीं है,ये मात्र मन
की दशाएं हैं जिससे हमें इसके बीतने
के समय का अनुभव होता है,जैसे यदि हम
हमारी अनुकूल परिस्थितिओं में रह रहे हैं,खुश
हैं,किसी प्रियजन के साथ हैं,तब समय
बीतने
की गति कही तीव्र
होगी,किन्तु यदि परिस्थितियां प्रतिकूल है,मन
दुखी है तो समय बीतने
की गति अत्यधिक
धीमी होगी. काल विखंडन
और संलयन की दशा का बोध
तभी हो पाता है जब
भगवती बगलामुखी की अभ्यर्थना या साधना से
काल स्तम्भन प्रयोग संपन्न कर लिया जाए,ये ठीक
उतनी ही प्रभावकारी हैं
जितनी की भगवती महाकाली की साधना के
अंतर्गत आने वाली कालाधिक साधना. किन्तु
भगवती महाकाली की वो साधना अत्यधिक
दुष्कर है जबकि सात्विक और राजसिक भावों से युक्त
भगवती बगलामुखी की ये
साधना सहज और सरल है,जिसका प्रयोग साधक सामान्य
जीवन जीते हुए भी कर
सकता है.
आप यदि विचार करेंगे तो देखेंगे या आपने
कही सुना या पढ़ा भी होगा की लामा मूलतः सीधे
आज्ञाचक्र की साधना कर लेते हैं,किन्तु जो गूढ़
रहस्य है वो ये की आज्ञा चक्र के मूल
बीज “ॐ” जिसे
की ब्रह्मांडीय प्रणव या तार
बीज भी कहा गया है का समन्वय
वो एक खास पद्धति से मणिपुर चक्र से कर देते हैं. “हुं”
बीज नाभि चक्र या मणिपुर चक्र को जाग्रत करने
का कार्य करता है,और तिब्बत मे मणिपुर को मणिपद्म
कहा जाता है. “हुं” बीज नाभि चक्र
की जागृति कर मूलउत्स को चैतन्य कर देता है, और
यदि इसके बाद विशिष्ट बीज मन्त्रों का लगातार जप
किया जाये तो उस आघात से
भगवती बगलामुखी का प्राकट्य सहज
हो जाता है.और तब इसी मूल उत्स से निसृत
अथर्वासूत्र का संयोग आज्ञाचक्र के “हं” और “क्षं”
बीज से पूर्णतया हो जाता है तथा आकाश
बीज से संयोग होते ही प्राणों का विस्तार
और प्रसार पूरे ब्रह्माण्ड में हो जाता है तथा साधक
की दृष्टि इतनी सूक्ष्म और स्थिर
हो जाती है तथा कालस्तम्भन दृष्टि से युक्त
हो जाती है जिसके कारण वो काल के संकुचन
को भली भांति अपने नेत्रों से देख सकता है और
त्रिकाल दर्शन कर सकता है. मणिपुर चक्र
की जागृति के बाद ही ये क्रिया संभव
हो सकती है,इसके पहले के
चक्रों की जागृति से ये सब होना संभव
नहीं हो सकता है,क्यूँकी इस चक्र
के जाग्रत होते ही “स्व लोक” और प्राणमय कोष
की जागृति हो जाती है,और जब साधक
का परिचय स्वयं से हो जाता है
तभी वो अपनी विराटता को समझ कर
ब्रह्माण्ड भेदन की क्रिया संपन्न कर सकता है.
ये क्रिया पढ़ने मे शायद दुष्कर लगे किन्तु करने मे निरापद और
सहज साध्य है. हमें मात्र क्रम का ध्यान रखकर अभ्यास
करना है,महाविद्या साधना की ये
वो पद्धतियाँ है,जिन्हें गुप्त रखने मे ही भलाई
समझी जाती रही है.
किन्तु सदगुरुदेव नें सदैव इन पक्षों को सबके सामने
रखा है,तभी हम इन गुप्त क्रियाओं को समझ पाए
हैं.
इस प्रयोग को किसी भी रविवार से प्रारंभ
किया जा सकता है.
ब्रह्ममुहूर्त,सायंकाल अथवा मध्य रात्रि मे इस
साधना को संपन्न किया जा सकता है.
वस्त्र वा आसन पीले रहेंगे.
दैनिक पूजन के पश्चात सामने बाजोट पर पीला वस्त्र
बीछा दें और उस पर कुमकुम से एक गोला बना कर
उसके मध्य में स्वास्तिक चिन्ह बना दें,गोला ब्रह्माण्ड
का प्रतीक है और स्वास्तिक दशों दिशाओं का.
उस स्वास्तिक के ऊपर पीले
चावलों की ढेरी रख दें तथा उस पर कांसे
का एक पात्र या प्लेट स्थापित कर उस पर एक
दीपक की स्थापना कर
दें.दीपक में तिल का तेल
हो तथा हल्दी से रंजित रुई
की बत्ती हो.
सदगुरुदेव और भगवान गणपति का पूजन करने के बाद
दीपक को प्रज्वलित कर
उसका भी पूजन करें,हल्दी,केसर
मिश्रित खीर,पीले अक्षत,पुष्प,गुग्गल
या लोहबान धुप से पूजन करें.
इसके पश्चात “हुं” बीज का जप करें,जप
ऐसा होना चाहिए की ध्वनि हो तथा ध्वनि के साथ
नाभि अंदर धंसे, श्वांस बाहर फेकते हुए जप वाचिक रूप से
करें,या ये समझ लें की भस्त्रिका जैसे
ही इसे संपन्न करना है.अर्थात
तीव्रता से वायु बाहर करते हुए जब हम हुं
की ध्वनि करेंगे तो स्वतः ही हमारा पेट
दबता ही है,गुदा द्वार को ऊपर खीचे
हुए ये क्रिया करना है.
इस प्रकार ये क्रिया ५ मिनट तक करना है. आप
स्वतः ही देखेंगे की कैसे नाभि में स्पंदन
प्रारंभ हो जाता है.
इसके बाद स्थिर चित्त से यथासंभव त्राटक करते हुए
आधा घंटा “ह्रीं क्रं
ह्लीं ह्लीं ह्लीं क्रं
ह्रीं”(HREEM KRAM HLEEM HLEEM
HLEEM KRAM HREEM) का जप करें.
काल बीज और माया बीज से संगुम्फित
मंत्र साधक को एसी क्षमता दे देते हैं
की वो सहज ही अपने
प्राणों का विस्तार ब्रह्माण्ड में कर देता है,और काल ज्ञान
की क्षमता से युक्त हो जाता है.
जप के बाद पुनः “हुं” बीज वाला क्रम पांच मिनट तक
करें,और समर्पण के पश्चात आसन से उठ जाएँ और
खीर का भोग स्वयं ही ग्रहण
करे,साधना काल में साधक को बेसन
की सामग्री का प्रयोग खाने में अवश्य
करना चाहिए .साधना सही चल
रही है,इसका पता आपको स्वयं
ही ऐसे लगेगा की आप
जो भी स्वप्न देखेंगे,वो आपकी आँख
खुलने के बाद भी आपको स्मरण रहेंगे,तथा आप
उनकी गूढता को भी अभ्यास के साथ
धीरे धीरे समझने लग जायेंगे उन
स्वप्नों की भाषा भी आप
की समझ में आते जायेगी,शांत चित्त
होकर बैठने पर आप कई
ऐसी आवाजों को भी सुन सकते हैं
जो सामान्यतः सुनाई नहीं देती है,अर्थात
आप वाणी के उस प्रकार को भी श्रवित
कर सकते हैं जो सामान्य कानों से सुनाई नहीं देते
हैं.
इस साधना को दिनों में
नहीं बंधा जा सकता है,क्यूंकि मात्र नित्य का १
घंटा यदि आप इसका अभ्यास करते हैं
तो पंचांगुली,कर्णपिशाचिनी, कर्ण
मातंगी,देवयानी साधना की ही भाँति आप
काल दर्शन कर अतीत व भविष्य दर्शन कर सकते
हैं,इसके अलावा उन गतिविधियों और
ध्वनियों को भी आप सुन और देख सकते
हैं,जो अगोचर है,गुरु आज्ञा ना होने के कारण मैं यहाँ उस
रहस्य को स्पष्ट नहीं लिख सकत हूँ,इसलिए
मैंने मात्र संकेत ही किया है.मैंने मात्र उन भाई
बहनों के लिए इस प्रयोग का विवरण
दिया है,जिनकी रूचि स्वप्न के
रहस्यों को समझने,पराविज्ञान को आत्मसात करने और काल
दर्शन करनें में है. महाविद्या साधनाओं के बहुत से ऐसे आयाम
हैं जिनका सामान्यतः विवरण शास्त्रों में
नहीं दिया जाता है

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