Tuesday, September 18, 2018

108 का रहस्य

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~~~॥ ॐ ॥~~~---

*॥ १०८ ॥ का रहस्य -*

॥ॐ॥ का जप करते समय १०८ प्रकार की विशेष भेदक ध्वनी तरंगे उत्पन्न होती है जो किसी भी प्रकार के शारीरिक व मानसिक घातक रोगों के कारण का समूल विनाश व शारीरिक व मानसिक विकास का मूल कारण है। बौद्धिक विकास व स्मरण शक्ति के विकास में अत्यन्त प्रबल कारण है।

॥ १०८ ॥
यह अद्भुत व चमत्कारी अंक बहुत समय काल से हमारे ऋषि -मुनियों के नाम के साथ प्रयोग होता रहा है। 

----~~~॥ॐ ॥~~~---

★ संख्या १०८ का रहस्य ★
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अ→१ ... आ→२ ... इ→३ ... ई→४ ... उ→५ ... ऊ→६. ... ए→७ ... ऐ→८ ओ→९ ... औ→१० ... ऋ→११ ... लृ→१२
अं→१३ ... अ:→१४.. ऋॄ →१५.. लॄ →१६
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क→१ ... ख→२ ... ग→३ ... घ→४ ...
ङ→५ ... च→६ ... छ→७ ... ज→८ ...
झ→९ ... ञ→१० ... ट→११ ... ठ→१२ ...
ड→१३ ... ढ→१४ ... ण→१५ ... त→१६ ...
थ→१७ ... द→१८ ... ध→१९ ... न→२० ...
प→२१ ... फ→२२ ... ब→२३ ... भ→२४ ...
म→२५ ... य→२६ ... र→२७ ... ल→२८ ...
व→२९ ... श→३० ... ष→३१ ... स→३२ ...
ह→३३ ... क्ष→३४ ... त्र→३५ ... ज्ञ→३६ ...
ड़ ... ढ़ ...
--~~~ओ अहं = ब्रह्म ~~~--
ब्रह्म = ब+र+ह+म =२३+२७+३३+२५=१०८
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(१) — यह मात्रिकाएँ (१८स्वर +३६व्यंजन=५४) नाभि से आरम्भ होकर ओष्टों तक आती है, इनका एक बार चढ़ाव, दूसरी बार उतार होता है, दोनों बार में वे १०८ की संख्या बन जाती हैं। इस प्रकार १०८ मंत्र जप से नाभि चक्र से लेकर जिव्हाग्र तक की १०८ सूक्ष्म तन्मात्राओं का प्रस्फुरण हो जाता है। अधिक जितना हो सके उतना उत्तम है पर नित्य कम से कम १०८ मंत्रों का जप तो करना ही चाहिए ।।
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(२) — मनुष्य शरीर की ऊँचाई
= यज्ञोपवीत(जनेउ) की परिधि
= (४ अँगुलियों) का २७ गुणा होती है।
= ४ × २७ = १०८
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(३) नक्षत्रों की कुल संख्या = २७
प्रत्येक नक्षत्र के चरण = ४
जप की विशिष्ट संख्या = १०८
अर्थात ॐ मंत्र जप कम से कम १०८ बार करना चाहिये ।
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(४) — एक अद्भुत अनुपातिक रहस्य
★ पृथ्वी से सूर्य की दूरी/ सूर्य का व्यास=१०८
★ पृथ्वी से चन्द्र की दूरी/ चन्द्र का व्यास=१०८
अर्थात मन्त्र जप १०८ से कम नहीं करना चाहिये।
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(५) हिंसात्मक पापों की संख्या ३६ मानी गई है जो मन, वचन व कर्म ३ प्रकार से होते है। अर्थात ३६×३=१०८। अत: पाप कर्म संस्कार निवृत्ति हेतु किये गये मंत्र जप को कम से कम १०८ अवश्य ही करना चाहिये।
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(६) सामान्यत: २४ घंटे में एक व्यक्ति २१६०० बार सांस लेता है। दिन-रात के २४ घंटों में से १२ घंटे सोने व गृहस्थ कर्त्तव्य में व्यतीत हो जाते हैं और शेष १२ घंटों में व्यक्ति जो सांस लेता है वह है १०८०० बार। इस समय में ईश्वर का ध्यान करना चाहिए । शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति को हर सांस पर ईश्वर का ध्यान करना चाहिये । इसीलिए १०८०० की इसी संख्या के आधार पर जप के लिये १०८ की संख्या निर्धारित करते हैं।
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(७) एक वर्ष में सूर्य २१६०० कलाएं बदलता है। सूर्य वर्ष में दो बार अपनी स्थिति भी बदलता है। छःमाह उत्तरायण में रहता है और छः माह
दक्षिणायन में। अत: सूर्य छः माह की एक स्थिति
में १०८००० बार कलाएं बदलता है।
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(८) 786 का भी पक्का जबाब — ॥ १०८ ॥
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(९) ब्रह्मांड को १२ भागों में विभाजित किया गया है। इन १२ भागों के नाम - मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन हैं। इन १२ राशियों में नौ ग्रह सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु विचरण करते हैं। अत: ग्रहों की संख्या ९ में राशियों की संख्या १२ से गुणा करें तो संख्या १०८ प्राप्त हो जाती है।आर एम
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(१०) १०८ में तीन अंक हैं, १+०+८. इनमें एक “१" ईश्वर का प्रतीक है। ईश्वर का एक सत्ता है अर्थात ईश्वर १ है और मन भी एक है, शून्य “०" प्रकृति को दर्शाता है। आठ “८" जीवात्मा को दर्शाता है क्योकि योग के अष्टांग नियमों से ही जीव प्रभु से मिल सकता है । जो व्यक्ति अष्टांग योग द्वारा प्रकृति के आठो मूल से  विरक्त हो कर ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है उसे सिद्ध पुरुष कहते हैं। जीव “८" को परमपिता परमात्मा से मिलने के लिए प्रकृति “०" का सहारा लेना पड़ता है। ईश्वर और जीव के बीच में प्रकृति है। आत्मा जब प्रकृति को शून्य समझता है तभी ईश्वर “१" का साक्षात्कार कर सकता है। प्रकृति “०" में क्षणिक सुख है और परमात्मा में अनंत और असीम। जब तक जीव प्रकृति “०" को जो कि जड़ है उसका त्याग नहीं करेगा , अर्थात शून्य नही करेगा, मोह माया को नहीं त्यागेगा तब तक जीव “८" ईश्वर “१" से नहीं मिल पायेगा पूर्णता (१+८=९) को नहीं प्राप्त कर पायेगा ।
९ पूर्णता का सूचक है।
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(११)
१- ईश्वर और मन
२- द्वैत, दुनिया, संसार
३- गुण प्रकृति (माया)
४- अवस्था भेद (वर्ण)
५- इन्द्रियाँ
६- विकार
७- सप्तऋषि, सप्तसोपान
८- आष्टांग योग
९- नवधा भक्ति (पूर्णता)
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(१२) वैदिक विचार धारा में मनुस्मृति के अनुसार
अहंकार के गुण = २
बुद्धि के गुण = ३
मन के गुण = ४
आकाश के गुण = ५
वायु के गुण = ६
अग्नि के गुण = ७
जल के गुण = ८
पॄथ्वी के गुण = ९
२+३+४+५+६+७+८+९ =
अत: प्रकॄति के कुल गुण = ४४
जीव के गुण = १०
इस प्रकार संख्या का योग = ५४
अत: सृष्टि उत्पत्ति की संख्या = ५४
एवं सृष्टि प्रलय की संख्या = ५४
दोंनों संख्याओं का योग = १०८
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(१३)

संख्या “१" एक ईश्वर का संकेत है।
संख्या “०" जड़ प्रकृति का संकेत है।
संख्या “८" बहुआयामी जीवात्मा का संकेत है।
[ यह तीन अनादि परम वैदिक सत्य हैं ]
[ यही पवित्र त्रेतवाद है ]
संख्या “२" से “९" तक एक बात सत्य है कि इन्हीं आठ अंकों में “०" रूपी स्थान पर जीवन है। इसलिये यदि “०" न हो तो कोई क्रम गणना आदि नहीं हो सकती। “१" की चेतना से “८" का खेल । “८" यानी “२" से “९" । यह “८" क्या है ? मन के “८" वर्ग या भाव । ये आठ भाव ये हैं - १. काम ( विभिन्न इच्छायें / वासनायें ) । २. क्रोध । ३. लोभ । ४. मोह । ५. मद ( घमण्ड ) । ६. मत्सर ( जलन ) । ७. ज्ञान । ८. वैराग ।
एक सामान्य आत्मा से महानात्मा तक की यात्रा का प्रतीक है ——★ ॥ १०८ ॥ ★——
*इन आठ भावों में जीवन का ये खेल चल रहा है ।*आर एम
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(१४) सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से नौ रश्मियां निकलती हैं और ये चारो ओर से अलग-अलग निकलती है। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गई। *इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बनें ।*

इस तरह सूर्य की जब नौ रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनका पृथ्वी के आठ बसुओं से टक्कर होती हैं। *सूर्य की नौ रश्मियां और पृथ्वी के आठ बसुओं की आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुई वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गई।* इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियां पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित है।
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रहस्यमय संख्या १०८ का हिन्दू- वैदिक संस्कृति के साथ हजारों सम्बन्ध हैं जिनमें से कुछ का संग्रह है।

।।ॐ।।
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Monday, September 17, 2018

कुंडलिनी

कुंडलिनी
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मूलाधार-चक्र
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मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी-शक्ति से युक्त ‘मूल’ आधारित अथवा स्थित है। यह चक्र शरीर के रीढ़ की हड्डी के निचे स्थित है । शरीर के अन्तर्गत ‘मूल’, शिव-लिंग आकृति का एक मांस पिण्ड होता है, जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है। चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है।
मूलाधार-चक्र लाल रंग का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है। इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है। यह पृथ्वी तत्व है यह लाल रंग का होता है इसका बीज मंत्र है "लं" इस बीज मंत्र का जाप करने से
यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

स्वाधिष्ठान-चक्र
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यह चक्र रीढ़ की हड्डी के निचले भाग में होता है। स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुणियाँ कहलाती हैं। यह ऑरेंज रंग का होता है जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है, उसकी कुण्डलिनी ऊपर उठकर स्वाधिस्ठान में पहुंच जाती है। यह जल तत्व है इसे वरूण देवता का स्थान माना जाता है जब यह चक्र जागृत होने लगता है तो ठंडकता का अनुभव होने लगता है।
इसका बीज मंत्र है "वं"

मणिपूरक-चक्र
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नाभि मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अन्तर्गत मणिपूरक नामक तीसरा चक्र है, जो दस दल कमल पंखुनियों से युक्त है । जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूप साधना में लगा रहता है उसी की कुण्डलिनी-शक्ति मणिपूरक-चक्र तक पहुंच सकती है।मणिपुर चक्र अग्नि तत्व है। इसे सूर्य का स्थान माना गया है जैसे सारे ग्रहों को सूर्य प्रकाश व ऊर्जा देता है वैसे ही मणिपुर चक्र को भी माना गया है। साधक अगर बीज मंत्र "रं" का उच्चारण कर मणिपुर चक्र में ध्यान लगता है तो उसे बहुत जल्दी सफलता मिलती है। ये चक्र इसलये भी विशेष है क्योंकि हम माँ के गर्भ में नाभि से जुड़े होते है इसलिए इस चक्र पर ध्यान लगाने से ये ममतामयी माँ की तरह साधना जल्दी आगे बढ़ा देता है।
अनाहत्-चक्र
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हृदय स्थल में, द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से सुशोभित चक्र ही अनाहत्-चक्र है। अनाहत्-चक्र ही वेदान्त आदि में हृदय-गुफा भी कहलाता है, जिसमें ईश्वर स्थित रहते हैं, ऐसा वर्णन मिलता है। ईश्वर ही ब्रह्म और आत्मा भी है। इसलिए इस चक्र में अपने इष्ट देव का ध्यान करना चाहिए। यह चक्र हरे रंग का होता है। इसका बीज मंत्र है "यं" इस मंत्र का जाप करने से हृदय चक्र पर ध्यान करने वाला प्रेम से ओतप्रोत हो जाता है। यह वायु तत्व है।

विशुद्ध-चक्र
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कण्ठ स्थित षोडसदल कमल की पंखुड़ियों वाला यह चक्र विशुद्ध-चक्र है। यह नीले रंग का होता है। यह आकाश तत्व है। यहाँ के अभीष्ट देवता शंकर जी हैं।
जब कुण्डलिनी-शक्ति विशुद्ध-चक्र में प्रवेश कर विश्राम करने लगती है, तब उस सिद्ध-साधक के अन्दर संसार त्याग का भाव प्रबल होने लगता है और उसके स्थान पर सन्यास भाव अच्छा लगने लगता है। संसार मिथ्या, भ्रम-जाल, स्वप्नवत् आदि के रूप में लगने लगता है। उस सिद्ध व्यक्ति में शंकर जी की शक्ति आ जाती है। इसका बीज मंत्र है "हं"

आज्ञा-चक्र
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भू-मध्य स्थित लाल वर्ण दो अक्षरों हं, सः से युक्त दो पंखुड़ियों वाला यह चक्र ही आज्ञा-चक्र है। इसका अभीष्ट प्रधान आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा ईश्वर या दिव्य-ज्योति अथवा डिवाइन लाइट अथवा भर्गो-ज्योति अथवा सहज-प्रकाश अथवा परमप्रकाश अथवा आत्म ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि अनेक नामों वाला परन्तु एक ही रूप वाला ही नियत है। यह वह चक्र है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा रूप चेतन-शक्ति से है। दूसरे शब्दों में आत्मा का उत्पत्ति स्रोत तो परमेश्वर होता है और गन्तव्य-स्थल आज्ञा-चक्र होता है।
ध्यान केन्द्र और दिव्य-दृष्टि अथवा तीसरी आँख,
भी कहा जाता है।
शंकर जी से लेकर वर्तमान कालिक जितने भी योगी-महात्मा, ऋषि-महर्षि आदि थे और हैं, चाहे वे योग-साधना करते हों या मुद्राएँ, प्रत्येक के अन्तर्गत ध्यान एक अत्यन्त आवश्यक योग की क्रिया है जिसके बिना सृष्टि का कोई भी आत्मा का दर्शन या साक्षात्कार नहीं कर सकता है। दूसरे शब्दों में योग-साधना के अन्तर्गत ध्यान का वही स्थान है ।जिस प्रकार शरीर या संसार को देखने के लिए सर्वप्रथम आँख का स्थान है उसी प्रकार आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म को देखने और पहचानने के लिए ध्यान का स्थान है। ध्यान का केंद्र आज्ञा-चक्र ही होता है। इसका बीज मंत्र है "उं" यह बैगनी रंग का होता है।

सहस्रार-चक्र
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सहस्र पंखुणियों वाला यह चक्र सिर के उर्ध्व भाग में नीचे मुख करके लटका हुआ रहता है, जो सत्यमय, ज्योतिर्मय, चिदानंदमय एवं ब्रह्ममय है, उसी के मध्य दिव्य-ज्योति से सुशोभित वर और अभय मुद्रा में शिव रूप में गुरुदेव बैठे रहते हैं। यहाँ पर गुरुदेव सगुण साकार रूप में रहते हैं। सहस्रार-चक्र में ब्रह्ममय रूप में गुरुदेव बैठकर पूरे शरीर का संचालन करते है उनके निवास स्थान तथा सहयोग में मिला हुआ दिमाग या मस्तिष्क भी उन्ही के क्षेत्र में रहता है जिससे पूरा क्षेत्र एक ब्रह्माण्ड कहलाता है। इसका बीज मंत्र है "ॐ" इसका रंग प्याजी( प्याज की तरह का होता है) जब यह चक्र जागृत होने लगता है तो सारे चक्रो में बर्फ की तरह ठंडकता का आभास होता है।

अगर किसी साधक का मन शांत बैठने से भटकने लगता हो तो वो इन बीज मंत्रो का उच्चारण करे जिससे मन को काम मिल जायेगा और वो भटकेगा नही।।

Wednesday, September 5, 2018

मृत संजीवनज मंत्र

मृत संजीवनी यन्त्र ::मृत्यु जब समीप हो
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मृत संजीवनी विद्या ::पुनर्जीवन दे
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        भगवान महादेव विश्व की संहार शक्ति के रूप में प्रख्यात है। यही कारण है कि उनकी आराधना से सभी प्रकार के दैहिक, दैविक तथा भौतिक कष्ट सहज ही समाप्त हो जाते हैं। उनके पंचाक्षरी मंत्र से जहां जीवन के समस्त कष्ट दूर होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है, वहीं उनके महामृत्युंजय मंत्र के जप से दुर्भाग्य तथा मृत्यु को भी हराया जा सकता है।लेकिन भगवान शिव का ही एक मंत्र  "मृत संजीवनी मंत्र "जीवन के बड़े से बड़े संकट को दूर कर देता है। इस मंत्र के जप से ही भगवान राम भी रावण को नहीं हरा पा रहे थे और इसी मंत्र के दम पर आज भी कुछ तांत्रिक असंभव को भी संभव कर देते हैं।
         शास्त्रों में,पुराणों में और हिन्दू धर्म में भी गायत्री मंत्र और मृत्युंजय मंत्र का बहुत ही महत्त्व है| इन दोनों ही मंत्रो को बहुत बड़े मन्त्र माना जाता है, जो आपको सभी संकटों से मुक्त कर सकात्मकता से भर देते है| लेकिन भारतीय शास्त्रों में ऐसे मन्त्र का उल्लेख भी है, जो इन दोनों ही मन्त्रों से शक्तिशाली है क्योंकि यह मंत्र गायत्री और मृत्युंजय मंत्र दोनों से मिलकर बना है।  कहते है की इस मंत्र से मृत व्यक्ति को भी जीवित किया जा सकता है अर्थात इस मंत्र के सही जाप से बड़े से बड़े रोग और संकट से मुक्ति पाई जा सकती है। इस मंत्र का नाम है मृत संजीवनी मंत्र|
         संजीवनी विद्या की कथा उस काल से जुड़ी है जब देवता और दानव, दोनों ही नश्वर जीवन व्यतीत कर रहे थे। उन्होंने न तो अमृत का पान किया था और ना ही उन्हें अनश्वर रहने का वरदान प्राप्त था। वे सभी भूलोक पर रहकर सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे थे। देवता और दानव, दोनों ही ऋषि कश्यप के पुत्र हैं। लेकिन फिर भी जिस समय का जिक्र हम यहां कर रहे हैं उस समय दानव, अपने देव भाइयों की तुलना में ज्यादा ताकतवर थे। वे दोनों सदैव ही आपस में युद्ध किया करते थे। युद्ध के दौरान देवता और असुर दोनों ही अपने प्राण गंवाते थे, लेकिन असुरों के गुरु शुक्राचार्य के पास एक ऐसी विद्या थी जिसकी सहायता से वे मृत असुरों को फिर से जीवित कर दिया करते थे। शुक्राचार्य, संजीवनी मंत्र को अच्छे से जानते थे। इस मंत्र की सहायता से वे असुरों को पुन: जीवित कर दिया करते थे। दानव मरते और फिर जीवित हो उठते, इससे उनकी ताकत बढ़ती और देवताओं की क्षीण होती जा रही थी। देवता शुक्राचार्य से किसी भी हाल में संजीवनी विद्या हासिल करना चाहते थे लेकिन यह कार्य इतना भी आसान नहीं था। देवताओं के गुरु बृहस्पति ने एक युक्ति सोची, उन्होंने अपने पुत्र कच को शुक्राचार्य के पास भेजा। कच को असुरों के बीच भेजने का उद्देश्य था अपनी सेवा भावना, श्रद्धा और गुरु-भक्ति से शुक्राचार्य को प्रसन्न कर संजीवनी विद्या हासिल करना, ताकि देवताओं की सहायता की जा सके। बृहस्पति के पुत्र कच, सभी गुणों में लैस थे। वे यौवन और सुंदरता की मूर्ति तो थे ही साथ ही गुरु-भक्ति और समर्पण की भावना भी उनमें कूट-कूटकर भरी थी।
शुक्राचार्य की रूपवान बेटी देवयानी, कच के यौवन पर मोहित हो उठीं और किसी भी कीमत पर उनसे विवाह करने के स्वप्न देखने लगीं। लेकिन असुर ये जान गए थे कि देवताओं की ओर से कच आचार्य के पास अध्ययन करने के लिए आए हुए हैं। वे भयभीत हो गए कि कहीं शुक्राचार्य, संजीवनी मंत्र कच को ना सौंप दें। क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो देवताओं पर विजय हासिल करना मुश्किल हो जाएगा। वे जब भी कच की हत्या करते, शुक्राचार्य उन्हें फिर से जीवित कर देते। एक दिन शुक्राचार्य से छिपाकर वे कच को मारने में सफल हो गए और उन्होंने कच के अवशेषों को पानी में मिलाकर शुक्राचार्य को पिला दिया। वे इस बात से आश्वस्त थे कि अब तो किसी भी तरह कच जीवित नहीं हो सकता। लेकिन इस बार जो हुआ वह उनकी कल्पना से भी परे था। अब जब शुक्राचार्य को पता चला कि उनके शिष्यों यानि असुरों ने कच की हत्या कर दी है तो फिर से उसे जीवित करने का प्रयास करने लगे। इस प्रक्रिया के दौरान उन्हें पता चला कि कच उनके पेट में हैं। अब शुक्राचार्य, कच को संजीवनी विद्या सिखाने के लिए विवश हो गए थे। संजीवनी विद्या सीखने के बाद कच उनका पेट चीरकर बाहर निकल आए। कच, संजीवनी मंत्रों को भली-भांति सीख चुके थे और अब वह इस विद्या का प्रयोग कर भी सकते थे। उन्होंने इस विद्या की सहायता से सर्वप्रथम शुक्राचार्य को जीवित किया। शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी जो हृदय से कच को अपना बनाना चाहती थी, कच के पास विवाह प्रस्ताव लेकर पहुंची। लेकिन कच ने इस प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि वह शुक्राचार्य के शरीर से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए देवयानी उनकी बहन जैसी हुईं। इस बात से देवयानी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और उन्होंने कच को श्राप दिया कि वे कभी भी संजीवनी विद्या का प्रयोग नहीं कर पाएंगे। इस पर कच ने उन्हें उत्तर दिया कि भले ही वह इस विद्या का प्रयोग नहीं कर पाएंगे लेकिन इसे देवताओं को सिखा तो अवश्य देंगे। इस प्रकार देवताओं तक संजीवनी विद्या का प्रसार हुआ।
मृत संजीवनी यन्त्र
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          मृत संजीवनी मंत्र साधना में मृत संजीवनी यन्त्र का प्रयोग किया जाता है और प्रतिदिन इसकी पूजा विधिवत की जाती है |इसके बाद मंत्र जप होता है |मृत संजीवनी मंत्र के साधक इसे स्वतंत्र रूप से भी मृत्यु के समीप पहुँच रहे व्यक्ति के लिए बनाते हैं और अभिमंत्रित कर धारण कराते हैं |कैंसर ,ह्रदय रोग ,एड्स ,गंभीर दुर्घटना ,ह्रदय की खराबी ,किडनी की खराबी ,मश्तिश्काघात आदि जैसी बीमारियों अथवा जब भी मृत्यु की संभावना बन रही हो इसका प्रयोग किया जाता है |आज के समय में मृत संजीवनी विद्या से भी मृत को जीवित करने की क्षमता रखने वाला साधक मिलना बेहद मुश्किल है ,यद्यपि असंभव कुछ भी नहीं और अपवाद हमेशा उपलब्ध होता है पर जिनके पास यह क्षमता हो वह आज के समय में सामाजिक रूप से सक्रीय होगा ,कहना मुश्किल है |अतः मृत्यु समीप वाले पर ही इसका प्रयोग अधिक उपयुक्त है और ऐसे व्यक्ति को धारण कराने से दो तरह की क्रिया होती है |एक तो उसकी प्राण शक्ति बढ़ जाती है गायत्री के प्रभाव से ,दुसरे आसन्न मृत्यु को टाला जा सकता है महामृत्युंजय भगवान् शिव के प्रभाव से |अतः जब भी किसी की मृत्यु की आशंका समीप हो उसे मृत संजीवनी यन्त्र कम से कम २१००० मन्त्रों से अभिमंत्रित करके धारण कराना चाहिए |
मृत संजीवनी मंत्र साधना
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         मृत्युंजय मन्त्र साधना और मृत संजीवनी मन्त्र साधना दोनों अलग -अलग साधना है| हमारे परम आदरणीय हिन्दू धर्म के दुर्लभ शास्त्र कहते हैं ,की मृत्युंजय मन्त्र साधना में जिन्दा आदमी की किसी भी कारण से हो सकने वाली मृत्यु को टालने का प्रयास किया जाता है ,जबकि मृत संजीवनी मन्त्र साधना में मर चुके आदमी को फिर से जिन्दा करने का प्रयास किया जाता है| शास्त्रों के अनुसार, ये दोनों विद्याएँ बहुत ही कठिन है पर मृत संजीवनी विद्या विशेष कठिन है क्योंकि इसमें मरा हुआ शरीर चाहे कितनी भी सड़ी गली या कटी फटी अवस्था में हो उसे जिन्दा किया जा सकता है जबकि महामृत्युंजय मन्त्र साधना में मृत्यु चाहे जिस भी कारण (चाहे कैंसर, एड्स हो या कोई एक्सीडेंट) से पास आ रही हो रुक जाती है और शरीर पहले की तरह धीरे धीरे स्वस्थ भी हो जाता है |
          महामृत्युंजय मंत्र में जहां हिंदू धर्म के सभी 33 देवताओं (8 वसु, 11 रूद्र, 12 आदित्य, 1 प्रजापति तथा 1 वषट तथा ऊँ) की शक्तियां शामिल हैं वहीं गायत्री मंत्र प्राण ऊर्जा तथा आत्मशक्ति को चमत्कारिक रूप से बढ़ाने वाला मंत्र है। विधिवत रूप से संजीवनी मंत्र की साधना करने से इन दोनों मंत्रों के संयुक्त प्रभाव से व्यक्ति में कुछ ही समय में विलक्षण शक्तियां उत्पन्न हो जाती है। यदि वह नियमित रूप से इस मंत्र का जाप करता रहे तो उसे अष्ट सिदि्धयां, नव निधियां मिलती हैं तथा मृत्यु के बाद उसका मोक्ष हो जाता है।
संजीवनी मंत्र के जाप में इन बातों का ध्यान रखें :
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(1) जपकाल के दौरान पूर्ण रूप से सात्विक जीवन जिएं। सरसों तेल ,साबुन -शैम्पू ,पेस्ट का मंजन न करें |पूर्ण शारीरिक -मानसिक ब्रह्मचर्य का पालन हो |
(2) मंत्र के दौरान साधक का मुंह पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए।
(3) इस मंत्र का जाप शिवमंदिर में या किसी शांत एकांत जगह पर रूद्राक्ष की माला से ही करना चाहिए।
(4) मंत्र का उच्चारण बिल्कुल शुद्ध और सही होना चाहिए साथ ही मंत्र की आवाज होठों से बाहर नहीं आनी चाहिए।
(5) जपकाल के दौरान व्यक्ति को मांस, शराब, सेक्स तथा अन्य सभी तामसिक चीजों से दूर रहना चाहिए। उसे पूर्ण ब्रहमचर्य के साथ रहते हुए अपनी पूजा करनी चाहिए।
(6) जिसके लिए किया जा रहा जप या तो उसका भोजन हो अथवा खुद के घर का ही भोजन हो |किसी अन्य के घर का भोजन अथवा अन्न ग्रहण न करें |
(7) मृतक अथवा जन्म सूतक से बचाव करें |अस्पताल आदि जाने से बचें जहाँ जन्म -मृत्यु होती हो |
क्यों नहीं करना चाहिए महामृत्युंजय गायत्री (संजीवनी) मंत्र का जाप :
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        मृत संजीवनी मंत्र का जप और इसका अनुष्ठान हर कोई नहीं कर सकता |या तो यह गुरु दीक्षा के बाद गुरु द्वारा दिया गया हो अथवा ऐसा ब्राह्मण जिसने गायत्री और महामृत्युंजय दोनों ही मन्त्रों के कम से कम 5 -5 लाख जप कर लिए वह भी गुरु द्वारा अनुमति मिलने पर ही इस अनुष्ठान को कर सकता है |इसका किसी पर प्रयोग करने से पूर्व अथवा इसके यन्त्र निर्माण और प्रतिष्ठा के पूर्व साधक को कम से कम इसका सवा लाख का एक पुरश्चरण करना आवश्यक होता है ,तभी वह यन्त्र में शक्ति ला पाता है |बिन किसी पुरश्चरण के सीधे बनाया और अभिमंत्रित किया गया यन्त्र किसी की जान बचाने के बजाय जान ले भी सकता है ,क्योंकि पुरश्चरण के बाद किया गया हवन यह निश्चित करता है की पुरश्चरण सफल हुआ या असफल |लाभदायक हुआ या हानिकारक |पुरश्चरण अथवा मन्त्र जप में हुई त्रुटी महा क्षति करती है |
         गायत्री को सौम्य शक्ति कहा जाता है किन्तु वास्तव में यह सौम्य नहीं समग्र शक्ति है जिससे हर उद्देश्य पूर्ण होते हैं |यही सावित्री भी है और महाकाली भी है |एक तो इनकी शक्ति उपर से महाकाल मृत्युंजय की शक्ति जब एक साथ संयुक्त हो तो उस ऊर्जा का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता |मृत्युंजय ,मृत्यु रोकते हैं और गायत्री पुनर्जीवन देती हैं |आध्यात्म विज्ञान के अनुसार संजीवनी मंत्र के जाप से व्यक्ति में बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा पैदा होती है जिसे हर व्यक्ति सहन नहीं कर सकता। नतीजतन आदमी कुछ सौ जाप करने में ही पागल हो जाता है या तो उसकी मृत्यु हो जाती है ,यदि इसका पूर्ण नाद और स्वर से जप किया जाय तो | इसे गुरू के सान्निध्य में सीखा जाता है और धीरे-धीरे अभ्यास के साथ बढ़ाया जाता है। इसके साथ कुछ विशेष प्राणायाम और अन्य यौगिक क्रियाएं भी सिखनी होती है ताकि मंत्र से पैदा हुई असीम ऊर्जा को संभाला जा सके। इसीलिए इन सभी चीजों से बचने के लिए इस मंत्र की साधना किसी अनुभवी गुरू के दिशा- निर्देश में ही करनी चाहिए।इन्ही कारणों से इसे सामान्य लोगों और यहाँ तक की अच्छे से अच्छे साधक को भी करने से मना किया जाता है |
मृत संजीवनी मंत्र
---------------------- "ऊँ हौं जूं स: ऊँ भूर्भुव: स्व: ऊँ ˜त्र्यंबकंयजामहे ऊँ तत्सर्वितुर्वरेण्यं ऊँ सुगन्धिंपुष्टिवर्धनम ऊँ भर्गोदेवस्य धीमहि ऊँ उर्वारूकमिव बंधनान ऊँ धियो योन: प्रचोदयात ऊँ मृत्योर्मुक्षीय मामृतात ऊँ स्व: ऊँ भुव: ऊँ भू: ऊँ स: ऊँ जूं ऊँ हौं ऊँ"
विशेष -
---------- इस विद्या और इस यन्त्र का प्रयोग केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही किया जा सकता है जबकि मृत्यु से बचने का कोई अन्य विकल्प न सूझे |यह बेहद तीव्र उपाय है और बेहद पवित्र भी |इसके साथ सावधानियां भी रखनी होती हैं |संजीवनी यन्त्र का निर्माण या तो इसके साधक से हो या कम से कम जिसे कोई उग्र महाविद्या सिद्ध हो उसके द्वारा हो |न तो सामान्य साधक इसे उर्जीकृत कर पायेगा और ही पर्याप्त तंत्रोक्त पद्धति का पालन ही कर पायेगा | हम मूलतः भगवती काली के साधक हैं किन्तु जन्म से ब्राह्मण होने से बचपन से ही हमें गायत्री मंत्र प्राप्त हुआ जिसका समय क्रम में अनेक पुरश्चरण हुआ |तंत्र और ज्योतिष में पदार्पण के बाद महामृत्युंजय के भी दसियों पुरश्चरण खुद के लिए और लोगों के लिए किये गए |गुरु अनुमति से इसके बाद मृतसंजीवनी का भी पुरश्चरण हुआ जिसके अनुभव के आधार पर हम यह लेख लिख पा रहे हैं |हमारा अनुरोध है की मात्र इस लेख को देखकर अथवा मंत्र देखकर ,यन्त्र देखकर न तो यन्त्र निर्मित करें ,न मंत्र के अनुष्ठान करें |किसी क्षति के हम जिम्मेदार नहीं होंगे |क्षति भी ऐसी की फिर कोई शक्ति उसे सुधार नहीं पाएगी |.......................................................