Monday, May 14, 2018

मृत संजीवनी विद्या

मृत संजीवनी विद्या क्या है जो पुनर्जीवन देती है
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मृत संजीवनी यन्त्र ::मृत्यु जब समीप हो
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        भगवान महादेव विश्व की संहार शक्ति के रूप में प्रख्यात है। यही कारण है कि उनकी आराधना से सभी प्रकार के दैहिक, दैविक तथा भौतिक कष्ट सहज ही समाप्त हो जाते हैं। उनके पंचाक्षरी मंत्र से जहां जीवन के समस्त कष्ट दूर होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है, वहीं उनके महामृत्युंजय मंत्र के जप से दुर्भाग्य तथा मृत्यु को भी हराया जा सकता है।लेकिन भगवान शिव का ही एक मंत्र  "मृत संजीवनी मंत्र "जीवन के बड़े से बड़े संकट को दूर कर देता है। इस मंत्र के जप से ही भगवान राम भी रावण को नहीं हरा पा रहे थे और इसी मंत्र के दम पर आज भी कुछ तांत्रिक असंभव को भी संभव कर देते हैं।
         शास्त्रों में,पुराणों में और हिन्दू धर्म में भी गायत्री मंत्र और मृत्युंजय मंत्र का बहुत ही महत्त्व है| इन दोनों ही मंत्रो को बहुत बड़े मन्त्र माना जाता है, जो आपको सभी संकटों से मुक्त कर सकात्मकता से भर देते है| लेकिन भारतीय शास्त्रों में ऐसे मन्त्र का उल्लेख भी है, जो इन दोनों ही मन्त्रों से शक्तिशाली है क्योंकि यह मंत्र गायत्री और मृत्युंजय मंत्र दोनों से मिलकर बना है।  कहते है की इस मंत्र से मृत व्यक्ति को भी जीवित किया जा सकता है अर्थात इस मंत्र के सही जाप से बड़े से बड़े रोग और संकट से मुक्ति पाई जा सकती है। इस मंत्र का नाम है मृत संजीवनी मंत्र|
         संजीवनी विद्या की कथा उस काल से जुड़ी है जब देवता और दानव, दोनों ही नश्वर जीवन व्यतीत कर रहे थे। उन्होंने न तो अमृत का पान किया था और ना ही उन्हें अनश्वर रहने का वरदान प्राप्त था। वे सभी भूलोक पर रहकर सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे थे। देवता और दानव, दोनों ही ऋषि कश्यप के पुत्र हैं। लेकिन फिर भी जिस समय का जिक्र हम यहां कर रहे हैं उस समय दानव, अपने देव भाइयों की तुलना में ज्यादा ताकतवर थे। वे दोनों सदैव ही आपस में युद्ध किया करते थे। युद्ध के दौरान देवता और असुर दोनों ही अपने प्राण गंवाते थे, लेकिन असुरों के गुरु शुक्राचार्य के पास एक ऐसी विद्या थी जिसकी सहायता से वे मृत असुरों को फिर से जीवित कर दिया करते थे। शुक्राचार्य, संजीवनी मंत्र को अच्छे से जानते थे। इस मंत्र की सहायता से वे असुरों को पुन: जीवित कर दिया करते थे। दानव मरते और फिर जीवित हो उठते, इससे उनकी ताकत बढ़ती और देवताओं की क्षीण होती जा रही थी। देवता शुक्राचार्य से किसी भी हाल में संजीवनी विद्या हासिल करना चाहते थे लेकिन यह कार्य इतना भी आसान नहीं था। देवताओं के गुरु बृहस्पति ने एक युक्ति सोची, उन्होंने अपने पुत्र कच को शुक्राचार्य के पास भेजा। कच को असुरों के बीच भेजने का उद्देश्य था अपनी सेवा भावना, श्रद्धा और गुरु-भक्ति से शुक्राचार्य को प्रसन्न कर संजीवनी विद्या हासिल करना, ताकि देवताओं की सहायता की जा सके। बृहस्पति के पुत्र कच, सभी गुणों में लैस थे। वे यौवन और सुंदरता की मूर्ति तो थे ही साथ ही गुरु-भक्ति और समर्पण की भावना भी उनमें कूट-कूटकर भरी थी।
शुक्राचार्य की रूपवान बेटी देवयानी, कच के यौवन पर मोहित हो उठीं और किसी भी कीमत पर उनसे विवाह करने के स्वप्न देखने लगीं। लेकिन असुर ये जान गए थे कि देवताओं की ओर से कच आचार्य के पास अध्ययन करने के लिए आए हुए हैं। वे भयभीत हो गए कि कहीं शुक्राचार्य, संजीवनी मंत्र कच को ना सौंप दें। क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो देवताओं पर विजय हासिल करना मुश्किल हो जाएगा। वे जब भी कच की हत्या करते, शुक्राचार्य उन्हें फिर से जीवित कर देते। एक दिन शुक्राचार्य से छिपाकर वे कच को मारने में सफल हो गए और उन्होंने कच के अवशेषों को पानी में मिलाकर शुक्राचार्य को पिला दिया। वे इस बात से आश्वस्त थे कि अब तो किसी भी तरह कच जीवित नहीं हो सकता। लेकिन इस बार जो हुआ वह उनकी कल्पना से भी परे था। अब जब शुक्राचार्य को पता चला कि उनके शिष्यों यानि असुरों ने कच की हत्या कर दी है तो फिर से उसे जीवित करने का प्रयास करने लगे। इस प्रक्रिया के दौरान उन्हें पता चला कि कच उनके पेट में हैं। अब शुक्राचार्य, कच को संजीवनी विद्या सिखाने के लिए विवश हो गए थे। संजीवनी विद्या सीखने के बाद कच उनका पेट चीरकर बाहर निकल आए। कच, संजीवनी मंत्रों को भली-भांति सीख चुके थे और अब वह इस विद्या का प्रयोग कर भी सकते थे। उन्होंने इस विद्या की सहायता से सर्वप्रथम शुक्राचार्य को जीवित किया। शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी जो हृदय से कच को अपना बनाना चाहती थी, कच के पास विवाह प्रस्ताव लेकर पहुंची। लेकिन कच ने इस प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि वह शुक्राचार्य के शरीर से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए देवयानी उनकी बहन जैसी हुईं। इस बात से देवयानी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और उन्होंने कच को श्राप दिया कि वे कभी भी संजीवनी विद्या का प्रयोग नहीं कर पाएंगे। इस पर कच ने उन्हें उत्तर दिया कि भले ही वह इस विद्या का प्रयोग नहीं कर पाएंगे लेकिन इसे देवताओं को सिखा तो अवश्य देंगे। इस प्रकार देवताओं तक संजीवनी विद्या का प्रसार हुआ।
मृत संजीवनी यन्त्र
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          मृत संजीवनी मंत्र साधना में मृत संजीवनी यन्त्र का प्रयोग किया जाता है और प्रतिदिन इसकी पूजा विधिवत की जाती है |इसके बाद मंत्र जप होता है |मृत संजीवनी मंत्र के साधक इसे स्वतंत्र रूप से भी मृत्यु के समीप पहुँच रहे व्यक्ति के लिए बनाते हैं और अभिमंत्रित कर धारण कराते हैं |कैंसर ,ह्रदय रोग ,एड्स ,गंभीर दुर्घटना ,ह्रदय की खराबी ,किडनी की खराबी ,मश्तिश्काघात आदि जैसी बीमारियों अथवा जब भी मृत्यु की संभावना बन रही हो इसका प्रयोग किया जाता है |आज के समय में मृत संजीवनी विद्या से भी मृत को जीवित करने की क्षमता रखने वाला साधक मिलना बेहद मुश्किल है ,यद्यपि असंभव कुछ भी नहीं और अपवाद हमेशा उपलब्ध होता है पर जिनके पास यह क्षमता हो वह आज के समय में सामाजिक रूप से सक्रीय होगा ,कहना मुश्किल है |अतः मृत्यु समीप वाले पर ही इसका प्रयोग अधिक उपयुक्त है और ऐसे व्यक्ति को धारण कराने से दो तरह की क्रिया होती है |एक तो उसकी प्राण शक्ति बढ़ जाती है गायत्री के प्रभाव से ,दुसरे आसन्न मृत्यु को टाला जा सकता है महामृत्युंजय भगवान् शिव के प्रभाव से |अतः जब भी किसी की मृत्यु की आशंका समीप हो उसे मृत संजीवनी यन्त्र कम से कम २१००० मन्त्रों से अभिमंत्रित करके धारण कराना चाहिए |
मृत संजीवनी मंत्र साधना
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         मृत्युंजय मन्त्र साधना और मृत संजीवनी मन्त्र साधना दोनों अलग -अलग साधना है| हमारे परम आदरणीय हिन्दू धर्म के दुर्लभ शास्त्र कहते हैं ,की मृत्युंजय मन्त्र साधना में जिन्दा आदमी की किसी भी कारण से हो सकने वाली मृत्यु को टालने का प्रयास किया जाता है ,जबकि मृत संजीवनी मन्त्र साधना में मर चुके आदमी को फिर से जिन्दा करने का प्रयास किया जाता है| शास्त्रों के अनुसार, ये दोनों विद्याएँ बहुत ही कठिन है पर मृत संजीवनी विद्या विशेष कठिन है क्योंकि इसमें मरा हुआ शरीर चाहे कितनी भी सड़ी गली या कटी फटी अवस्था में हो उसे जिन्दा किया जा सकता है जबकि महामृत्युंजय मन्त्र साधना में मृत्यु चाहे जिस भी कारण (चाहे कैंसर, एड्स हो या कोई एक्सीडेंट) से पास आ रही हो रुक जाती है और शरीर पहले की तरह धीरे धीरे स्वस्थ भी हो जाता है |
          महामृत्युंजय मंत्र में जहां हिंदू धर्म के सभी 33 देवताओं (8 वसु, 11 रूद्र, 12 आदित्य, 1 प्रजापति तथा 1 वषट तथा ऊँ) की शक्तियां शामिल हैं वहीं गायत्री मंत्र प्राण ऊर्जा तथा आत्मशक्ति को चमत्कारिक रूप से बढ़ाने वाला मंत्र है। विधिवत रूप से संजीवनी मंत्र की साधना करने से इन दोनों मंत्रों के संयुक्त प्रभाव से व्यक्ति में कुछ ही समय में विलक्षण शक्तियां उत्पन्न हो जाती है। यदि वह नियमित रूप से इस मंत्र का जाप करता रहे तो उसे अष्ट सिदि्धयां, नव निधियां मिलती हैं तथा मृत्यु के बाद उसका मोक्ष हो जाता है।
संजीवनी मंत्र के जाप में इन बातों का ध्यान रखें :
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(1) जपकाल के दौरान पूर्ण रूप से सात्विक जीवन जिएं। सरसों तेल ,साबुन -शैम्पू ,पेस्ट का मंजन न करें |पूर्ण शारीरिक -मानसिक ब्रह्मचर्य का पालन हो |
(2) मंत्र के दौरान साधक का मुंह पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए।
(3) इस मंत्र का जाप शिवमंदिर में या किसी शांत एकांत जगह पर रूद्राक्ष की माला से ही करना चाहिए।
(4) मंत्र का उच्चारण बिल्कुल शुद्ध और सही होना चाहिए साथ ही मंत्र की आवाज होठों से बाहर नहीं आनी चाहिए।
(5) जपकाल के दौरान व्यक्ति को मांस, शराब, सेक्स तथा अन्य सभी तामसिक चीजों से दूर रहना चाहिए। उसे पूर्ण ब्रहमचर्य के साथ रहते हुए अपनी पूजा करनी चाहिए।
(6) जिसके लिए किया जा रहा जप या तो उसका भोजन हो अथवा खुद के घर का ही भोजन हो |किसी अन्य के घर का भोजन अथवा अन्न ग्रहण न करें |
(7) मृतक अथवा जन्म सूतक से बचाव करें |अस्पताल आदि जाने से बचें जहाँ जन्म -मृत्यु होती हो |
क्यों नहीं करना चाहिए महामृत्युंजय गायत्री (संजीवनी) मंत्र का जाप :
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        मृत संजीवनी मंत्र का जप और इसका अनुष्ठान हर कोई नहीं कर सकता |या तो यह गुरु दीक्षा के बाद गुरु द्वारा दिया गया हो अथवा ऐसा ब्राह्मण जिसने गायत्री और महामृत्युंजय दोनों ही मन्त्रों के कम से कम 5 -5 लाख जप कर लिए वह भी गुरु द्वारा अनुमति मिलने पर ही इस अनुष्ठान को कर सकता है |इसका किसी पर प्रयोग करने से पूर्व अथवा इसके यन्त्र निर्माण और प्रतिष्ठा के पूर्व साधक को कम से कम इसका सवा लाख का एक पुरश्चरण करना आवश्यक होता है ,तभी वह यन्त्र में शक्ति ला पाता है |बिन किसी पुरश्चरण के सीधे बनाया और अभिमंत्रित किया गया यन्त्र किसी की जान बचाने के बजाय जान ले भी सकता है ,क्योंकि पुरश्चरण के बाद किया गया हवन यह निश्चित करता है की पुरश्चरण सफल हुआ या असफल |लाभदायक हुआ या हानिकारक |पुरश्चरण अथवा मन्त्र जप में हुई त्रुटी महा क्षति करती है |
         गायत्री को सौम्य शक्ति कहा जाता है किन्तु वास्तव में यह सौम्य नहीं समग्र शक्ति है जिससे हर उद्देश्य पूर्ण होते हैं |यही सावित्री भी है और महाकाली भी है |एक तो इनकी शक्ति उपर से महाकाल मृत्युंजय की शक्ति जब एक साथ संयुक्त हो तो उस ऊर्जा का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता |मृत्युंजय ,मृत्यु रोकते हैं और गायत्री पुनर्जीवन देती हैं |आध्यात्म विज्ञान के अनुसार संजीवनी मंत्र के जाप से व्यक्ति में बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा पैदा होती है जिसे हर व्यक्ति सहन नहीं कर सकता। नतीजतन आदमी कुछ सौ जाप करने में ही पागल हो जाता है या तो उसकी मृत्यु हो जाती है ,यदि इसका पूर्ण नाद और स्वर से जप किया जाय तो | इसे गुरू के सान्निध्य में सीखा जाता है और धीरे-धीरे अभ्यास के साथ बढ़ाया जाता है। इसके साथ कुछ विशेष प्राणायाम और अन्य यौगिक क्रियाएं भी सिखनी होती है ताकि मंत्र से पैदा हुई असीम ऊर्जा को संभाला जा सके। इसीलिए इन सभी चीजों से बचने के लिए इस मंत्र की साधना किसी अनुभवी गुरू के दिशा- निर्देश में ही करनी चाहिए।इन्ही कारणों से इसे सामान्य लोगों और यहाँ तक की अच्छे से अच्छे साधक को भी करने से मना किया जाता है |
मृत संजीवनी मंत्र
---------------------- "ऊँ हौं जूं स: ऊँ भूर्भुव: स्व: ऊँ ˜त्र्यंबकंयजामहे ऊँ तत्सर्वितुर्वरेण्यं ऊँ सुगन्धिंपुष्टिवर्धनम ऊँ भर्गोदेवस्य धीमहि ऊँ उर्वारूकमिव बंधनान ऊँ धियो योन: प्रचोदयात ऊँ मृत्योर्मुक्षीय मामृतात ऊँ स्व: ऊँ भुव: ऊँ भू: ऊँ स: ऊँ जूं ऊँ हौं ऊँ"
विशेष -
---------- इस विद्या और इस यन्त्र का प्रयोग केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही किया जा सकता है जबकि मृत्यु से बचने का कोई अन्य विकल्प न सूझे |यह बेहद तीव्र उपाय है और बेहद पवित्र भी |इसके साथ सावधानियां भी रखनी होती हैं |संजीवनी यन्त्र का निर्माण या तो इसके साधक से हो या कम से कम जिसे कोई उग्र महाविद्या सिद्ध हो उसके द्वारा हो |न तो सामान्य साधक इसे उर्जीकृत कर पायेगा और ही पर्याप्त तंत्रोक्त पद्धति का पालन ही कर पायेगा | हम मूलतः भगवती काली के साधक हैं किन्तु जन्म से ब्राह्मण होने से बचपन से ही हमें गायत्री मंत्र प्राप्त हुआ जिसका समय क्रम में अनेक पुरश्चरण हुआ |तंत्र और ज्योतिष में पदार्पण के बाद महामृत्युंजय के भी दसियों पुरश्चरण खुद के लिए और लोगों के लिए किये गए |गुरु अनुमति से इसके बाद मृतसंजीवनी का भी पुरश्चरण हुआ जिसके अनुभव के आधार पर हम यह लेख लिख पा रहे हैं |हमारा अनुरोध है की मात्र इस लेख को देखकर अथवा मंत्र देखकर ,यन्त्र देखकर न तो यन्त्र निर्मित करें ,न मंत्र के अनुष्ठान करें |किसी क्षति के हम जिम्मेदार नहीं होंगे |क्षति भी ऐसी की फिर कोई शक्ति उसे सुधार नहीं पाएगी |...........................................................हर हर महादेव

Sunday, May 6, 2018

मनोती का प्रसाद

🌻🙏मनौती का प्रसादः  समस्यायें बढ़ा सकता है🌻🙏

क्या भगवान के नाम पर बांटा गया प्रसाद समस्यायें बढ़ा सकता है.
आज का विषय बहुत संवेदनशील है. इसे समझने के लिये मै अध्यात्म के प्रसाद विज्ञान पर चर्चा करुंगा.
पूरा पढ़ें फिर खुद फैसला लें क्या करें क्या न करें.
वास्तव में ये अध्यात्म का बड़ा और सरल विज्ञान है. इसकी तकनीक घरेलु और सामान्य होती है. जिसे अब विज्ञान की बजाय परम्पराओं या रूढ़ियों के रूप में बताया या उपयोग किया जा रहा है.
अध्यात्म का धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, आस्तिक-नास्तिक, जाति-वर्ग, छोटे-बड़े, देश-विदेश से कोई ताल्लुक नहीं. साधारण लोगों के लिये इसका उपयोग बिल्कुल वैसा ही है जैसे डाक्टर से दवा लेना.
मेरी ये बात उन लोगों को जरूर उत्तेजित या आक्रोशित कर रही होगी, जो शास्त्रों का नाम लेकर धर्म की व्याख्या करते हैं.
मै उनकी प्रतिक्रया को गैर जरूरी नही करार दे रहा. बस आग्रह है कि पूरी बात पढ़ें, जो नया लगे उसे समझें. जो न समझ में आये उसे किसी भी विधि से समझने की कोशिश करें.
सिर्फ इस बात पर आक्रोशित न हों कि आपको जो जानकारी है उसमें ये शामिल नही था. हो सकता है आपने विज्ञान न पढ़ा हो. सिर्फ एक भाषा संस्कृत पढ़कर शास्त्रों का अनुवाद मात्र कर रहे हैं. जबकि शास्त्र विशुद्ध रूप से उत्तम जीवन के विज्ञान को समेटे हैं. विज्ञान को अनुवादित नही किया जा सकता. उसे डिकोड करने पर ही उसका मर्म सामने आ पाता है. वहां लिखी जिन कथाओं को आप सबकुछ मानते हैं वे मात्र उदाहरण हैं.
शास्त्रों को समझने और समझाने के लिये देव भाषा संस्कृत का ज्ञान, उर्जा विज्ञान तथा तकनीकी विज्ञान की उच्च जानकारी होना अनिवार्य है. वर्ना पता ही नही चलेगा कि घी में कैलेस्ट्राल होता है और बंद जगह में उसका दीपक जलाने से जीवन तबाह हो जाते हैं.
अब आज के विषय पर चर्चा करते हैं.
जैसा कि उर्जा विज्ञान का एक सूत्र मैने पहले बताया कि समधर्मी एनर्जी एक दूसरे को आकर्षित करती हैं. आगे बढ़ने से पहले इसे याद रख लीजिये.
इससे पहले दोहरा दूं भगवान को सिर्फ भाव यानि भावनायें चाहिये. जब उन्हें भाव अर्पित करने हों तो उसके लिये किसी वस्तु की जरूरत नही होती. हमारे भावों की उर्जायें मिलावट न होने के कारण क्षण भर में उन तक पहुंच जाती हैं. और क्षण भर में ही उनकी उर्जाओं का सागर लेकर हमारे पास वापस आ जाती हैं. 
भक्ति मार्ग का इससे अच्छा कोई साधन नही.
जब हम किसी वस्तु के द्वारा अपने भावों को अर्पित करते हैं तो हमारी भावनाओं की उर्जा में उस वस्तु की उर्जा की मिलावट हो जाती है. एेसे में संसय होता है कि हमारे भाव भगवान तक पहुंचे या नहीं.
जो लोग वस्तुओं की बजाय भगवान को भावनायें अर्पित करते हैं उनकी प्रार्थनायें दूसरों की तुलना मे अधिक पूरी होती हैं.
यदि कोई भक्त भगवान पर प्रसाद या पैसा न चढ़ाये तो भगवान की खुशी नाखुशी पर कोई फर्क नही पड़ता.
सिवाय इसके कि पूजास्थलों में चढ़ावा कम हो जाएगा. जिससे वहां की व्यवस्था प्रभावित होगी.
पूजास्थलों के विज्ञान पर हम फिर कभी बात करेंगे. आज सिर्फ इतना जान लेतें हैं कि भगवान किसी पूजास्थल में नही होते. पूजा या प्रर्थनास्थलों की उर्जायें भगवान की उर्जाओं से गहनता से जुड़ी होती हैं. वहां जाने वाले भक्तों को उन्हीं उर्जाओं का लाभ मिलता है.
 
प्रसाद दो तरह के होते हैं. एक जिन्हें चार्ज किया जाता है. दूसरा जिससे नकारात्मक उर्जाओं को हटाया जाता है.
पूजा स्थलों में नियमित लगाया जाने वाला भोग, सत्यनारायण कथा का प्रसाद, भजन-कीर्तन का प्रसाद आदि का प्रसाद दैवीय उर्जा से चार्ज होकर लाभकारी बन जाता है. भगवान को भोग लगाकर जब सामूहिक रूप से पूजा पाठ, भजन कीर्तन, उत्सव किये जाते हैं. उस दौरान भोग का प्रसाद वहीं रखा रहता है. तो वो दैवीय उर्जाओं से उर्जित हो जाता है. उसे ग्रहण करके देव उर्जायें प्राप्त होती हैं. जिन्हें भगवान का आशीर्वाद कहते हैं.
इसके विपरीत मनौती का प्रसाद, ज्योतिषीय उपाय का प्रसाद, तांत्रिक उपाय का प्रसाद, झाड़फूंक वाले प्रसाद, जादू-टोने के तहत चढ़े प्रसाद, वास्तु निवारण का प्रसाद, निरोगी होने का प्रसाद, समस्या मुक्ती का प्रसाद, भूत-प्रेत निवारण का प्रसाद, श्राद्ध का प्रसाद आदि नकारात्मकता हटाने के लिये चढ़ाया जाता है. इसे प्रभावित व्यक्ति ईष्ट को अर्पित करता है. तो संकल्प करते ही उसके भीतर की नकारात्मक उर्जायें प्रसाद की वस्तुओं द्वारा अपने भीतर खींच ली जाती हैं. जिससे वे वस्तुवें नकारात्मक उर्जाओं से भर जाती हैं.
उनकी नकारात्मकता हटाने के लिये उन्हें देवस्थान पर भेट किया जाता है. प्रायः प्राण प्रतिष्ठायुक्त देव स्थानों की उर्जाओं में नकारात्मक उर्जाओं का पातालीकरण कर देने की भी क्षमता होती है.
फिर प्रसाद की वस्तुओं में कुछ नकारात्मकता रह ही जाती है. उन्हें ग्रहण करने से समस्यायें बढ़ती हैं. इसीलिये समस्या निकारण के लिये प्रसाद चढ़ाने वाले से कहा जाता है कि वो खुद प्रसाद न खाये, न ही उसे घर ले जाये. सारा प्रसाद दूसरों को बांट दे.
आजकल 95 प्रतिशत से अधिक लोग इसी तरह का प्रसाद चढ़ा रहे हैं.
मनौती के लिये चढ़ाया गया प्रसाद कामना पूरी होने में रुकावट उत्पन्न करने वाली नकारात्मक उर्जाओं को हटाता है. इसलिये उसे भी ग्रहण करने से नुकसान होता है.
वैसे ये मनौती पूरी होने के पहले चढ़ाया जाना चाहिये. ताकि कामना में बाधा बनी उर्जायें हट जायें, और मनौती पूरी हो जाये. यही इसका विज्ञान है.
मनौती पूरी होने के बाद प्रसाद चढ़ाने का कोई मतलब नही, यही वो नदानी है जिसमें लोग समझते हैं कि प्रसाद चढ़ाने से भगवान खुश होते हैं.