16_संस्कारो_का_विज्ञान
प्राचीनकाल में यह महान दायित्व कुटुम्बियों के साथ-साथ संत, पुरोहित और परिव्राजकों को सौंपा गया था। वे आने वाली पीढ़ियों को सोलह अग्नि पुटों से गुजार कर खरे सोने जैसे व्यक्तित्व में ढालते थे। इस परम्परा का नाम ही संस्कार परम्परा है।
------------------ #सीमन्तोन्नयन_संस्कार -------------------
सीमन्तोन्नयन संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है, इसका शाब्दिक अर्थ है- "सीमन्त" अर्थात् 'केश और उन्नयन' अर्थात् 'ऊपर उठाना', इस संस्कार के तहत पति अपनी पत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता था, इसलिए इस संस्कार का नाम 'सीमंतोन्नयन' पड़ गया,
इस संस्कार को गर्भ के छठे या आठवें महीने में किया जाता है, यह एक प्रकार से गर्भ की शुद्धि प्रक्रिया है,
इस दौरान बच्चे का दिमाग और दिल विकसित हो रहा होता है, यदि मां ऐसे वातावरण में रहती है जहां अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म किए जाते हैं, तो निश्चित ही शिशु के मतिष्क और रूप पर उसका सकारात्मक असर होता है।गर्भस्थ शिशु के शारीरिक विकास के लिए जहाँ ‘पुंसवन' संस्कार है वही गर्भ में पल रहे बच्चे के मानसिक विकास के लिए ‘सीमन्तोन्नयन’ संस्कार का विधान है, बालक के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए सूत्रों और चरक आदि सहिंताओं में माता के आहार और विहार के बहुत से नियम बताए गए हैं।
#इसका_वैज्ञानिक_दृष्टिकोण - गर्भवती महिलाएं अगर गर्भकाल के दौरान जंक फूड का सेवन करती हैं तो इससे होने वाले बच्चे पर भी असर पड़ता है। उनके बच्चों के भी ऐसे ही खान-पान का आदि बनकर मोटापे का शिकार बनने की आशंका बढ़ जाती है। यह तथ्य एडिलेड विश्वविद्यालय के शोध में सामने आया है।एडिलेड विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डॉ. बेवर्ली मलहॉज्लर कहते है कि, “गर्भवती महिलाओं में बढ़ते मोटापे के कारण मोटापे और पाचन संबंधी बीमारियों का एक पीढ़ी दर पीढ़ी चक्र या कायम होने लगा है। संक्षेप में कहें तो, हम ऐसी माताओं को देख रहे हैं जो वजनदार संतान जन्म दे रही हैं जो आगे जाकर मोटे और कमजोर पाचनशक्ति वाले बन रहे हैं।“ इस शोध में यह पता चला कि गर्भावस्था के दौरान जो महिलाएं गलत भोजन करती हैं वे अपनी होने वाली संतान की पाचन क्रिया में भी बदलाव की स्थिति बनाती हैं और यह बच्चे बड़े होने पर आवश्यकता से अधिक भोजन करने के आदि होने लगते हैं। साथ ही इस कारण बच्चों के स्वाद में भी फेरबदल होता है जो सिर्फ चर्बीयुक्त और अधिक मीठा भोजन करना ही पसंद करते हैं।
#इस_संस्कार_अनुसार -
सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है। आयुर्वेद के आचार्य सुश्रुत के अनुसार छठे महीने में गर्भवती को गोक्षुर (गोखरू) में पकाए घी और यवागू का सेवन करना चाहिए । आचार्य चरक के अनुसार इस महीने में मधुर गण की औषधियों से दूध को सिद्ध करके उसमे से निकाले गए घी का सेवन करना चाहिए ,वहीँ भावप्रकाश के अनुसार पृश्निप्रणी , सहिजन, गोक्षुर एवं गंभारी में से उपलब्ध किसी भी औषधि के कल्क के साथ दूध का सेवन करना चाहिए । आयुर्वेदानुसार सातवे महीने में भी छठे महीने की तरह दूध के साथ घी का सेवन करना चाहिए | भावप्रकाश ने सातवें महीने में कमालविस, द्राक्षा, कसेरू, मुलेठी और मिश्री इन सभी औषधियों में से उपलब्ध औषधियों के कल्क का सेवन दूध के साथ करना चाहिए ।
आठवें महीने में आचार्य सुश्रुत ने बिल्व के काढ़े में वातहर एवं स्निग्ध द्रव्यों का सेवन करना चाहिए । इस महीने में बिल्व के क्वाथ में बला, अतिबला, नमक, शहद, दूध या घी को मिलाकर गर्भिणी को सेवन करना चाहिए | इससे गर्भिणी के पुराने मल का शोधन होता है एवं वायु का अनुलोमन होता है । इन औषधियों के सेवन पश्चात दूध एवं मधुर गण की औषधियों से तैयार तैल से अनुवासन बस्ती दी जानी चाहिए ।
सीमन्तोन्नयन संस्कार वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हर कसौटी पर बिल्कुल खरा है , जो आज का विज्ञान रिसर्च कर रहा है ढूंढ रहा है वो सदियो से लोकोक्तियो में जीवित है और वैदिक साहित्य में धूल खा रहा है ।।
--------------------- #जातकर्म_संस्कार ----------------------
जन्म के बाद नवजात शिशु के नालच्छेदन (यानि नाल काटने) से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है, इसके लिए दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण तैयार होता है, जिसे घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है, इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।
इस पूरी प्रक्रिया में करीब 30 मिनिट का समय लगता है।
वैज्ञानिक भी मानते हैं बच्चे के जन्म के 30 मिनिट के भीतर उसे मां का दूध पिलाना चाहिए, जबकि, इस नियम को सदियों पहले ही सनातन धर्म में लिखा जा चुका है।
#विज्ञान -
बच्चे को जन्म के तुरंत बाद रोना चाहिए। उसकी पीठ पर 2-3 बार धौल जमाएं। इसे साफ कपड़े में लपेट दें जिससे उसकी शक्ति का नुकसान न हो। सर्दियों में यह बेहद ज़रूरी होता है और यह उन बच्चों में और भी ज्यादा ज़रूरी होता है जो समय से पहले पैदा हो जाते हैं और बहुत कमज़ोर होते हैं। हवा का मार्ग साफ कर दें। इसके लिए प्लास्टिक के आईवी सेट (रोगाणुमुक्त) से गले के अंदर का पदार्थ चूस (खींच) कर निकाल दें। नाड़ को काट कर बांध दें। हर बार एक नया ब्लेड इस्तेमाल करें। नाड़ की मरहम पट्टी करने की ज़रूरत नहीं होती।साफ मुलायम कपड़े से बच्चे की ऑंखें पोछ दें। ऑंखों की संक्रमण बिमारीयो से बचाने के लिए ऑंखों को साफ रखे ।जितनी जल्दी हो सके माँ से बच्चे को अपना दूध पिलाने को कहें। जन्म के पहले कुछ घंटों में ही। इससे और दूध बनने में मदद मिलती है। पहले 2-3 दिनों में निकलने वाला दूध गाढ़ा और काफी प्रोटीन वाला होता है। इसमें संक्रमण से लड़ने के लिए प्रतिपिण्ड भी होते हैं।
पहले दो दिनों में बच्चा हरी काली गाढ़ी टट्टी करता है। इसे बच्चे पर से तुरंत साफ कर दें। अगर यह टट्टी शरीर पर ही कहीं सूख जाए तो इससे बच्चे की कोमल त्वचा को नुकसान पहुँचता है।
#संस्कार - नाल काटने के तरीके का उल्लेख -
जन्म के बाद नवजात शिशु के नालच्छेदन (यानि नाल काटने) से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है।
मुँह की सफाई शरीर की सफाई -
इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है।
जन्म लेते ही माता को स्तनपान का आदेश -
इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है। ( यह स्तनपान विज्ञान के अनुसार जन्म होने के आधे घंटे अन्तर्गत कराये जाने वाला स्तनपान है ।
आधुनिक विज्ञान में जो भी जन्म लेने के बाद कि वैज्ञानिक आधार पर क्रियाएं है वही क्रियाएं हजारो सालो पहले से सनातन संस्कृति में उपलब्ध है लेकिन हम पिछड़े लोग है हमे सिर्फ पश्चिमी ठप्पा लगा ही चाहिए भले ही वो यही से चोरी किया हो ।।
#विशेष -
संस्कार का व्युत्पत्तिपरक अर्थ- सम् पूर्वक कृञ् धातु से घञ् प्रत्यय होकर संस्कार शब्द निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ है- संस्करणं सम्यक्करणं वा संस्कारः अर्थात् परिष्कार करना अथवा भली प्रकार निर्माण करना ’ संस्कार’ है। भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने मनुष्य की अन्तःभूमि को श्रेष्ठता की दिशा में विकसित करने के लिए कुछ ऐसे सूक्ष्म उपचारों का भी आविष्कार किया है, जिनका प्रभाव शरीर तथा मन पर ही नहीं, सूक्ष्म अन्तःकरण पर भी पड़ता है और उसके प्रभाव से मनुष्य को गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से समुन्नत स्तर की ओर उठने में सहायता मिलती है। परिवार को संस्कारवान् बनाने की, कौटुम्बिक जीवन को सुविकसित बनाने की, एक मनोवैज्ञानिक एवं धर्मानुमोदित प्रक्रिया को संस्कार पद्धति कहा जाता है। हर्षोल्लास के वातावरण में देवताओं की साक्षी, अग्निदेव का सान्निध्य, धर्म- भावनाओं से ओत- प्रोत मनोभूमि, स्वजन- सम्बन्धियों की उपस्थिति, पुरोहित द्वारा कराया हुआ धर्म कृत्य, यह सब मिल- जुलकर संस्कार से सम्बन्धित व्यक्तियों को एक विशेष प्रकार की मानसिक अवस्था में पहुँचा देते हैं और उस समय जो प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं, जो प्रक्रियाएँ कराई जाती हैं, वे अपना गहरा प्रभाव सूक्ष्म मन पर छोड़ती हैं और वह प्रभाव बहुधा इतना गहरा एवं परिपक्व होता है कि उसकी छाप अमिट नहीं, तो चिरस्थायी अवश्य बनी रहती है।