Friday, May 26, 2017

पूर्णिमा और अमावस्या

पूर्णिमा और अमावस्या का रहस्य
हिन्दू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण
हिन्दू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण के रहस्य को
उजागर किया गया है। इसके अलावा वर्ष में ऐसे कई महत्वपूर्ण
दिन और रात हैं जिनका धरती और मानव मन पर गहरा
प्रभाव पड़ता है। उनमें से ही माह में पड़ने वाले 2
दिन सबसे महत्वपूर्ण हैं- पूर्णिमा और अमावस्या। पूर्णिमा और
अमावस्या के प्रति बहुत से लोगों में डर है। खासकर अमावस्या के
प्रति ज्यादा डर है। वर्ष में 12 पूर्णिमा और 12 अमावस्या
होती हैं। सभी का अलग-अलग महत्व
है।
हिन्दू पंचांग के अनुसार माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार
पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है- शुक्ल पक्ष और
कृष्ण पक्ष। शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहते हैं
और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या।
हिन्दू पंचांग कि अवधारणा
यदि शुरुआत से गिनें तो 30 तिथियों के नाम निम्न हैं- पूर्णिमा
(पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया
(दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी
(चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी
(छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी
(आठम), नवमी (नौमी), दशमी
(दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी
(बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी
(चौदस) और अमावस्या (अमावस)।
अमावस्या पंचांग के अनुसार माह की 30वीं
और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन कि
चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता। हर माह
की पूर्णिमा और अमावस्या को कोई न कोई पर्व अवश्य
मनाया जाता ताकि इन दिनों व्यक्ति का ध्यान धर्म की ओर
लगा रहे।
नकारात्मक और सकारात्मक शक्तियां
धरती के मान से 2 तरह की शक्तियां
होती हैं- सकारात्मक और नकारात्मक, दिन और रात,
अच्छा और बुरा आदि। हिन्दू धर्म के अनुसार धरती पर
उक्त दोनों तरह की शक्तियों का वर्चस्व सदा से रहता
आया है। हालांकि कुछ मिश्रित शक्तियां भी
होती हैं, जैसे संध्या होती है तथा जो
दिन और रात के बीच होती है। उसमें दिन
के गुण भी होते हैं और रात के गुण भी।
इन प्राकृतिक और दैवीय शक्तियों के कारण
ही धरती पर भांति-भांति के
जीव-जंतु, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों,
निशाचरों आदि का जन्म और विकास हुआ है। इन शक्तियों के कारण
ही मनुष्यों में देवगुण और दैत्य गुण होते हैं।
हिन्दुओं ने सूर्य और चन्द्र की गति और कला को
जानकर वर्ष का निर्धारण किया गया। 1 वर्ष में सूर्य पर आधारित 2
अयन होते हैं- पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन।
इसी तरह चंद्र पर आधारित 1 माह के 2 पक्ष होते
हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
इनमें से वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल
पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं, तो दक्षिणायन
और कृष्ण पक्ष में दैत्य और पितर आत्माएं ज्यादा सक्रिय
रहती हैं। अच्छे लोग किसी
भी प्रकार का धार्मिक और मांगलिक कार्य रात में
नहीं करते जबकि दूसरे लोग अपने सभी
धार्मिक और मांगलिक कार्य सहित सभी सांसारिक कार्य
रात में ही करते हैं।
पूर्णिमा का रहस्य
पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और
नींद कम ही आती है।
कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के
विचार बढ़ जाते हैं। चांद का धरती के जल से संबंध है।
जब पूर्णिमा आती है तो समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पन्न
होता है, क्योंकि चंद्रमा समुद्र के जल को ऊपर की
ओर खींचता है। मानव के शरीर में
भी लगभग 85 प्रतिशत जल रहता है। पूर्णिमा के
दिन इस जल की गति और गुण बदल जाते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन चन्द्रमा का प्रभाव काफी
तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्त में
न्यूरॉन सेल्स क्रियाशील हो जाते हैं और
ऐसी स्थिति में इंसान ज्यादा उत्तेजित या भावुक रहता
है। एक बार नहीं, प्रत्येक पूर्णिमा को ऐसा होता
रहता है तो व्यक्ति का भविष्य भी उसी
अनुसार बनता और बिगड़ता रहता है।
जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय
की क्रिया शिथिल होती है, तब अक्सर
सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्ति भोजन करने के बाद नशा जैसा
महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं
जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम, भावनाओं पर
ज्यादा केंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों पर चन्द्रमा का प्रभाव
गलत दिशा लेने लगता है। इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखने
की सलाह दी जाती है।
कुछ मुख्य पूर्णिमा
कार्तिक पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा
आदि।
चेतावनी : इस दिन किसी भी
प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं
करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना
चाहिए। इसके शरीर पर ही
नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम
हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, पूर्णिमा
और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही
भलाई है।
अमावस्या का रहस्य
वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में
देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन और
कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती
हैं। जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय
रहती हैं, तब मनुष्यों में भी
दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है
इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में व्यक्ति के
मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़ दिया जाता है।
अमावस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-
जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं। ऐसे दिन
की प्रकृति को जानकर विशेष सावधानी
रखनी चाहिए। प्रेत के शरीर
की रचना में 25 प्रतिशत फिजिकल एटम और 75
प्रतिशत ईथरिक एटम होता है। इसी प्रकार पितृ
शरीर के निर्माण में 25 प्रतिशत ईथरिक एटम और 75
प्रतिशत एस्ट्रल एटम होता है। अगर ईथरिक एटम सघन हो
जाए तो प्रेतों का छायाचित्र लिया जा सकता है और इसी
प्रकार यदि एस्ट्रल एटम सघन हो जाए तो पितरों का भी
छायाचित्र लिया जा सकता है।
ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन
चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक
होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां
मन से बहुत ही भावुक होती हैं। इस
दिन चन्द्रमा नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे
शरीर में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो
व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने
प्रभाव में ले लेती है।
धर्मग्रंथों में चन्द्रमा की 16वीं कला को
'अमा' कहा गया है। चन्द्रमंडल की 'अमा' नाम
की महाकला है जिसमें चन्द्रमा की 16
कलाओं की शक्ति शामिल है। शास्त्रों में अमा के अनेक
नाम आए हैं, जैसे अमावस्या, सूर्य-चन्द्र संगम,
पंचदशी, अमावसी, अमावासी या
अमामासी। अमावस्या के दिन चन्द्र नहीं
दिखाई देता अर्थात जिसका क्षय और उदय नहीं होता
है उसे अमावस्या कहा गया है, तब इसे 'कुहू अमावस्या'
भी कहा जाता है। अमावस्या माह में एक बार
ही आती है। शास्त्रों में अमावस्या तिथि का
स्वामी पितृदेव को माना जाता है। अमावस्या सूर्य और
चन्द्र के मिलन का काल है। इस दिन दोनों ही एक
ही राशि में रहते हैं।
कुछ मुख्य अमावस्या
भौमवती अमावस्या, मौनी अमावस्या, शनि
अमावस्या, हरियाली अमावस्या, दिवाली
अमावस्या, सोमवती अमावस्या, सर्वपितृ अमावस्या।
चेतावनी : इस दिन किसी भी
प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं
करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना
चाहिए। इसके शरीर पर ही
नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम
हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, अमावस्या
और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही
भलाई है।
आत्मा का रंग कैसा है?
यह दुनिया रंग-बिरंगी या कहें कि सतरंगी
है। सतरंगी अर्थात सात रंगों वाली। लेकिन
आत्मा का कोई रंग पता नहीं चला है।ध्यान, धारणा,
समाधि और पूजापाठ से लेकर मृत्यु के बाद वापस शरीर
में लौटे लोगों तक आत्मा और परलोक के अनुभव बताते हैं पर उसका
रंग कोई नहीं बताता।अध्यात्म विज्ञान की
दिशा में शोध प्रयोग कर रहे कुछ अनुसंधान करने वालों ने इस दिशा में
काम शुरु किया है। इस तरह के प्रयोगों में लगे
पांडीचेरी के प्रो. के सुंदरम ने कहा है कि
आत्मा का भी रंग होता है।रंगों का विश्लेषण करते हुए
प्रो. सुंदरम का कहना है कि मूलत: पांच तरह के रंग
ही होते हैं, जैसे काला, सफेद, लाल, नीला
और पीला। इनमें भी काला और सफेद कोई
रंग नहीं है। रंगों की अनुपस्थिति काला रंग
बनता है और सभी रंगों की उपस्थिति
सफेद रंग का आभास कराता है।इस तरह तीन
ही रंग प्रमुख हो जाते हैं- लाल, पीला
और नीला। अध्ययन और प्रयोगों को आगे बढ़ाते हुए
प्रो, सुंदरम और उनके सहयोगियों ने शरीर में मौजूद सात
चक्रों का रंग रुप भी खंगाला।
चक्रों पर किए प्रयोग के बाद उन्होंने कहा है कि आत्मा का रंग या
तो नीला होता है अथवा आसमानी।
नीले रंग को वे थोड़ा निरस्त भी करते हैं
क्योकि प्रकाश के रुप में आत्मा ही दिखाई
पड़ती है और पीले रंग का प्रकाश आत्मा
की उपस्थिति को सूचित करता है। धरती पर
पचहत्तर प्रतिशत जल ही फैला है और जहां
भी वह घनीभूत होता है वहां आकाश
का रंग प्रतिबिंबित होने के कारण पानी का रंग
नीला दिखाई देता है।ध्यान में हुए अनुभवों और सपनों
में दिखाई देने वाले उदास रंगों के आधार पर उन्होंने कहा है कि
आत्मा का रंग आसमानी है। कुछ
मनीषी मानते हैं कि नीला रंग
आज्ञा चक्र का और आत्मा का रंग है। आज्ञाचक्र
शरीर का आखिरी चक्र है। यह सात में
से छठा है, सातवां सहस्रार चक्र शरीर और आत्मा के
बीच सेतु का काम करता है। उसका अपना कोई रंग
नहीं है। इसलिए नीला और
आसमानी रंग ही आत्मा का रंग कहा जा
सकता है।

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