जनेऊ पहनने के लाभ
पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते
ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान
में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ
पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह
से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह
धागों की जनेऊ धारण
की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के
पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-
मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार
लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे
की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है।
आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे
मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास
ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के
समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक
देती है, जिससे कब्ज,
एसीडीटी, पेट रोग,
मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य
संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में
बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात
अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक
वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह
अच्छी तरह से अपनी सफाई करके
ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत,
मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ
का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।
यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद
ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने
का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के
मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है।
शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने
वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह
की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं
कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह
नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप
लाजवंती वनस्पति की तरह होता है।
यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-
क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ
पाता। अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र
एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने
लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के
कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च
नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में
किसी न किसी कारणवश
यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ
की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म
निरीक्षण करने से
उसकी छाती पर यज्ञोपवीत
की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है।
यज्ञोपवीत केवल
धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक
भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए।
शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन
भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म,
वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के
कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर
भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र
दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व
नहीं रहता।
यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ
+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-
उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ
होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस
संस्कार के अंग होते हैं। जनेऊ पहनाने का संस्कार
सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे
यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर
तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार
किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ
यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित
करके बनाया जाता है। इसमें सात
ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के
यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है।
तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु
दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है।
तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के
प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर
यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है।
बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण
नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने
का मन्त्र है
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु
तेजः।।
जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| लोग जनेऊ को धर्म से
जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए
जानें कि सच क्या है? जनेऊ पहनने से
आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है|
क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले
को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए
अन्यथा अधर्म होता है| दरअसल इसके पीछे साइंस
का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से
आदमी को लकवा नहीं मारता|
आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष
को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन
करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष
का अर्थात् पति पक्ष का| अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते
हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और
पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे
वहन करना है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे
निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें
पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27
नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर
अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है,
जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक
पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ
की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11
होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन
अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और
1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के
अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें
शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने
दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम
शांति की प्राप्ति हो जाती है|
यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे
यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।
अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ
रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था को सूचित
करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है।
हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम
के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर
के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र
और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं
कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान
की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न
संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव
होने की संभावना रहती है। दाएं कान
को ब्रमह सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यह
बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई
है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रसूत्र से बांधकर
सोने से रोग दूर हो जाता है।
बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह
प्रवृत्ति रूक जाती है।
किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान
पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है।
अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है।
दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है।
इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग
करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने
की शास्त्रीय आज्ञा है।
Friday, June 23, 2017
जनेऊ पहिनने के लाभ
Wednesday, June 21, 2017
गजकेसरी योग
जब जन्मांग में गुरु एवं चन्द्रमा एक-दूसरे से केन्द्र में होते
हैं तो गजकेसरी योग बनता है। यह एक अत्यन्त ही
उत्तम योग है। विभिन्न ज्योतिषाचार्यों ने इसकी
भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
गजकेसरी योग में उत्पन्न जातक शत्रुहन्ता, वाकपटु,
राजसी सुख एवं गुणों से युक्त, दीर्घजीवी,
कुशाग्रबुद्धि, तेजस्वी एवं यशस्वी होता है।
ज्योतिष पितामह महर्षि पाराशर ने भी गजकेसरी
योग का यही फल बताया है किन्तु साथ में उन्होंने
यह भी कहा है कि यदि चन्द्रमा से केन्द्र में बुध या
शुक्र स्थित हों, चन्द्र दृष्टि रखे या योग करे, यह भी
गजकेसरी योग है। पुनः चन्द्रमा एवं योगकारक ग्रह
नीचस्थ शत्रुक्षेत्री न हों यह अनिवार्यता दोनों
योगों में बताई गई हैं।
यद्यपि बुध, गुरु, शुक्र से चन्द्रमा का योग अवश्य ही
उत्तम फल देने वाला होगा किन्तु ऐसी अवस्था में
गजकेसरी की जो इतनी प्रशंसा की गई है वह
निरर्थक हो जाएगी क्योंकि तब लगभग नब्बे
प्रतिशत जातक गजकेसरी योगोत्पन्न हो जाएँगे और
शेष योगों की अवहेलना हो जाएगी।
ND
किसी जन्मपत्री में
मान लीजिए
चन्द्रमा से केन्द्र में शुक्र है। चन्द्रमा उच्चस्थ है।
चन्द्रमा की पूर्ण दृष्टि धनभावस्थ शुक्र पर है।
चन्द्रमा राज्येश तथा शुक्र लग्नेश हैं किन्तु फिर भी
यह व्यक्ति आजीवन वनवासी तथा धनाभाव से
त्रस्त रहा। यद्यपि महर्षि पाराशर के मतानुसार इस
जन्मांग में गजकेसरी योग है तथापि यह व्यक्ति
जीवनभर दुःख ही भोगता रहा। पत्नी एवं संतान
सबसे तिरस्कृत होना पड़ा। इस व्यक्ति को गजकेसरी
योग का कोई भी परिणाम प्राप्त नहीं हुआ।
वास्तव में देखा जाए तो शुक्र से गजकेसरी योग हो
ही नहीं सकता है। कारण यह है कि शुक्र की एक
राशि वृष से दूसरी राशि तुला सदा छठे तथा तुला से
वृष सदा आठवें पड़ेगी और इस तरह शुक्र सदा ही दुषित
स्थान में या दोषपूर्ण भूमिका में रहेगा। ऐसी दशा में
गजकेसरी योग भंग हो जाएगा। पुनः एक
अनिवार्यता कारक ग्रहों के उदयास्त होने से है। यह
निश्चित है कि शुक्र एवं बुध सर्वदा सूर्य से 40 या 48
अंशों के अन्दर ही रहेंगे। और इस प्रकार ये दोनों ग्रह
कम समय के अन्तराल पर ही अस्त हो जाया करेंगे।
यदि अस्त होने की शर्त पर योग की कल्पना करें तो
बुधादित्य योग अस्तित्वहीन हो जाएगा। एक योग
की परिकल्पना दूसरे योग को निर्मूल कर रही है।
गुरु एवं बुध पर चन्द्रमा की पूर्ण दृष्टि हो। तो इस
प्रकार दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में चन्द्रमा को गुरु एवं बुध
से सप्तम होना पड़ेगा क्योंकि चन्द्रमा की पूर्ण
दृष्टि सप्तम भाव पर ही होती है। तब चन्द्रमा एवं गुरु
परस्पर केन्द्र में हो जाएँगे।
हम वृहत्पाराशर की प्रति में उपलब्ध कथन पर प्रकाश
डालते हैं। पंडित देवेन्द्रचन्द्र झा संपादित प्रति में यह
पाठ इस प्रकार है-'लग्नाद् वेन्दोर्गुरौ केन्द्रे
सौम्यैर्युक्तेऽथवेक्षिते। गजकेसरियोगोऽयं न
नीचास्तरिपुस्थिते।'
अर्थात् लग्न या चन्द्र से केन्द्र में गुरु, नीच, अस्त या
शत्रु ग्रह से रहित शुभयुक्त या दृष्टि हो तो गजकेसरी
योग होता है। अब यहाँ पर एक अन्तर प्रत्यक्षतः
देखने को मिल रहा है। यहाँ पर गुरु का चन्द्रमा से
केन्द्र में होना आवश्यक नहीं है किन्तु यह कथन एकदम
ही विरुद्ध है क्योंकि गुरु एवं चन्द्र का षडाष्टक योग
शकट योग बनाता है जो एक अनिष्टकारी योग है।
समस्त बुरे परिणाम देने वाले ग्रह कुछ नहीं कर पाएँगे
यदि एकमात्र बृहस्पति ही केन्द्र में हो। यद्यपि केन्द्र
का बृहस्पति अवश्य ही अच्छा परिणाम देने वाला
होता है किन्तु कहीं कहीं पर अतिशयोक्तिपूर्ण
वर्णन मिलता है। अन्य समस्त योगों की अवहेलना कर
दी जाती है।
गजकेसरी योग के पूर्ण फल प्राप्ति हेतु यह अत्यन्त
आवश्यक है कि चन्द्रमा एवं गुरु दोनों ही
मित्रक्षेत्री, शुभ भावेश दृष्टि-युक्त एवं शुभ भावस्थ
हों। इसके अलावा एक शर्त यह भी है कि चन्द्रमा के
आगे या पीछे सूर्य के अलावा शेष मुख्य पाँच ग्रहों में
से कोई न कोई ग्रह होना चाहिए। अन्यथा 'केमद्रुम'
जैसा भयंकर पातकी योग बन जाएगा। ऐसी अवस्था
में गुरु एवं चन्द्रमा परस्पर केन्द्र में हों और उच्च के ही
क्यों न हों 'केमद्रुम' अपना प्रभाव अवश्य ही
दिखाएगा।
ND
कहते हैं केमद्रुम में जन्म लेने वाला पुत्र स्त्री से हीन,
दूरदराज देशों में भटकने वाला, दुःख से संतप्त, बुद्धि
एवं खुशी से दूर, गंदगी से भरा, नीच कर्मरत, सदा
भयभीत रहने वाला और अल्पायु होता है। केमद्रुम
योग का इतना भीषण परिणाम होता है। अतः
गजकेसरी योग के पूर्ण फल प्राप्ति के लिए यह
आवश्यक है कि चन्द्रमा भी किसी दुर्योग से
प्रभावित न हो। एकमात्र चन्द्रमा से केन्द्र में केन्द्र में
गुरु के रहने से ही गजकसरी योग का परिणाम प्राप्त
नहीं होगा।
प्रायः गुरु एवं चन्द्रमा परस्पर केन्द्र में होने के बजाय
यदि एक साथ हों तो उत्कृष्ट परिणाम प्राप्त
होगा। पुनः परस्पर केन्द्र में होते हुए भी गुरु और
चन्द्रमा में जो विशेष बली होकर जिस भाव में
स्थित होगा उसी ग्रह का तथा उसी भाव का फल
प्राप्त होगा।
यथा वृष लग्न में उच्चस्थ चन्द्रमा पर यदि गुरु की
सप्तम दृष्टि हो तो गजकेसरी योग होते हुए भी एक
तरफ जहाँ शरीर अतिकमनीय होगा वहीं पर दाम्पत्य
जीवन अति कठिन होगा। क्योंकि जाया (सप्तम)
भाव में अष्टमेश की युति हो जाएगी। इस प्रकार
गजकेसरी योग का परिणाम शारीरिक सौष्ठव के रूप
में प्राप्त होगा किन्तु यदि गुरु और चन्द्रमा दोनों
एक साथ लग्न में हों तो शुभ ग्रह की राशि में स्थित
होने के कारण गुरु भी फलदायक हो जाएगा।
इसी प्रकार यदि तुला लग्न में गुरु एवं चन्द्रमा दोनों
ही लग्नस्थ हों तो देह सौष्ठव एवं समस्त धन-सम्पदा
उपलब्ध होने के बावजूद 'क्षत्यावयव जलेन' अर्थात्
शरीर के अन्दर या बाहर का कोई अवयव क्षतिग्रस्त
होगा। यह प्रत्यक्षतः अनुभूत है। तात्पर्य यह कि
गजकेसरी योग में भी गुरु एवं चन्द्रमा का शुभ भावेश
होना आवश्यक है। तभी पूर्ण फल प्राप्त होगा।
गजकेसरी योग का सबसे अच्छा परिणाम मीन लग्न
के जातक को तब प्राप्त होता है जब गुरु एवं चन्द्र
संयुक्त हों या लग्न से केन्द्र में हों।
यद्यपि मीन लग्न के जातक को किसी भी भाव में
चन्द्रमा एवं गुरु का परस्पर केन्द्र में होना गजकेसरी
योग का अति उत्तम फल देने वाला देखा गया है।
अन्यान्य स्थलों पर गजकेसरी योग के भंग होने की
शर्तों में यह भी बताया गया है कि कारक ग्रहों को
अस्त नहीं होना चाहिए तथा बुध, गुरु आदि से चन्द्र
योग को भी गजकेसरी योग की संज्ञा दी गई है।
यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि सूर्य के साथ बुध
की शक्ति में वृद्धि होती है। बुध एवं शुक्र ऐसे ग्रह हैं
जो सर्वदा सूर्य के आसपास रहते हैं।
ND
सूर्य के साथ बुध रहने पर ही बुधादित्य योग होता है
तो फिर इसके अस्त होने से गजकेसरी योग भंग कैसे
होगा? क्योंकि बुध के अस्त होने से तथा चन्द्र से
युक्त-दृष्टि होने पर भी न तो गजकेसरी योग ही
बनेगा और न ही बुधादित्य जैसे अतिप्रसिद्ध योग
की महत्ता या उपयोगिता रह जाएगी।
अतः बुध एवं शुक्र के संयोग से गजकेसरी योग की
सिद्धि उचित प्रतीत नहीं होती है। शुक्र के साथ
भी संयोग प्रायः शत्रु क्षेत्री का हो जाएगा।
अतः गजकेसरी की सिद्धि गुरु के साथ ही संभव एवं
उचित होगी। अन्य किसी के साथ नहीं। किन्तु शुभ
स्थिति में कारक ग्रहों (गुरु एवं चन्द्र) के होने पर
गजकेसरी योग का बहुत ही अच्छा परिणाम प्राप्त
होता है।
Saturday, June 17, 2017
सुगंध द्वारा गृह शांति
सुगंध द्वारा ग्रह शांति
सुगंध द्वारा ग्रह शांति इस प्रकार हैं-
सूर्य: --------- केसर तथा गुलाब का इत्र या सुगंध का उपयोग करने से सूर्य प्रसन्न होते हैं।
चंद्र: ---------- चमेली और रातरानी का इत्र या सुगंध चंद्रमा की पीड़ा को कम करते हैं।
मंगल: --------- लाल चंदन का इत्र, तेल अथवा सुगंध मंगल को प्रसन्न करते हैं।
बुध: ------------- इलायची तथा चंपा की सुगंध बुध को प्रिय होती है- चंपा का इत्र तथा तेल का प्रयोग बुध की दृष्टि से उत्तम है।
गुरू: ------------- पीले फूलों की सुगंध, केसर और केवड़े का इत्र गुरू की कृपा प्राप्ति के लिए उत्तम है।
शुक्र: ------------ सफेद फूल, चंदन और कपूर की सुगंध लाभकारी होती है। चंपा, चमेली और गुलाब की तीक्ष्ण खुशबू से शुक्र नाराज हो जाते हैं।हल्की खुशबू के परफ्यूम ही काम में लेने चाहिए।
शनि: ------------कस्तुरी, लोबान तथा सौंफ की सुगंध शनि देव को पसंद है।
राहु और केतु: ----काली गाय का घी व कस्तुरी का इत्र इन्हें पसंद है।
Thursday, June 1, 2017
स्वस्तिक का महत्व
स्वास्तिक का महत्व............
स्वास्तिक को चित्र के रूप में भी बनाया जाता है और
लिखा भी जाता है जैसे "स्वास्ति न इन्द्र:" आदि.
स्वास्तिक भारतीयों में चाहे वे वैदिक
हो या सनातनी हो या जैनी ,ब्राह्मण
क्षत्रिय वैश्य शूद्र सभी मांगलिक कार्यों जैसे विवाह
आदि संस्कार घर के अन्दर कोई भी मांगलिक कार्य होने
पर "ऊँ" और स्वातिक का दोनो का अथवा एक एक का प्रयोग
किया जाता है।
हिन्दू समाज में किसी भी शुभ संस्कार में
स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग
किया जाता है,बच्चे
का पहली बार जब मुंडन संस्कार किया जाता है
तो स्वास्तिक को बुआ के द्वारा बच्चे के सिर पर
हल्दी रोली मक्खन को मिलाकर
बनाया जाता है,स्वास्तिक को सिर के ऊपर बनाने का अर्थ माना जाता है
कि धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का योगात्मक रूप सिर पर
हमेशा प्रभावी रहे,स्वास्तिक के अन्दर चारों भागों के
अन्दर बिन्दु लगाने का मतलब होता है कि व्यक्ति का दिमाग केन्द्रित
रहे,चारों तरफ़ भटके
नही,वृहद रूप में स्वास्तिक
की भुजा का फ़ैलाव सम्बन्धित दिशा से सम्पूर्ण
इनर्जी को एकत्रित करने के बाद बिन्दु
की तरफ़ इकट्ठा करने से
भी माना जाता है,स्वास्तिक का केन्द्र जहाँ चारों भुजायें
एक साथ काटती है,उसे सिर के बिलकुल बीच
में चुना जाता है,बीच का स्थान बच्चे के सिर में परखने के
लिये जहाँ हड्डी विहीन हिस्सा होता है
और एक तरह से ब्रह्मरंध के रूप में उम्र
की प्राथमिक अवस्था में उपस्थित होता है और वयस्क
होने पर वह हड्डी से ढक जाता है,के स्थान पर
बनाया जाता है। स्वास्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद
है,पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इसे वैयाकरण
कौमुदी में ५४ वें क्रम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है।
यह स्वास्तिक पद ’सु’ उपसर्ग तथा ’अस्ति’ अव्यय (क्रम ६१)
के संयोग से बना है,इसलिये ’सु+अस्ति=स्वास्ति’ इसमें
’इकोयणचि’सूत्र से उकार के स्थान में वकार हुआ है। ’स्वास्ति’ में
भी ’अस्ति’
को अव्यय माना गया है और ’स्वास्ति’ अव्यय पद का अर्थ
’कल्याण’ ’मंगल’ ’शुभ’ आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब
स्वास्ति में ’क’ प्रत्यय का समावेश हो जाता है तो वह कारक का रूप
धारण कर लेता है और उसे ’स्वास्तिक’ का नाम दे दिया जाता है।
स्वास्तिक का निशान भारत के अलावा विश्व में अन्य देशों में
भी प्रयोग में लाया जाता है,जर्मन देश में इसे
राजकीय चिन्ह से शोभायमान
किया गया है,अन्ग्रेजी के क्रास में
भी स्वास्तिक का बदला हुआ रूप मिलता है,हिटलर
का यह फ़ौज का निशान था,कहा जाता है कि वह इसे
अपनी वर्दी पर दोनो तरफ़ बैज के रूप में
प्रयोग करता था,लेकिन उसके अंत के समय भूल से
बर्दी के बेज में उसे टेलर ने उल्टा लगा दिया था,जितना शुभ
अर्थ सीधे स्वास्तिक का लगाया जाता है,उससे
भी अधिक उल्टे स्वास्तिक का अनर्थ
भी माना जाता है। स्वास्तिक की भुजाओं
का प्रयोग अन्दर की तरफ़ गोलाई में लाने पर वह सौम्य
माना जाता है,बाहर की तरफ़ नुकीले हथियार
के रूप में करने पर वह रक्षक के रूप में माना जाता है।
काला स्वास्तिक शमशानी शक्तियों को बस में करने के लिये
किया जाता है,लाल स्वास्तिक का प्रयोग शरीर
की सुरक्षा के साथ भौतिक सुरक्षा के
प्रति भी माना जाता है,डाक्टरों ने भी स्वास्तिक
का प्रयोग आदि काल से किया है,लेकिन वहां सौम्यता और दिशा निर्देश
नही होता है। केवल धन (+) का निशान
ही मिलता है। पीले रंग का स्वास्तिक धर्म
के मामलों में और संस्कार के मामलों में किया जाता है,विभिन्न
रंगों का प्रयोग विभिन्न कारणों के लिये किया जाता है
Photo: स्वास्तिक का महत्व............
स्वास्तिक को चित्र के रूप में भी बनाया जाता है और
लिखा भी जाता है जैसे "स्वास्ति न इन्द्र:" आदि.
स्वास्तिक भारतीयों में चाहे वे वैदिक
हो या सनातनी हो या जैनी ,ब्राह्मण
क्षत्रिय वैश्य शूद्र सभी मांगलिक कार्यों जैसे विवाह
आदि संस्कार घर के अन्दर कोई भी मांगलिक कार्य होने
पर "ऊँ" और स्वातिक का दोनो का अथवा एक एक का प्रयोग
किया जाता है।
हिन्दू समाज में किसी भी शुभ संस्कार में
स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग
किया जाता है,बच्चे
का पहली बार जब मुंडन संस्कार किया जाता है
तो स्वास्तिक को बुआ के द्वारा बच्चे के सिर पर
हल्दी रोली मक्खन को मिलाकर
बनाया जाता है,स्वास्तिक को सिर के ऊपर बनाने का अर्थ माना जाता है
कि धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का योगात्मक रूप सिर पर
हमेशा प्रभावी रहे,स्वास्तिक के अन्दर चारों भागों के
अन्दर बिन्दु लगाने का मतलब होता है कि व्यक्ति का दिमाग केन्द्रित
रहे,चारों तरफ़ भटके
नही,वृहद रूप में स्वास्तिक
की भुजा का फ़ैलाव सम्बन्धित दिशा से सम्पूर्ण
इनर्जी को एकत्रित करने के बाद बिन्दु
की तरफ़ इकट्ठा करने से
भी माना जाता है,स्वास्तिक का केन्द्र जहाँ चारों भुजायें
एक साथ काटती है,उसे सिर के बिलकुल बीच
में चुना जाता है,बीच का स्थान बच्चे के सिर में परखने के
लिये जहाँ हड्डी विहीन हिस्सा होता है
और एक तरह से ब्रह्मरंध के रूप में उम्र
की प्राथमिक अवस्था में उपस्थित होता है और वयस्क
होने पर वह हड्डी से ढक जाता है,के स्थान पर
बनाया जाता है। स्वास्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद
है,पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इसे वैयाकरण
कौमुदी में ५४ वें क्रम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है।
यह स्वास्तिक पद ’सु’ उपसर्ग तथा ’अस्ति’ अव्यय (क्रम ६१)
के संयोग से बना है,इसलिये ’सु+अस्ति=स्वास्ति’ इसमें
’इकोयणचि’सूत्र से उकार के स्थान में वकार हुआ है। ’स्वास्ति’ में
भी ’अस्ति’
को अव्यय माना गया है और ’स्वास्ति’ अव्यय पद का अर्थ
’कल्याण’ ’मंगल’ ’शुभ’ आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब
स्वास्ति में ’क’ प्रत्यय का समावेश हो जाता है तो वह कारक का रूप
धारण कर लेता है और उसे ’स्वास्तिक’ का नाम दे दिया जाता है।
स्वास्तिक का निशान भारत के अलावा विश्व में अन्य देशों में
भी प्रयोग में लाया जाता है,जर्मन देश में इसे
राजकीय चिन्ह से शोभायमान
किया गया है,अन्ग्रेजी के क्रास में
भी स्वास्तिक का बदला हुआ रूप मिलता है,हिटलर
का यह फ़ौज का निशान था,कहा जाता है कि वह इसे
अपनी वर्दी पर दोनो तरफ़ बैज के रूप में
प्रयोग करता था,लेकिन उसके अंत के समय भूल से
बर्दी के बेज में उसे टेलर ने उल्टा लगा दिया था,जितना शुभ
अर्थ सीधे स्वास्तिक का लगाया जाता है,उससे
भी अधिक उल्टे स्वास्तिक का अनर्थ
भी माना जाता है। स्वास्तिक की भुजाओं
का प्रयोग अन्दर की तरफ़ गोलाई में लाने पर वह सौम्य
माना जाता है,बाहर की तरफ़ नुकीले हथियार
के रूप में करने पर वह रक्षक के रूप में माना जाता है।
काला स्वास्तिक शमशानी शक्तियों को बस में करने के लिये
किया जाता है,लाल स्वास्तिक का प्रयोग शरीर
की सुरक्षा के साथ भौतिक सुरक्षा के
प्रति भी माना जाता है,डाक्टरों ने भी स्वास्तिक
का प्रयोग आदि काल से किया है,लेकिन वहां सौम्यता और दिशा निर्देश
नही होता है। केवल धन (+) का निशान
ही मिलता है। पीले रंग का स्वास्तिक धर्म
के मामलों में और संस्कार के मामलों में किया जाता है,विभिन्न
रंगों का प्रयोग विभिन्न कारणों के लिये किया जाता है