Thursday, September 21, 2017

शेषनाग और पृत्वी

---- # शेषनाग_और_पृथ्वी ----
आपने तो सुन ही रखा होगा कि शेषनाग जी के फन पे पृथ्वी टिकी हुई है और जब वो थोड़ा सा हिलते है तो भूकंप आता है तो आज इसके सच को जानते है।।
# बचपन मे मुझे भी यही सुनने को मिला कि ये पृथ्वी शेषनाग के फन पे टिकी है आपने भी सुनी होगी और मन आपका भी टूटा होगा जब आप बड़े हुए होंगे कि ऐसा नही है ।। मेरा मन भी एक बार सनातन की बाते सुनकर मोहभंग हुआ था और मैं भी नास्तिकों की तरह सिर्फ सनातन की बातों पे वैज्ञानिक बना कुतर्क किया करता था ,लेकिन फिर जब मैंने विज्ञान और वैदिक शास्त्रो को जोड़कर देखा तो पता लगा कि सनातन की हर परंपरा एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखे हुए है और वैदिक शास्त्रो में हर वो विज्ञान है जो आज के विज्ञान की नींव है ।।
# शेषनाग_के_फन_पे_पृथ्वी_का_रहस्य --
अधॊ महीं गच्छ भुजंगमॊत्तम; सवयं तवैषा विवरं परदास्यति
इमां धरां धारयता तवया हि मे; महत परियं शेषकृतं भविष्यति
(महाभारत आदिपर्व के आस्तिक उपपर्व के 36 वें अध्याय का श्लोक )
इसमे ही वर्णन मिलता है कि शेषनाग को ब्रम्हा जी धरती को अपने ऊपर धारण करने को कहते है और क्रमशः आगे के श्लोक में शेषनाग जी आदेश के पालन हेतु पृथ्वी को अपने फन पे धारण कर लेते है
इन श्लोको पे ध्यान दे तो इसमे लिखा है कि धरती के भीतर न कि धरती को बाहर खुद को वायुमंडल में स्थित करके पृथ्वी को अपने ऊपर धारण करना ।।
# अब_जरा_वैज्ञानिक_तथ्यो_से_इसे_समझे --
# पृथ्वी_की_संरचना -
यांत्रिक लक्षणों के आधार पर पृथ्वी को स्थलमण्डल, एस्थेनोस्फीयर, मध्यवर्ती मैंटल, बाह्य क्रोड और आतंरिक क्रोड मे बनाता जाता है। रासायनिक संरचना के आधार पर भूपर्पटी, ऊपरी मैंटल, निचला मैंटल, बाह्य क्रोड और आतंरिक क्रोड में बाँटा जाता है।
ऊपर की भूपर्पटी प्लेटो से बनी है और इसके नीचे मैन्टल होता है जिसमे मैंटल के इस निचली सीमा पर दाब ~140 GPa पाया जाता है। मैंटल में संवहनीय धाराएँ चलती हैं जिनके कारण स्थलमण्डल की प्लेटों में गति होती है।
इम गतियों को रोकने के लिए एक बल काम करता है जिसे भुचुम्बकत्व कहते है इसी भुचुम्बकत्व की वजह से ही टेक्टोनिक प्लेट जिनसे भूपर्पटी का निर्माण हुआ है वो स्थिर रहती है और कही भी कोई गति नही होती
# तो_क्या_भुचुम्बकत्व_ही_शेषनाग_है --
कहा जाता है कि शेषनाग के हजारो फन है भुचुम्बकत्व में हजारों मैग्नेटिक वेब्स है शेषनाग के शरीर अंत मे एक हो जाता है मतलब एक पूछ है भुचुम्बकत्व कि उत्पत्ति का केंद्र एक ही है ।। शेषनाग ने पृथ्वी को अपने फन पे टिका रखा जा भुचुम्बकत्व की वजह से ही पृथ्वी टिकी हुई है ।।
शेषनाग के हिलने से भूकंप आता है भुचुम्बकत्व कि बिगड़ने(हिलने) से भूकंप आता है ।।
# वैदिक_ग्रंथो में इसी भुचुम्बकत्व को ही शेषनाग कहा गया है ।।
# विशेष - क्रोड का विस्तार मैंटल के नीचे है आर्थात २८९० किमी से लेकर पृथ्वी के केन्द्र तक। किन्तु यह भी दो परतों में विभक्त है - बाह्य कोर और आतंरिक कोर। बाह्य कोर तरल अवस्था में पाया जाता है क्योंकि यह द्वितीयक भूकंपीय तरंगों (एस-तरंगों) को सोख लेता है। तो ये कह देना की पृथ्वी शेषनाग के फन पे स्थित है मात्र कल्पना नही बल्कि एक सत्य है कि पृथ्वी शेषनाग(भुचुम्बक
त्व) की वजह से ही टिकी हुई है या शेषनाग (भुचुम्बकत्व) के फन पे स्थित है ।।

Wednesday, September 13, 2017

पितृपक्ष

💫पितृपक्ष  💫 तर्पण का महत्व💫 पितृ तीर्थ मुद्रा में कैसे करें तर्पण💫
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इस बार 2017 में महालय, यानी पितृपक्ष की शुरूआत 6 सितम्बर से होकर 20
सितम्बर को समाप्ति होगी। इस बार आश्विन कृष्ण पक्ष 7 तारीख से शुरू होकर
चौदह दिन बाद 20 तारीख को खत्म हो जायेगा। एक तिथि कम होने से ये पखवाड़ा
चौदह दिनों का ही है। लिहाजा प्रतिपदा और द्वितिया दोनों के श्राद्ध 7
तारीख को ही होंगे। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष को ही पितृपक्ष समझा जाता
है। वास्तविकता में पितृपक्ष की शुरूआत आश्विन कृष्ण पक्ष की शुरूआत के
एक दिन पहले, यानी भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से ही हो जाती
है। इस तरह सभी स्थितियां सामान्य होने पर यह पक्ष सोलह दिन का होता है,
लेकिन ऐसा क्यों होता है?
पितृपक्ष में पितरों का श्राद्ध उसी तिथि को किया जाता है, जिस तिथि को
उनका स्वर्गवास हुआ हो। कृष्ण पक्ष में केवल प्रतिपदा से अमावस्या तक की
तिथियां होती हैं तो अगर किसी का स्वर्गवास पूर्णिमा के दिन हुआ हो, तो
उसका श्राद्ध कब करेंगे। इस समस्या के निवारण के लिये ही भाद्रपद मास के
शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से महालय, यानी पितृपक्ष की शुरूआत का प्रावधान
किया गया है।

💫परिचय💫

हिन्दू धर्म में पितृपक्ष का बहुत अधिक महत्व है। हिन्दू-धर्म के अनुसार
मृत्यु के बाद जीवात्मा को उसके कर्मानुसार स्वर्ग-नरक में स्थान मिलता
है। पाप पुण्य क्षीर्ण होने पर वह पुनः मृत्यु लोक में आ जाती है। मृत्यु
के पश्चात पितृयान मार्ग से पितृलोक में होती हुई चन्द्रलोक जाती है।
चन्द्रलोक में अमृतान्त का सेवन करके निर्वाह करती है। यह अमृतान्त कृष्ण
पक्ष में चन्द्रकलाओं के साथ क्षीर्ण पड़ने लगता है। अतः कृष्ण पक्ष मे
वंशजों को आहार पहुंचाने की व्यवस्था की गई है। श्राद्ध एवं पिण्डदान के
माध्यम से पूर्वजों को आहार पहुंचाया जाता है। शास्त्रों में बताया गया
है कि पितृपक्ष में पितृतर्पण अवश्य करना चाहिए।
कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति।
आयुः पुत्रान्यशः स्वर्गंकीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।
देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते।।
देवताभ्यः पितृणां हिपूर्वमाप्यायनं शुभम्।। -गरूड़ पुराण
(समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुःखी नहीं रहता। पितरों की
पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री,
पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का
विशेष महत्व है।

💫तर्पण का महत्व💫

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार जिस प्रकार वर्षा का जल सीप में गिरने से
मोती, कदली में गिरने से कपूर, खेत में गिरने से अन्न और धूल में गिरने
से कीचड़ बन जाता है। उसी प्रकार तर्पण के जल से सूक्ष्म वाष्पकण देव योनि
के पितर को अमृत, मनुष्य योनि के पितर को चारा व अन्य योनियों के पितरों
को उनके अनुरूप भोजन व सन्तुष्टि प्रदान करते हैं। शास्त्रानुसार कृष्ण
पक्ष पितृ पूजन व शुक्ल पक्ष देव पूजन के लिए उत्तम है।

💫तर्पण कर्म के प्रकार💫

ये 6 प्रकार के होते हैं।
(1) देव-तर्पण (2) ऋषि तर्पण (3) दिव्य मानव तर्पण (4) दिव्य पितृ-तर्पण
(5) यम तर्पण (6) मनुष्य-पितृ तर्पण।

💫पितृ तीर्थ मुद्रा में कैसे करें तर्पण 💫

जल में जौ, चावल, और गंगा जल मिलाकर तर्पण कार्य किया जाता है। पितरों
का तर्पण करते समय पात्र में जल लेकर दक्षिण दिशा में मुख करके बाया
घुटना मोड़कर बैठते हैं और जनेऊ को बाये कंधे से उठाकर दाहिने कंधे पर रख
लेते हैं। इसके बाद दाहिने हाथ के अंगूठे के सहारे से जल गिराते हैं। इस
मुद्रा को पितृ तीर्थ मुद्रा कहते हैं। इसी मुद्रा में रहकर अपने सभी
पित्तरों को तीन-तीन अंजलि जल देते हैं।

💫पिण्ड का अर्थ💫

श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो पिण्ड
बनाते हैं, उसे सपिण्डीकरण कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर।
यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढ़ी के भीतर
मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित गुणसूत्र
उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के
शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बांटते हैं। जिन-जिन लोगों
के गुणसूत्र (जीन्स) आपकी देह में हैं, उन सबकी तृप्ति के लिए यह
अनुष्ठान किया जाता है।

Monday, September 11, 2017

श्राद्ध में खीर क्यों

🔶*श्राद्ध में खीर क्यों*🔷
जनिये "खीर" का वैज्ञानिक कारण और महत्व......
हमारी हर प्राचीन परंपरा में वैज्ञानिकता का दर्शन होता हैं । अज्ञानता का नहीं......
हम सब जानते है की मच्छर काटने से मलेरिया होता है वर्ष मे कम से कम 700-800 बार तो मच्छर काटते ही होंगे अर्थात 70 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते लाख बार मच्छर काट लेते होंगे । लेकिन अधिकांश लोगो को जीवनभर में एक दो बार ही मलेरिया होता है ।सारांश यह है की मच्छर के काटने से मलेरिया होता है, यह 1% ही सही है ।
ध्यान दीजिये ....
खीर खाओ मलेरिया भगाओ :-
लेकिन यहाँ ऐसे विज्ञापनो की कमी नहीं है, जो कहते है की एक भी मच्छर ‘डेंजरस’ है, हिट लाओगे तो एक भी मच्छर नहीं बचेगा। अब ऐसे विज्ञापनो के बहकावे मे आकर करोड़ो लोग इस मच्छर बाजार मे अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हो जाते है । सभी जानते है बैक्टीरिया बिना उपयुक्त वातावरण के नहीं पनप सकते । जैसे दूध मे दही डालने मात्र से दही नहीं बनाता, दूध हल्का गरम होना चाहिए। उसे ढककर गरम वातावरण मे रखना होता है । बार बार हिलाने से भी दही नहीं जमता । ऐसे ही मलेरिया के बैक्टीरिया को जब पित्त का वातावरण मिलता है, तभी वह 4 दिन में पूरे शरीर में फैलता है, नहीं तो थोड़े समय में समाप्त हो जाता है । इतने सारे प्रयासो के बाद भी मच्छर और रोगवाहक सूक्ष्म कीट नहीं काटेंगे यह हमारे हाथ में नहीं । लेकिन पित्त को नियंत्रित रखना तो हमारे हाथ में है। अब हमारी परम्पराओं का चमत्कार देखिये जिन्हे अल्पज्ञानी, दक़ियानूसी, और पिछड़ेपन की सोच करके षड्यंत्र फैलाया जाता है।
वर्षा ऋतु के बाद जब शरद ऋतु आती है तो आसमान में बादल व धूल के न होने से कडक धूप पड़ती है। जिससे शरीर में पित्त कुपित होता है । इस समय गड्ढो आदि मे जमा पानी के कारण बहुत बड़ी मात्रा मे मच्छर पैदा होते है इससे मलेरिया होने का खतरा सबसे अधिक होता है ।
खीर खाने से पित्त का शमन होता है । शरद में ही पितृ पक्ष (श्राद्ध) आता है पितरों का मुख्य भोजन है खीर । इस दौरान 5-7 बार खीर खाना हो जाता है । इसके बाद शरद पुर्णिमा को रातभर चाँदनी के नीचे चाँदी के पात्र में रखी खीर सुबह खाई जाती है (चाँदी का पात्र न हो तो चाँदी का चम्मच खीर मे डाल दे, लेकिन बर्तन मिट्टी, काँसा या पीतल का हो। क्योंकि स्टील जहर और एल्यूमिनियम, प्लास्टिक, चीनी मिट्टी महा-जहर है)
यह खीर विशेष ठंडक पहुंचाती है । गाय के दूध की हो तो अतिउत्तम, विशेष गुणकारी (आयुर्वेद मे घी से अर्थात गौ घी और दूध गौ का) इससे मलेरिया होने की संभावना नहीं के बराबर हो जाती है ।
ध्यान रहे :-- इस ऋतु में बनाई खीर में केसर और मेंवों का प्रयोग न करे । ये गर्म प्रवृत्ति के होने से पित्त बढ़ा सकते है। सिर्फ इलायची डाले ।।। इसे सोचो और समझो फिर प्रयोग करो।

Thursday, September 7, 2017

ग्रहो के अनुसार तेल मालिश

ग्रहों के अनुसार तेल मालिश----------
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- वाग्भट के अनुसार तेल मालिश से नसों में अवरुद्ध वायु हट जाती है और सभी दर्द और विकार दूर होते है .
- आयुर्वेद के अनुसार सरसों की तेल मालिश करने से अनेक प्रकार की बीमारियां शांत हो जाती है.महाऋषि चरक ने तो तेल में घृत से 8 गुणा ज्यादा शक्ति को माना है. यदि प्रतिदिन नियम से तेल मालिश की जाए तो सिरदर्द, बालों का झड़ना, खुजली दाद, फोड़े फुंसी एवं एग्ज़िमा आदि बीमारियां कभी नहीं होती है.

- तेल मालिश त्वचा को कोमल, नसों को स्फूर्ति युक्त और रक्त को
गतिशील बनाती है. प्रात: काल नियमपूर्वक यदि मालिश की जाए तो व्यक्ति रोगमुक्त एवं दीर्घजीवी बनता है.

शरीर को स्वस्थ रखने के लिए वायु की प्रमुख आवश्यकता है. वायु का ग्रहण त्वचा पर निर्भर है और त्वचा का मालिश पर.

- सूर्योदय के समय वायु में प्राण शक्ति और चन्द्रमा द्वारा अमृत का अंश भी सम्मिश्रित होता है. परन्तु रवि, मंगल, गुरु शुक्र को मालिश नहीं करनी चाहिए. हमारे शास्त्रों के अनुसार रविवार को मालिश करने से ताप (गर्मी सम्बन्धी रोग), मंगल को मृत्यु, गुरु को हानि, शुक्र को दुःख होता है

- सोमवार को तेल मालिश करने से शारीरिक सौंदर्य बढ़ता है. बुध को धन में वृद्धि होती है. शनिवार को धन प्राप्ति एवं सुखों की वृद्धि होती है.

- कई बार जब बीमारियाँ ठीक ना हो रही हो या जब कर्म के हिसाब से फल कम या नहीं मिलता तो इंसान सोचने को बाध्य हो जाता है . तब उसका जिज्ञासु मन ज्योतिषी के पास पहुंचता है और कुंडली बनवाने से पता चलता है की कौनसा गृह कमज़ोर है या अशुभ है . ये एक संकेत है हमारे संचित संस्कारों का . इसके लिए एक उपाय यह भी कर सकते है की उस गृह को सशक्त करने वाले तेल से मालिश की जाए .

- ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सरसों का तेल शनि का कारक है. शनि के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए सोमवार, बुधवार एवं शनिवार को सरसों के तेल की मालिश कर स्नान करने से शनि के अशुभ प्रभाव से हमारी रक्षा होती है. हर प्रकार की मनोकामना पूर्ण होती है

- सूर्य की अनिष्टता दूर करने के लिए तेल - सूरज मुखी और तिल का तेल आधा आधा लीटर ले कर उसमे ५ ग्राम लौंग का तेल और १० ग्राम केसर मिलाये .इसे सात दिन सूर्य प्रकाश में रखे .

- चन्द्रमा के लिए तेल - एक लीटर सफ़ेद तिल का तेल , 100 ग्राम चन्दन का तेल और ५० ग्राम कपूर डाले . इसे सात दिन चन्द्रमा के प्रकाश में रखे . इसे लगाने से पेट के रोग , सर के रोग और चन्द्रमा की अनिष्टता दूर होती है .

- मंगल का तेल बनाना थोड़ा मुश्किल है . इसलिए इसे किसी कुशल जानकार से बनवाये . इसे लगाने से रक्त विकार ,मिर्गी के दौरे और मंगल दोष दूर होते है .

- बुध का तेल - एक लीटर तिल के तेल में ब्राम्ही और खस डालकर उबाल ले . छान कर ठंडा होने पर उसमे ५ ग्राम लौंग का तेल डाले . इसे हरे रंग की कांच की बोतल में अँधेरी जगह में सात दिन रखे .यह त्वचा विकारों में लाभकारी है .

- बृहस्पति का तेल - एक लीटर नारियल तेल में ५ ग्राम हल्दी और ५ ग्राम खस डाल कर उबाल कर छान ले . ठंडा होने पर दस ग्राम चन्दन का तेल डाले और हरी बोतल में भर कर रखे . नहाने से पहले १० ग्राम चन्दन का तेल और दो बूँद निम्बू का रस मिला कर लगाए . इससे दमा दूर होता है और चेहरे पर रौनक आती है .

शुक्र का तेल - आधा आधा लीटर नारियल और तिल का तेल ले . ५ ग्राम चन्दन और 2 ग्राम चमेली का तेल मिला कर कांच की बोतल में 3 दिन धुप में रखे .

शनि के लिए तेल - एक लीटर तिल के तेल में भृंगराज , जायफल , केसर या कस्तूरी ५ -५ ग्राम पानी में भिगोकर पिस ले .इसे तिल के तेल में उबाल ले . छान कर ठंडा होने पर ५ ग्राम लौंग का तेल मिलाये .इसे सात दिन कांच की बोतल में अँधेरे में रखे . इसे लगाने से वात के रोग , हड्डियों के रोग दूर होते है . बाल भी काले रहते है .

राहू का तेल - इसे बनाने की विधि शनि के तेल की तरह ही है . सिर्फ इसे उंचाई पर सात दिन के लिए पश्चिम दिशा में रखे .

- केतु का तेल -एक लीटर तिल या सरसों के तेल में लोध मिला कर उबाले . ठंडा होने पर ५ ग्राम लौंग का तेल मिलाये . फिर काले रंग की बोतल में मकान के पश्चिम दिशा में उंचाई पर रखे . इसे लगाने से केतु के दुष्प्रभाव दूर होते है
.आयुर्वेद के अनुसार सरसों की तेल मालिश करने से अनेक प्रकार की बीमारियां शांत हो जाती है.

महाऋषि चरक ने तो तेल में घृत से 8 गुणा ज्यादा शक्ति को माना है. यदि प्रतिदिन नियम से तेल मालिश की जाए तो सिरदर्द, बालों का झड़ना, खुजली दाद, फोड़े फुंसी एवं एग्ज़िमा आदि बीमारियां कभी नहीं होती है.

तेल मालिश का रहस्य त्वचा को कोमल, नसों को स्फूर्ति युक्त और रक्त को गतिशील बनाती है. प्रात: काल नियमपूर्वक यदि मालिश की जाए तो व्यक्ति रोगमुक्त एवं दीर्घजीवी बनता है.

शरीर को स्वस्थ रखने के लिए वायु की प्रमुख आवश्यकता है. वायु का ग्रहण त्वचा पर निर्भर है और त्वचा का मालिश पर.

सूर्योदय के समय वायु में प्राण शक्ति और चन्द्रमा द्वारा अमृत का अंश भी सम्मिश्रित होता है. परन्तु रवि, मंगल, गुरु शुक्र को मालिश नहीं करनी चाहिए. हमारे शास्त्रों के अनुसार रविवार को मालिश करने से ताप (गर्मी सम्बन्धी रोग), मंगल को मृत्यु, गुरु को हानि, शुक्र को दुःख होता है

सोमवार को तेल मालिश करने से शारीरिक सौंदर्य बढ़ता है. बुध को धन में वृद्धि होती है. शनिवार को धन प्राप्ति एवं सुखों की वृद्धि होती है.

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सरसों का तेल शनि का करक है. हर ग्रह के अनुसार सब ग्रहों के अलग-अलग अनाज और वस्तुएं बताई गई है.

जिससे ग्रह की शांति या शुभ फल की प्राप्ति करनी हो उस से सम्बंधित वस्तुओं को ग्रहण और दान करने का महत्व हमारे धरम शास्त्रों में बताया गया है.

शनि के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए सोमवार, बुधवार एवं शनिवार को सरसों के तेल की मालिश कर स्नान करने से शनि के अशुभ प्रभाव से हमारी रक्षा होती है. हर प्रकार की मनोकामना पूर्ण होती है

किस दिन और क्यों नहीं करनी चाहिए तेल मालिश?
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वैसे तो स्वस्थ त्वचा के लिए तेल मालिश करना नियमित दिनचर्या है लेकिन सप्ताह में इसे केवल तीन दिन ही करना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को तेल मालिश करना चाहिए। जबकि रविवार, मंगलवार और शुक्रवार को तेल मालिश नहीं करनी चाहिए। अगर रोजाना करना ही हो तो फिर कुछ उपाय करने के बाद ही करें। बहरहाल सवाल यह उठता है कि रवि, मंगल और शुक्रवार को तेल से मालिश क्यों न करें? दरअसल इसके पीछे भी विज्ञान है। शास्त्र कहते हैं कि इन दिनों में तेल से मालिश करने पर रोग होने की आशंका रहती है।

तैलाभ्यांगे रवौ ताप: सोमे शोभा कुजे मृति:।

बुधेधनं गुरौ हानि: शुझे दु:ख शनौ सुखम् ॥

अर्थ- रविवार को तेल मालिश से ताप यानी गर्मी संबंधी रोग, सोमवार को शरीर के सौन्दर्य में वृद्धि, मंगलवार को मृत्यु भय, बुधवार को धन की प्राप्ति, गुरुवार को हानि, शुक्रवार को दु:ख और शनिवार को करने से सुख मिलता है।

तीन दिन क्यों नहीं
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शास्त्रों के अनुसार रविवार, मंगलवार और शनिवार को तेल से मालिश करना मना है। इसके पीछे भी विज्ञान है। रविवार का दिन सूर्य से संबंधित है। सूर्य से गर्मी उत्पन्न होती है। अत: इस दिन शरीर में पित्त अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक होना स्वाभाविक है। तेल से मालिश करने से भी गर्मी उत्पन्न होती है। इसलिए रविवार को तेल से मालिश करने से रोग होने का भय रहता है। मंगल ग्रह का रंग लाल है। इस ग्रह का प्रभाव हमारे रक्त पर पड़ता है। इस दिन शरीर में रक्त का दबाव अधिक होने से खुजली, फोड़े फुन्सी आदि त्वचा रोग या उनसे मृत्यु होने का डर भी रहता है। इसी तरह शुक्र ग्रह का संबंध वीर्य तत्व से रहता है। इस दिन मालिश करने से वीर्य संबंधी रोग हो सकते हैं। अगर रोजाना मालिश करना हो तो तेल में रविवार को फूल, मंगलवार को मिट्टी और शुक्रवार को गाय का मूत्र डाल लेने से कोई दुष्प्रभाव नहीं होता।

यह है मालिश का विज्ञान
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मानव शरीर में असंख्य छिद्र हैं। यदि किसी यन्त्र की सहायता से देखें तो पता लगेगा कि हमारी त्वचा जालीदार है। इन छिद्रों को रोम कहा जाता है। इन छिद्रों से हमारे शरीर की प्रदूषित वायु और गंदगी गैस के रूप में बाहर निकलती है। यह एक महत्वपूर्ण क्रिया है। इसी पर हमारा जीवन आधारित है। यदि ये छिद्र बंद हो जाएं तो शरीर में कई रोग उत्पन्न होने लगते हैं। वास्तव में तेल मालिश इन छिद्रों को साफ करने की एक आसान प्रक्रिया है। तेल की मालिश से शरीर में रक्त का संचारण तेजी से होता है और नई ऊर्जा और शक्ति का संचार होता है।