Thursday, August 6, 2020

प्रतिद्वंद्वी को हराने के मंत्र

प्रतिद्वंद्वी को हराने का मंत्र (अथर्व वेद से)
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उदसौ सूर्यो अगादुदिदं मामकं वचः ।
यथाहं शत्रुहोऽसान्यसपत्नः सपत्नहा ॥ १ ॥ सपत्नक्षयणो वृषाभिराष्ट्रो विषा सहि। यथाहमेषां वीराणां विराजानि जनस्य च॥२॥

- का. 1/या. 5/से. 29 

अर्थ-यह सूर्य ऊपर चला गया है, मेरा यह मंत्र भी ऊपर गया है, ताकि मैं शत्रु को मारने वाला प्रतिद्वंद्वी रहित तथा प्रतिद्वन्द्वियों को मारने वाला होऊँ। प्रतिद्वंद्वी को नष्ट करने वाला प्रजाओं की इच्छा को पूरा करने वाला, राष्ट्र को सामर्थ्य से प्राप्त करने वाला तथा जीतने वाला होऊँ, ताकि मैं शत्रु पक्ष के वीरों का तथा अपने एवं पराये लोगों का शासक बन सकूं।

नोट- इस मंत्र को IAS व RAS तथा अन्य राजकीय उच्चपदाधिकार के अभिलाषी व्यक्तियों द्वारा इन मंत्रों का बराबर 21 रविवार तक प्रयोग कराए गये तथा वे सभी प्रयोग 95% सफल रहे। इस मन्त्र से सूर्य को नित्य अर्घ्य दिया जाता है प्रत्येक रविवार को अर्घ्य में रक्तपुष्प के साथ रक्तचंदन डाला जाता है। अर्घ्य द्वारा विसर्जित जल से दक्षिण नासिका, दक्षिण नेत्र, दक्षिण कर्ण व दक्षिण भुजा को स्पर्शित किया जाता है। तत्पश्चात् पूर्व निश्चित् साक्षात्कारों के लिए जावें तो अवश्य सफलता मिलती है। यह वस्तुत:आत्मविश्वास बढ़ाने वाला मंत्र है तथा दिन के 11 बजे से 3 बजे तक इस मन्त्र का विशिष्ट प्रभाव देखा गया है। प्रस्तुत मन्त्र 'राष्ट्रवर्द्धनम्' नामक सूक्त से उद्धृत है।
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Wednesday, July 8, 2020

इत्र से ग्रह शान्ति

यदि आपको लगता है कि कोई ग्रह या नक्षत्र आपकी जिंदगी में परेशानी खड़ी कर रहा है तो आप सुगंध से इन ग्रह नक्षत्रों की बुरे प्रभाव को दूर कर सकते हैं। तो जानिए कि कैसे सुगंध से ग्रहों की शांति की जा सकती है।
सूर्य ग्रह : यदि आपकी कुंडली में सूर्य ग्रह बुरे प्रभाव दे रहा है तो आप केसर या गुलाब की सुगंध का उपयोग करें। घर के लिए होम प्रेशनर लाएं और शरीर के लिए इस सुगंध का कोई इत्र उपयोग करें।
 
चंद्र ग्रह : चंद्रमा मन का कारण है अत: इसके लिए चमेली और रातरानी के इत्र का उपयोग कर सकते हैं।
 
मंगल ग्रह : मंगल ग्रह की परेशान से मुक्त होने के लिए लाल चंदन का इत्र, तेल अथवा सुगंध का उपयोग कर सकते हैं।
 
बुध ग्रह : बुध ग्रह की शांति के लिए चंपा का इत्र तथा तेल का प्रयोग बुध की दृष्टि से उत्तम ह

गुरु ग्रह : केसर और केवड़े का इत्र के उपयोग के अलावा पीले फूलों की सुगंध से गुरु की कृपा पाई जा सकती है।
 
शुक्र ग्रह : शुक्र को सुधारने के लिए सफेद फूल, चंदन और कपूर की सुगंध लाभकारी होती है। चंपा, चमेली और गुलाब की तीक्ष्ण खुशबू से खराब हो जाता है।
 
शनि ग्रह : शनि के खराब प्रभाव को अच्छे प्रभाव में बदलने के लिए कस्तुरी, लोबान तथा सौंफ की सुगंध का उपयोग कर सकते हैं।
 
राहु और केतु छाया ग्रह : काली गाय का घी व कस्तुरी के इत्र का उपयोग कर राहु ग्रह के दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है। यही यह कहीं से उपलब्ध न हो तो घर के शौचालय को साफ सुधरा रख कर घर में प्रतिदिन कर्पूर जलाएं। गुड़ और घी को मिलाकर उसे कंडे पर जलाएं।
ऐसे उपाय या टोटके सही होते हैं जिसने किसी दूसरा का कोई नुकसान न होता हो। हम यहां बता रहे हैं ऐसे उपाय जो ज्योतिष शास्त्र और लाल किताब के विशेषज्ञों द्वारा मान्य और सात्विक हैं।
इत्र एक ऐसा सुगंधित पदार्थ होता है जिसका इस्तेमाल प्राचीनकाल से होता आया है और जिसके इस्तेमाल के कई धार्मिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक महत्व भी है, लेकिन हम यहां इत्र के कुछ एस्ट्रो टिप्स बता रहे हैं जो कि अचूक हैं। ध्यान रखें कभी भी सेंट या इत्र लगाकर न सोएं इससे पारलौकिक शक्तियां आकर्षित होती है।

पति-पत्नी में प्रेम हेतु : पति-पत्नी में प्रेम बना रहे इसके लिए पत्नी बुधवार को तीन घंटे का मौन रखें। इसके बाद शुक्रवार को अपने हाथ से साबूदाने की खीर में मिश्री डालकर बनाए और अपने पति और घर के बाकि सदस्यों को खाने के लिए दें और इसी दिन मंदिर में यहां किसी व्यक्ति को इत्र का दान करें एवं अपने कक्ष में भी इत्र रखें। इस उपाय से दोनों के प्रेम में अवश्य ही वृद्धि होगी और संबंध मजबूत रहेगा।

पति की आयु के लिए : यदि कोई स्त्री लाल सिंदू, इत्र की शीशी, चने की दाल और केसर का दान करें तो इस उपास से उस स्त्री के पति की आयु में वृद्धि होती है।

इत्र की तेज सुगंध : दीपावली के दिन पूजन के समय तेज सुगंध और इत्र का प्रयोग करें। ऐसी मान्यता है कि इस दिन अच्छे और तेज इत्र का प्रयोग करने से लक्ष्मी की कृपा तुरंत प्राप्त होती है और घर में धन संबंधी कभी समस्याएं उत्पन्न नहीं होती।

हनुमानजी को अर्पित करें इत्र : मंगलवार के दिन हनुमानजी को चोला चढ़ाने के लिए चमेली के तेल का उपयोग करें। साथ ही चोला चढ़ाते समय एक दीपक हनुमानजी के सामने जला कर रख दें। दीपक में भी चमेली के तेल का ही उपयोग करें।

चोला चढ़ाने के बाद हनुमानजी को गुलाब के फूल की माला पहनाएं और केवड़े का इत्र हनुमानजी की मूर्ति के दोनों कंधों पर थोड़ा-थोड़ा छिटक दें। अब एक साबूत पान का पत्ता लें और इसके ऊपर थोड़ा गुड़ व चना रख कर हनुमानजी को इसका भोग लगाएं। इसके बाद वहीं बैठकर तुलसी की माला से नीचे लिखे मंत्र का जप करें। कम से कम 5 माला जाप अवश्य करें।
 
मंत्र-
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्त्र नाम तत्तुन्यं राम नाम वरानने।।
 
अब हनुमानजी को चढाएं गए गुलाब के फूल की माला से एक फूल तोड़ कर उसे एक लाल कपड़े में लपेटकर अपने धन स्थान यानी तिजोरी में रख लें। आपकी तिजोरी में बरकत बनी रहेगी।
 
शुक्र ग्रह की शुभता के लिए : शुक्र को जगाने के लिए आचरण की शुद्धि अत्यंत आवश्यक है। जातक या जातिका को परफ्यूम या इत्र का प्रयोग करना चाहिए। इसके आलाव जब भी समय मिले शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को माता लक्ष्मी को इत्र एवं श्रृंगार की वस्तुएं भेट करें। इस उपाय से पति पत्नीं के बीच जहां प्रेम बढ़ेगा वहीं घर में धन एवं समृद्धि भी बरकरार रहेगी।
 
बुध नक्षत्र में जन्मे जातक हेतु : यदि आपका जन्म बुधवार या बुध नक्षत्र को हुआ है तो आप बुधवार के दिन चमेली का तेल या चमेली के इत्र को पीपल के पेड़ पर छिड़के। इससे इस नक्षत्र के लोगों को निश्चित रूप से लाभ मिलेगा।
 
रोजगार में वृद्धि हेतु : दीपावली पर महालक्ष्मीजी की पूजा के समय मां को एक इत्र की शीशी चढ़ाएं। उसमें से एक फुलेल लेकर मां को अर्पित करें। फिर पूजा के पश्चात् उसी शीशी में से थोड़ा इत्र स्वयं को लगा लें। इसके बाद रोजाना इसी इत्र में से थोड़ा-सा लगा कर कार्य स्थल पर जाएं तो रोजगार में वृद्धि होने लगती है। 

पर्स में रहेगी बरकत : यदि आप चाहते हैं कि आपका पर्स हमेशा नोटो से भरा रहे तो आप अपने भूरे रंग के पर्स में दस रुपए के दो और 20 रुपए का दो नोट चंदन का इत्र लगाकर रखें।

आर्थिक हानी से बचने का उपाय : यदि आपको अचानक धन का नुकसान होता है, तो आप सात शुक्रवार को किन्हीं सात सुहागिनों को अपनी पत्नी के माध्यम से लाल वस्तु उपहार में दें और यदि उपहार में इत्र भी हो तो इस प्रयोग तत्काल ही लाभ मिलता है।

ऑफिस में प्रभाव डालने हेतु : यदि आप अपने ऑफिस के लोगों पर प्रभाव डालना चाहते हैं कि आप मोगरा, रातरानी या चंदन का इस्तेमाल करेंगे तो सभी आपसे खुश रहेंगे।

देवताओं को प्रसंन्न करने हेतु: मंदिर में चंदन, कपूर, चंपा, गुलाब, केवड़ा, केसर और चमेली के इत्र का इस्तेमाल करने से देवी और देवता आपसे प्रसन्न रहते हैं। 

प्रेम विवाह : श्वेत वस्त्र धारण करके किसी भी देव-स्थल पर लाल गुलाब व चमेली का इत्र अर्पित करें। प्रेम-विवाह में लाभ होगा।
 
राहु के उपाय : राहु की हरकतों को शांत करने के लिए जल में चंदन का इत्र डालकर उससे नहाएं। इससे राहु कुछ हद तक शुभ असर देने लगेगा। आपका बाथरूप और टॉयलेट एकदम साफ सुधरा है और उसका प्रभाव घर के अन्य किसी रूप में नहीं पड़ता है तो इससे भी राहु का अशुभ प्रभाव नहीं होगा।

Friday, June 12, 2020

सनातन के दस नियम

हिन्दू धर्म की दस अनमोल बातें जो हर हिन्दू को जानना आवश्यक है?

हिंदुत्व केवल एक धर्म ही नहीं है बल्कि यह एक सफल जीवन जीने का तरीके के रूप में भी देखा जा सकता है. हिन्दू धर्म की अनेको विशेषताएं है तथा इसे सनातन धर्म की भी उपाधि दी गई है।

भागवत गीता में सनातन का अभिप्राय बताते हुए कहा गया है की सनातन वह है जो न तो अग्नि, न वायु, न पानी तथा न अस्त्र से नष्ट हो सकता है यह तो वह है जो दुनिया में स्थित हर सजीव एवं निर्जीव में व्याप्त है. धर्म का अर्थ होता है जीवन को जीने की कला. हिन्दू सनातन धर्म की जड़े आध्यात्मिक विज्ञान में है।

सम्पूर्ण हिन्दू शास्त्र में विज्ञान एवं अध्यात्म के संबंध में बाते बताई गई है. यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय में ऐसा वर्णन आया है की जीवन की सभी समस्याओं का समाधान विज्ञान एवं आध्यात्मिक समस्याओं के लिए अविनाशी दर्शनशास्त्र का उपयोग करना चाहिए।

आज हम आपको हिन्दू धर्म से जुडी 10 ऐसे महत्वपूर्ण जानकारियों के बारे में बताएंगे जिनका महत्व हर हिन्दू धर्म से जुड़े व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है. यह ऐसी जानकारी है जो किसी भी व्यक्ति को हिन्दू धर्म को समझने में मदद कर सकता है।

हिन्दू सनातन धर्म में बताये गए 10 कर्तव्य 
1 . सन्ध्यावादन, 2 . व्रत, 3 . तीर्थ, 4 . संस्कार, 5 . उत्सव, 6 . दान, 7 .सेवा, 8 यज्ञ पाठ, 9 .वेद पाठ, 10 . धर्म प्रचार .

10 सिद्धांत 
1 .एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति अर्थात एक ही ईश्वर है दुसरा नहीं।
2 . आत्मा अमर है।
3 .पुनर्जन्म होता है।
4 मोक्ष ही जीवन का लक्ष्य है।
5 . संस्कारबद्ध जीवन ही जीवन है।
6 . कर्म का प्रभाव होता है, जिसमें से ‍कुछ प्रारब्ध रूप में होते हैं इसीलिए कर्म ही भाग्य है।
7 . ब्रह्माण्ड अनित्य और परिवर्तनशील है।
8 . संध्यावंदन- ध्यान ही सत्य है।
9 . दान ही पूण्य है।
10 . वेदपाठ और यज्ञकर्म ही धर्म है।

10 महत्वपूर्ण कार्य
1.प्रायश्चित करना,
2.उपनयन, दीक्षा देना-लेना,
3.श्राद्धकर्म,
4.बिना सिले सफेद वस्त्र पहनकर परिक्रमा करना,
5.शौच और शुद्धि,
6.जप-माला फेरना,
7.व्रत रखना,
8.दान-पुण्य करना,
9.धूप, दीप या गुग्गल जलाना,
10.कुलदेवता की पूजा.

ये हे 10 उत्सव
नवसंवत्सर, मकर संक्रांति, वसंत पंचमी, पोंगल-ओणम, होली, दीपावली, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्‍टमी, महाशिवरात्री और नवरात्रि. इनके बारे में विस्तार से जानकारी हासिल करें.

सनातन धर्म से जुडी 10 महत्वपूर्ण पूजाएं 
गंगा दशहरा, आंवला नवमी पूजा, वट सावित्री, दशामाता पूजा, शीतलाष्टमी, गोवर्धन पूजा, हरतालिका तिज, दुर्गा पूजा, भैरव पूजा और छठ पूजा. ये कुछ महत्वपूर्ण पूजाएं है जो हिन्दू करता है. हालांकि इनके पिछे का इतिहास जानना भी जरूरी है.

सनातन धर्म के 10 पवित्र पेय 

1.चरणामृत, 2.पंचामृत, 3.पंचगव्य, 4.सोमरस, 5.अमृत, 6.तुलसी रस, 7.खीर, 9.आंवला रस और 10.नीम रस . आप इनमे से कितने रस का समय समय पर सेवन करते है ? ये सभी रस अमृत के समान माने जाते है.

हिन्दू धर्म में प्रयोग किये जाने वाले 10 फूल 

1.आंकड़ा, 2.गेंदा, 3.पारिजात, 4.चंपा, 5.कमल, 6.गुलाब, 7.चमेली, 8.गुड़हल, 9.कनेर, और 10.रजनीगंधा. हर देवी दवताओं को अलग अलग प्रकार के फूलों को अर्पित किया जाता है. परन्तु आज के युग में लोग देवी देवताओ पर गुलाब एवं गेंदे का पुष्प चढ़ाकर ही इतिश्री कर लेते जो की पुराणों में गलत बताया गया है.

ये है 10 धर्मिक स्थल 
12 ज्योतिर्लिंग,
51 शक्तिपीठ,
7 पूरी,
7 नगरी,
4 धाम,
4 मठ,
10 पर्वत, 10 गुफाएं,
5 सरोवर,
10 समाधि स्थल,
4 आश्रम.

10 महाविद्याए 

1.काली, 2.तारा, 3.त्रिपुरसुंदरी, 4. भुवनेश्‍वरी, 5.छिन्नमस्ता, 6.त्रिपुरभैरवी, 7.धूमावती, 8.बगलामुखी, 9.मातंगी और 10.कमला.
बहुत कम लोग जानते हैं कि ये 10 देवियां कौन है. नवदुर्गा की पूजा के पश्चात इन 10 देवियो के पूजा इनके बारे में विस्तृत ढंग से जानने के पश्चात ही करनी चाहिए. बहुत से व्यक्ति इन 10 विद्याओं की पूजा भगवान शिव की पत्नी के रूप में की जाती जो की अनुचित है.

10 यम नियम 
1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह. 6.शौच 7.संतोष, 8.तप, 9.स्वाध्याय और 10.ईश्वर-प्रणिधान. ये 10 ऐसे यम और नियम है जिनके बारे में प्रत्येक हिन्दू को जानना चाहिए यह सिर्फ योग के नियम ही नहीं है ये वेद और पुराणों के यम-नियम हैं. क्यों जरूरी है? क्योंकि इनके बारे में आप विस्तार से जानकर अच्छे से जीवन यापन कर सकेंगे. इनको जानने मात्र से ही आधे संताप मिट जाते हैं।

Tuesday, June 2, 2020

नव ग्रह औषधि स्नान

-नवग्रह शांति विधान में जन्मपत्रिका के अनिष्ट ग्रहों के दुष्प्रभावों का शमन करने के लिए औषधि स्नान की प्रक्रिया है जिसमें अनिष्ट ग्रह से सम्बन्धित सामग्री के मिश्रित जल से स्नान किया जाता है। इन सामग्रियों को प्रतिदिन स्नान के जल में मिश्रित कर स्नान करने से अनिष्ट ग्रहों के दुष्प्रभाव में कमी आती है। आइए जानते हैं कि नवग्रहों की शांति के लिए कौन-कौन सी सामग्रियां स्नान के जल में मिलाने से लाभ होता है-

1. सूर्य- सूर्य के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिदिन स्नान के जल में इलायची,केसर,रक्त-चन्दन,मुलेठी एवं लाल पुष्प मिलाकर स्नान करने से लाभ होता है।

2. चन्द्र- चन्द्र के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिदिन स्नान के जल में पंचगव्य, श्वेत चन्दन एवं सफ़ेद पुष्प मिलाकर स्नान करने से लाभ होता है।

3. मंगल- मंगल के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिदिन स्नान के जल में रक्त-चन्दन,जटामांसी,हींग व लाल पुष्प मिलाकर स्नान करने से लाभ होता है।

4. बुध- बुध के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिदिन स्नान के जल में गोरोचन,शहद,जायफ़ल एवं अक्षत मिलाकर स्नान करने से लाभ होता है।

5. गुरु- गुरु के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिदिन स्नान के जल में हल्दी,शहद,गिलोय,मुलेठी एवं चमेली के पुष्प मिलाकर स्नान करने से लाभ होता है।

6. शुक्र- शुक्र के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिदिन स्नान के जल में जायफ़ल, सफ़ेद इलायची,श्वेत चन्दन एवं दूध मिलाकर स्नान करने से लाभ होता है।

7. शनि- शनि के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिदिन स्नान के जल में सौंफ़, खसखस, काले तिल एवं सुरमा मिलाकर स्नान करने से लाभ होता है।

8. राहु- राहु के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिदिन स्नान के जल में कस्तूरी,गजदन्त,लोबान एवं दूर्वा मिलाकर स्नान करने से लाभ होता है।

9. केतु- केतु के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिदिन स्नान के जल में रक्त चन्दन एवं कुशा मिलाकर स्नान करने से लाभ होता है।


मंगल स्नान

मंगल स्नान

जिस व्यक्ति पर मंगल ग्रह की महादशा या अन्तर्दशा चल रही हो उसे मंगल ग्रह को शुभ बनाने के लिए अग्रलिखित वस्तुओं को एकत्रित करके पानी में डालकर उस पानी से स्नान करना चाहिए

. मंगल स्नान की वस्तुएं – सोंठ, सोंफ, मौलसिरी के फूल, सिंगरक, मॉल कंगनी और लाल चन्दन.

इन सभी को एक साथ पानी में भिगोकर एक रत के लिए रख दें दूसरे दिन सुबह पानी को छानकर उससे स्नान कर लें.
इन वस्तुओं को पानी में डालने के लिए मिट्टी के कलश का प्रयोग किया जा सकता है.
मंगल ग्रह के कारन हो रही रोग पीड़ा को शांत करने के लिए भी यह प्रयोग बहुत उपयोगी है.
जिस मंगली कन्या के विवाह में विलम्ब हो रहा हो उसे भी यह प्रयोग करना चाहिए. यह प्रयोग शुक्ल पक्ष में मंगलवार को शुरू करना है. प्रत्येक मंगलवार को यह स्नान करना

Monday, May 11, 2020

त्रिपुर सुंदरी षोडषी साधना विधान

त्रिपुर सुंदरी षोडशी साधना

त्रिपुर सुंदरी षोडशी साधना
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देवी यौवन और आकर्षण की देवी है, जिनके पूजन द्वारा आकर्षण व सौंदर्यता प्राप्त होती है। दाम्पत्य जीवन में कलह, किसी प्रिय जन का रूठना, सम्मान व पद प्राप्त करना आदि
या सभी प्रकार के कामनाओं को पूर्ण करने वाली।
शारीरिक वर्ण : उगते हुए सूर्य के समान।

मुख्य नाम : महा त्रिपुरसुंदरी।
अन्य नाम : श्री विद्या, त्रिपुरा, श्री सुंदरी, राजराजेश्वरी, ललित, षोडशी, कामेश्वरी, मीनाक्षी।
भैरव : कामेश्वर।
त्रिपुर सुंदरी देवी:१. शाम्भवी २. श्यामा तथा ३. विद्या
तीन भैरव: परमशिव, सदाशिव तथा रुद्र
षोडसी माता का स्वरूप:माता के चार हाथ हैं। चारों हाथों में पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित है।
तिथि : मार्गशीर्ष पूर्णिमा।
कुल : श्री कुल ।
दिशा : नैऋत्य कोण।
स्वभाव : सौम्य।
यंत्र:  अलौकिक तथा दिव्य शक्ति दायक श्रीयंत्र
सम्बंधित तीर्थ स्थान या मंदिर : कामाख्या मंदिर, ५१ शक्ति पीठों में सर्वश्रेष्ठ, योनि पीठ गुवहाटी, आसाम।
कार्य : देवी यौवन और आकर्षण की देवी है, जिनके पूजन द्वारा आकर्षण व सौंदर्यता प्राप्त होती है। दाम्पत्य जीवन में कलह, किसी प्रिय जन का रूठना, सम्मान व पद प्राप्त करना आदि
या सभी प्रकार के कामनाओं को पूर्ण करने वाली।
शारीरिक वर्ण : उगते हुए सूर्य के समान।
संबंधित ग्रंथ:‘‘भैरवयामल तंत्र और शक्ति लहरी’’

।।गुरु पूजन विधि प्रारम्भ।।
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सतनमो आदेश गुरुजी को आदेश ॐ गुरुजी आदेश
श्री गुरुदेवेभ्यो नमः

।।आसन ।।
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‘सुखपूर्वक स्थिरता से बहुत काल तक बैठने का नाम आसन है।‘
आसन अनेको प्रकार के होते है। अनमे से आत्मसंयम चा‍हने वाले पुरूष के लिए सिद्धासन, पद्मासन, और स्वास्तिकासन – ये तीन उपयोगी माने गये है। इनमे से कोई सा भी आसन हो, परंतु मेरूदण्ड, मस्तक और ग्रीवा को सीधा अवश्ये रखना चाहिये और दृष्टि नासिकाग्र पर अथवा भृकुटी में रखनी चाहिये। आलस्य न सतावे तो आंखे मुंद कर भी बैठ सकते ‍है। जिस आसन से जो पुरूष सुखपूर्वक दीर्घकाल तक बैठ सके, वही उसके लिए उत्तम आसन है।
शरीर की स्वाभाविक चेष्टा के शिथिल करने पर अर्थात् इनसे उपराम होने पर अथवा अनन्त परमात्मा में मन के तन्मय होने पर आसन की सिद्धि होती है। कम से कम एक पहर यानी तीन घंटे तक एक आसन से सुखपूर्वक स्थिर और अचल भाव से बैठने को आसनासिद्धि कहते है।

।।आसन मंत्र।।
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सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश। ऊँ गुरूजी।
ऊँ गुरूजी मन मारू मैदा करू, करू चकनाचूर। पांच महेश्वर आज्ञा करे तो बेठू आसन पूर।श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।

।।श्री गुरु ध्यान ।।
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ओम गुरुजी।ओमकार आदिनाथ ज्योति स्वरूप बोलियेे। उदयनाथ पार्वती धरती स्वरूप बोलियेे। सत्यनाथ ब्रहमाजी जल स्वरूप बोलियेे। सन्तोषनाथ विष्णुजी खडगखाण्डा तेज स्वरूप बोलियेे। अचल अचम्भेनाथ शेष वायु स्वरूप बोलियेे। गजबलि गजकंथडानाथ गणेषजी गज हसित स्वरूप बोलियेे। ज्ञानपारखी सिद्ध चौरंगीनाथ चन्द्रमा अठारह हजार वनस्पति स्वरूप बोलियेे। मायास्वरूपी रूपी दादा मत्स्येन्द्रनाथ   माया मत्स्यस्वरूपी बोलियेे। घटे पिण्डे नवनिरन्तरे रक्षा करन्ते श्री शम्भुजति गुरु गोरक्षनाथ बाल स्वरूप बोलियेे। इतना नवनाथ स्वरूप मंत्र सम्पूर्ण भया, अनन्त कोटि सिद्धों मेंं नाथजी ने कथ पढ़ सुनाया। नाथजी गुरुजी को आदेष! आदेष!!

।।धूप लगाने का मन्त्र।।

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश। ऊँ गुरूजी। धूप कीजे, धूपीया कीजे वासना कीजे।जहां धूप तहां वास जहां वास तहां देव जहां देव तहां गुरूदेव जहां गुरूदेव तहां पूजा।
अलख निरंजन ओर नही दूजा निरंजन धूप भया प्रकाशा। प्रात: धूप-संध्या धूप त्रिकाल धूप भया संजोग।
गौ घृत गुग्गल वास, तृप्त हो श्री शम्भुजती गुरू गोरक्षनाथ।
इतना धूप मन्त्र सम्पूर्ण भया नाथजी गुरू जी को आदेश।

।।ज्योति जगाने का मन्त्र।।

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश।
ऊँ गुरूजी। जोत जोत महाजोत, सकल जोत जगाय, तूमको पूजे सकल संसार ज्योत माता ईश्वरी।
तू मेरी धर्म की माता मैं तेरा धर्म का पूत ऊँ ज्योति पुरूषाय विद्येह महाज्योति पुरूषाय धीमहि तन्नो ज्योति निरंजन प्रचोदयात्॥
अत: धूप प्रज्वलित करें।

।।रक्षा मन्त्र।।
ॐ सीस राखे साइंया श्रवण सिरजन हार ।
नैन राखे नरहरी नासा अपरग पार ।
मुख रक्षा माधवे कंठ रखा करतार।
हृदये हरी रक्षा करे नाभी त्रिभुवन सार ।
जंघा रक्षा जगदीश करे पिंडी पालनहार।
सीर रक्षा गोविन्द की पगतली परम उदार
आगे रखे राम जी पीछे रावण हार।
वाम दाहिणे राखिले कर गृही करतार ।
जम डंक लागे नाही विघन काल ते दूर।
राम रक्षा जन की करे बजे अनहद तुर ।
कलेजो रखे केसवा जिभ्या कू जगदीश ।
आतम कं अलख रखे जीव को जोतिश ।
राख रख सरनागति जीव को एके बार ।।
संतो की रक्षा करे शिव गुरु गोरख़ सत गुरु सृजनहार ।।
(इस मंत्र को 7 पढ़कर शरीर पे फूँक लगाए)

।।त्रिपुर सुंदरी षोडशी पूजन प्रारम्भ।।
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।।त्रिपुर सुंदरी ध्यान मंत्र।।

बालार्कायुंत तेजसं त्रिनयना रक्ताम्ब रोल्लासिनों।

नानालंक ति राजमानवपुशं बोलडुराट शेखराम्।।

हस्तैरिक्षुधनु: सृणिं सुमशरं पाशं मुदा विभृती।

श्रीचक्र स्थित सुंदरीं त्रिजगता माधारभूता स्मरेत्।।

।।त्रिपुर सुंदरी आसन मंत्र।।
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ॐ आसनं भास्वरं तुङ्गं मांगल्यं सर्वमंगले
भजस्व जगतां मातः प्रसीद जगदीश्वरी
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुन्दर्यै आसनं समर्पयामि

।।त्रिपुर सुंदरीआवाहन मंत्र।।
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ऊं त्रिपुर सुंदरी पार्वती देवी मम गृहे आगच्छ आवहयामि स्थापयामि।

।।त्रिपुर सुंदरी धूप मंत्रं।।
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ॐ गुग्गुलम घृत संयुक्तं नाना भक्ष्यैश्च संयुतम ।
दशांग ग्रसताम धूपम् त्रिपुरसुन्दर्यै देवि नमोस्तुते ।।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुन्दर्यै धूपं समर्पयामि

।।त्रिपुर सुंदरी दिप मंत्रं।।
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ॐ मार्तण्ड मंडळांतस्थ चन्द्र बिंबाग्नि तेजसाम्
निधानं देवि त्रिपुरसुन्दर्यै दीपोअयं निर्मितस्तव भक्तितः
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुन्दर्यै दीपं दर्शयामि )

।।पुष्प समर्पण ।।
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ॐ देवेशि भक्ति सुलभे परिवार समन्विते
यावत्तवां पूजयिष्यामि तावद्देवी स्थिरा भव

।।नमस्कार मंत्रं ।।
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शत्रुनाशकरे देवि ! सर्व सम्पत्करे शुभे
सर्व देवस्तुते ! त्रिपुरसुन्दर्यै ! त्वां नमाम्यहम

इसके बाद देवी को सुपारी में प्रतिष्ठित कर दें। इसे तिलक करें और धूप-दीप आदि पूजन सामग्रियों के साथ पंचोपचार विधि से पूजन पूर्ण करें अब कमल गट्टे की माला लेकर करीब 108 बार या संकल्पानुसार नीचे लिखे मंत्र का जप करें

षोडशी – त्रिपुर सुन्दरी मूल मंत्रं।।
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ऊं ह्रीं क ऐ ई ल ह्रीं ह स क ल ह्रीं स क ह ल ह्रीं।

।।क्षमाप्रार्थना ।।
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ॐ प्रार्थयामि महामाये यत्किञ्चित स्खलितम् मम
क्षम्यतां तज्जगन्मातः कालिके देवी नमोस्तुते
ॐ विधिहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं यदरचितम्
पुर्णम्भवतु तत्सर्वं त्वप्रसादान्महेश्वरी
शक्नुवन्ति न ते पूजां कर्तुं ब्रह्मदयः सुराः
अहं किं वा करिष्यामि मृत्युर्धर्मा नरोअल्पधिः
न जाने अहं स्वरुप ते न शरीरं न वा गुणान्
एकामेव ही जानामि भक्तिं त्वचर्णाबजयोः

जाप के अंत मे अपने हाथ मे पुष्प,अक्षत,जल ले कर अपने किये गए जाप पूजन को देवी के बाये हाथ मे संकल्प द्वारा प्रदान कर दंडवत प्रणाम करना चाहिए।

।।विसर्जन मंत्रं।।
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पूजकन के अंत में अपने हाथ में चावल,फूल लेकर देवी भगवतीत्रिपुर सुंदरी  का इस मंत्र को पढ़ कर  विसर्जन करना चाहिए-

गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठे स्वस्थानं परमेश्वरि त्रिपुर सुंदरी।पूजाराधनकाले च पुनरागमनाय च।।

षोडशी – त्रिपुर सुन्दरी साबर मंत्रं
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ॐ निरन्जन निराकार अवधू मूल द्वार में बन्ध लगाई पवन पलटे गगन समाई, ज्योति मध्ये ज्योत ले स्थिर हो भई ॐ मध्या: उत्पन्न भई उग्र त्रिपुरा सुन्दरी शक्ति आवो शिवघर बैठो, मन उनमन, बुध सिद्ध चित्त में भया नाद | तीनों एक त्रिपुर सुन्दरी भया प्रकाश | हाथ चाप शर धर एक हाथ अंकुश | त्रिनेत्रा अभय मुद्रा योग भोग की मोक्षदायिनी | इडा पिंगला सुषुम्ना देवी नागन जोगन त्रिपुर सुन्दरी | उग्र बाला, रुद्र बाला तीनों ब्रह्मपुरी में भया उजियाला |योगी के घर जोगन बाला, ब्रह्मा विष्णु शिव की माता |

श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौं ह्रीं श्रीं कं एईल
ह्रीं हंस कहल ह्रीं सकल ह्रीं सो:
ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं

।।श्री त्रिपुरसुन्दरी स्तोत्रम्।।
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कदंबवनचारिणीं मुनिकदम्बकादंविनीं,
नितंबजितभूधरां सुरनितंबिनीसेविताम् |
नवंबुरुहलोचनामभिनवांबुदश्यामलां,
त्रिलोचनकुटुम्बिनीं त्रिपुरसुंदरीमाश्रये ॥|1|

कदंबवनवासिनीं कनकवल्लकीधारिणीं,
महार्हमणिहारिणीं मुखसमुल्लसद्वारुणींम् |
दया विभव कारिणी विशद लोचनी चारिणी,
त्रिलोचन कुटुम्बिनी त्रिपुर सुंदरी माश्रये ॥|2|

कदंबवनशालया कुचभरोल्लसन्मालया,
कुचोपमितशैलया गुरुकृपालसद्वेलया |
मदारुणकपोलया मधुरगीतवाचालया ,
कयापि घननीलया कवचिता वयं लीलया ॥|3|

कदंबवनमध्यगां कनकमंडलोपस्थितां,
षडंबरुहवासिनीं सततसिद्धसौदामिनीम् |
विडंवितजपारुचिं विकचचंद्रचूडामणिं ,
त्रिलोचनकुटुंबिनीं त्रिपुरसुंदरीमाश्रये ॥|4|

कुचांचितविपंचिकां कुटिलकुंतलालंकृतां ,
कुशेशयनिवासिनीं कुटिलचित्तविद्वेषिणीम् |
मदारुणविलोचनां मनसिजारिसंमोहिनीं ,
मतंगमुनिकन्यकां मधुरभाषिणीमाश्रये ॥|5|

स्मरेत्प्रथमपुष्प्णीं रुधिरबिन्दुनीलांबरां,
गृहीतमधुपत्रिकां मधुविघूर्णनेत्रांचलाम्‌ |
घनस्तनभरोन्नतां गलितचूलिकां श्यामलां,
त्रिलोचनकुटंबिनीं त्रिपुरसुंदरीमाश्रये ॥|6|

सकुंकुमविलेपनामलकचुंबिकस्तूरिकां ,
समंदहसितेक्षणां सशरचापपाशांकुशाम् |
असेष जनमोहिनी मरूण माल्य भुषाम्बरा,
जपाकुशुम भाशुरां जपविधौ स्मराम्यम्बिकाम ॥|7|

पुरम्दरपुरंध्रिकां चिकुरबंधसैरंध्रिकां ,
पितामहपतिव्रतां पटुपटीरचर्चारताम्‌ |
मुकुंदरमणीं मणिलसदलंक्रियाकारिणीं,
भजामि भुवनांबिकां सुरवधूटिकाचेटिकाम् ॥|8|

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छंकराचार्य विरचितं त्रिपुरसुन्दरीस्तोत्रं संपूर्णम् ।

त्रिपुर सुंदरी साधना

क्या है तांत्रोत्क श्री-विद्या-साधना का रहस्य ? क्या है श्रीविद्या साधना प्रणाली?.
भोग, मोक्ष प्रदायिनी श्रीविद्या उपासना /साधना क्या है?-
03 FACTS;- 
1-श्रीविद्या-आत्मविद्या-आत्मसमर्पण;श्री’ अर्थात् देवी और विद्या 
अर्थात ज्ञान। सीधे-सादे शब्दों में यह देवी की उपासना है। एक ऐसा ज्ञान है जिसे जानने के पश्चात कुछ जानना शेष नहीं रह जाता। मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य आत्म बोध है। अपने निज स्वरूप से अनभिज्ञ मनुष्य स्वयं को असहाय महसूस करता है। कर्म बंधन में फंसा जीवन इसी आत्म बोध के लिए जन्म जन्मांतर तक भटकता रहता है। इसी आत्मबोध के तंत्र का नाम श्री विद्या है। यह शाक्त परंपरा की प्राचीन एवं सर्वोच्च प्रणाली है।
2-आदि काल से मनुष्य लौकिक और पारलौकिक सुखों के लिए विभिन्न देवी-देवताओ की उपासना करता आया है। ऐसा अक्सर पाया जाता है कि भौतिक सुखों में लिप्त जीवन जीते हुए मनुष्य आत्मिक सुख से वंचित रहता है, कुछ अधूरा सा अनुभव करता है। यह भी माना जाता है कि आत्मिक अनुभूति के लिए भौतिक सुखों का मोह छोड़ना पड़ता है। एक साधारण मनुष्य के लिए यह भी संभव नहीं है। ऐसे संदर्भ में श्री विद्या उपासना एक महत्वपूर्ण साधन है।
यह देवी (शक्ति) की तीन अभिव्यक्तियों पर आधारित है।
2-1- भोग, मोक्ष प्रदायिनी मां ललिता त्रिपुर सुंदरी का स्वरूप।
2-2- श्री यंत्र
2-3-पंचदशाक्षरी मंत्र
3-श्रीविद्या एक क्रमबद्ध, रहस्यमयी पद्धति है जिसमें ज्ञान, योग (प्राणायाम), भक्ति और देवी के पूजन-अर्चन का सुन्दर समावेश है।
महाशक्ति त्रिपुर सुंदरी कौन' है ?-
07 FACTS;- 
1-महाशक्ति त्रिपुरसुंदरी महादेव की स्वरूपा शक्ति हैं।इन्हीं के सहयोग
से शिव सृष्टि में सूक्ष्म से लेकर स्थूल रूपों में उपस्थित हैं। सामान्य मनुष्य के लिए कण-कण में भगवान उपस्थित हैं। 
2-जगद् गुरु शंकराचार्य कृत सौंदर्य लहरी के प्रथम श्लोक में यह भाव प्रत्यक्ष दिखाई देता है।
'' हे भगवती! जब शिव शक्ति से युक्त होते हैं तभी जगदुत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। यदि वे शक्ति से युक्त न हों तो सर्वथा हिलने या चलने में भी अशक्त रहते हैं।''
3-मां त्रिपुर सुंदरी की अलौकिक सुंदरता का वर्णन भी सौंदर्य लहरी में कई स्थानों (श्लोकों) में मिलता है। यूं तो मां शक्ति रूपा हैं, निराकार होकर भी सब में विद्यमान हैं, तो भी साधक के मन की एकाग्रता के लिए उनके स्थूल रूप का प्रयोजन है।
''शरदपूर्णिमा की चांदनी के समान शुभ्रवर्णा, द्वितीया के चंद्रमा से युक्त जटाजूट रूपी मकुटों वाली, अपने हाथों में वरमुद्रा, अभय मुद्रा, स्फटिक मणि की माला और पुस्तक धारण किए हुए आपको एक बार भी नमन करने वाले मनुष्य के मुख से मधु, क्षीर, द्राक्षा शर्करादि से भी मधुर अमृतमयी वाणी क्यों न झरेगी। ''
4- मां की चार भुजाओं में पाश, अंकुश, इक्षुधनु और पंच पुष्पबाणों का ध्यान किया जाता है। पाश अर्थात 36 तत्वों में प्रीति, अंकुश अर्थात क्रोध, द्वेष, इक्षुधनु - संकल्प-विकल्पात्मक क्रियारूप मन ही इक्षुधनु है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध पांच पुष्प बाण हैं।
5-पाश- इच्छाशक्ति, अंकुश-ज्ञान शक्ति तथा बाण और धनुष क्रियाशक्ति स्वरूप हैं। इन तीनों शक्तियों को अपने में धारण करती हैं मां त्रिपुर सुंदरी।
6-किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए मनुष्यं को उपरोक्त शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता है। प्रथम कार्य करने की इच्छा रखना, दूसरा ज्ञान (कार्य से संबंधित ज्ञान) और तीसरा कार्य को करना। स्पष्ट है कि इन तीनों के लिए आवश्यकता होती है मन की एकाग्रता की। मन की एकाग्रता प्रबल आत्मिक शक्ति और दृढ़ संकल्प के बिना असंभव है।
7-अर्थात् आत्मिक शक्ति ही मां त्रिपुरा हैं। अदम्य आत्मिक शक्ति का परिचय उपासक को सशक्त बनाता है और वह असंभव को संभव कर देता है। मां की उपासना मां का सीधा-सादा उपदेश है- स्वात्म शक्ति का ज्ञान क्योंकि यही पारसमणि है।
श्री यंत्र:- 
03 FACTS;- 
1-श्री विद्या उपासना चिह्न इसकी रचना जटिल है। यह एक बिंदु के चारों ओर अनेक त्रिकोणों का क्रमबद्ध समागम है। श्री चक्र मानव जीवन के अपने केंद्र ‘‘स्व’’ तक की यात्रा का प्रतीक है। बिंदु स्व का, आत्मशक्ति का- मां त्रिपुर सुंदरी का प्रतीक है। त्रिभुज आवरण हैं। श्री यंत्र की आराधना नव (9) आवरण आराधना कही जाती है। 
2-जैसे-जैसे आवरण हटते जाते हैं उपसक अपने ही करीब आता जाता है। अंत में सब आवरण हटते ही उपासक मां त्रिपुर सुंदरी (स्वआत्मिक शक्ति) में लीन हो जाता है। यह बाहर से भीतर की यात्रा कुंडलिनी जागरण से संबंध रखती है। आदि शक्ति मूलाधार चक्र में सर्पाकार रूप में सुप्त अवस्था में उपस्थित होती है। कुंडलिनी योग और प्राणायाम से जाग्रत हो षटचक्रों को भेदती हुई सहस्त्राशार में पहुंच जाती है। यहां उपस्थित शिव तत्व में लीन होकर उपासक को परमानंद की अनुभूति देती है।
3-सौंदर्य लहरी के अनुसार((9);-
'' हे भगवती! आप मूलाधार में पृथ्वीतत्व को, मणिपुर में जलतत्व को, स्वाधिष्ठान में अग्नितत्व को, हृदय में स्थित अनाहत में मरुतत्व को, विशुद्धि चक्र में आकाशतत्व को तथा भूचक्र में मनस्तत्व को इस प्रकार सारे चक्रों का भेदन कर सुषुम्ना मार्ग को भी छोड़कर सहस्त्रा पद्म में सर्वथा एकांत में अपने पति सदाशिव के साथ विहार करती हैं।''
पंचदशाक्षरी मंत्र:-
03 FACTS;- 
1-सौंदर्य लहरी के अनुसार(32)
क-शिवः, ए- शक्ति, ई-कामः, ल-क्षिति,
ह्रीं-ह्रल्लेखा,-ह,-रवि, स-सोम, क- रूमर, ह- हंस ल-शुक्रः हल्लेखा - हृीं, 
स-परा शक्ति, क-मारः ल-हरि, हल्लेखा-ह्रीं- 
इस प्रकार तीन कूटबीजों की सृष्टि होती है। हे भगवती ! आपके नामरूप ये तीन कूट हैं। इनका जप करने से साधक का अतिहित होता है। -
2-इस श्लोक में गुप्त रूप से पंचदशाक्षरी मंत्र का वर्णन है। इस मंत्र के तीन भाग हैं-
2-1- वाग्भव कूट अर्थात् वाहनि कुंडलिनी, 
2-2-कामराजकूट- सूर्य कुंडलिनी 
2-3-शक्ति कूट- सोम कुंडलिनी।
3-उपरोक्त सभी विधियां सामान्य मनुष्य के लिए कठिन प्रतीत होती हैं। किसी भी ज्ञान या विद्या का मूल्यांकन उसकी व्यवहारिकता से किया जाता है। यदि किसी विद्या का प्रयोग मनुष्य रोजमर्रा के जीवन में अपने विविध कार्य कलापों के लिए न कर सके तो उसका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। इसके लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने अपने ग्रंथ सौंदर्य लहरी में एक सरल विधि बतायी है ...
'' हे भगवती! आत्मार्पण दृष्टि से इस देह से जो कुछ भी बाह्यन्तर साधन किया हो, वह अपनी आराधना रूप मान लें और स्वीकार करें। मेरा बोलना आपके लिए मंत्र जप हो जाए, शिल्पादि बाह्य क्रिया मुद्रा प्रदर्शन हो जाए, देह की गति (चलना) आपकी प्रदक्षिणा हो जाए, देह का सोना (शयन) अष्टांग नमस्कार हो तथा दूसरे शारीरिक सुख या दुख भोग भी सर्वार्पण भाव में आप स्वीकार करें।''
4-स्पष्ट है कि यह अत्यंत सरल मार्ग है। आत्म समर्पण भाव से यदि श्री विद्या उपासना की जाए तो शीघ्र ही मां त्रिपुरा उपासक के जीवन का संचालन स्वयं करती हैं। उपासक सुख, समृद्धि सफलता तो पाता ही है, सत् चित आनंद भी उसके लिए सुलभ और सहज हो जाते हैं अर्थात् भौतिक और आत्मिक सुख दोनों प्राप्त हो जाते हैं। यही भोग, मोक्ष प्रदायिनी मां की अपने भक्तों से प्रतिज्ञा है।
श्रीविद्या साधना चतुर्विध पुरुषार्थ क्या है?- 
09 FACTS;- 
1-यह तो सर्व विदित है कि श्रीविद्या साधना चतुर्विध पुरुषार्थ अर्थात धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्रदायिनी एक मात्र साधना है ! लोक लोकान्तर व मत मतान्तर में इस साधना को लेकर बहुत अधिक भ्रम भी व्याप्त हैं ! किन्तु श्रीविद्या के मूलतः चार कुल हैं, और प्रत्येक कुल एक समान ही फलदायी भी है, केवल प्रत्येक कुल की साधना में साधना विधान व भाव का भेद होता है !
2-श्रीविद्या के प्रत्येक कुल में चार-चार महाविद्याओं का समूह होता है व प्रत्येक समूह में एक बालरुपा (धर्म की अधिष्ठात्री), एक तरुण रूपा (अर्थ की अधिष्ठात्री), एक प्रौढ़ा रूपा (काम की अधिष्ठात्री) व एक वृद्धा रूपा (निवृत्ति/मोक्ष की अधिष्ठात्री) महाविद्या शक्ति होती हैं !
3- यह मूलविद्या अपने साधक को फल भी इसी क्रम से ही प्रदान करती है तब जाकर श्रीविद्या साधना से चतुर्विध पुरुषार्थ की पूर्ण प्राप्ति होती है ! ओर चार-चार महाविद्याओं का समूह होने के कारण ही इस समूह को श्रीविद्या कहा जाता है ! यथा :-
______________ श्रीकुल 
धर्म – बाल रूप –श्रीबाला त्रिपुर-सुन्दरी _______________ _______________ 
अर्थ – तरुण रूप – त्रिपुरसुन्दरी 
काम – प्रौढ़ा रूप – राजराजेश्वरी 
मोक्ष – वृद्धा रूप – ललिताम्बा 
4-श्रीविद्या की दीक्षा के बाद साधना करते हुए सन्यासी व गृहस्थ साधक को प्रथम पुरुषार्थ धर्म की अधिष्ठात्री बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने नियन्त्रण व धर्म में स्थित करती है, इसके लिए वह अपने साधक के धर्म विरुद्ध सभी कर्मों व अवस्थाओं को अवरुद्ध कर देती है, ताकि वह अपने साधक के लिए नीति, न्याय व धर्म से परिपूर्ण स्वच्छ व स्वस्थ कर्मों, आय व अवस्थाओं का पुनर्निर्माण कर सके ! इसी मध्य पराम्बा अपने साधक के मन मस्तिष्क को ऐसी ऊर्जा से भर देती है कि वह साधक केवल धर्म का ही अनुसरण करता है !
5-तदुपरांत साधक के पुर्णतः धर्मनिष्ठ हो जाने पर बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने साधक को द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की अधिष्ठात्री तरुणीरूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की महाविद्या शक्ति अपने साधक के लिए नीति, न्याय व धर्म से परिपूर्ण स्वच्छ व स्वस्थ कर्मों, आय व अवस्थाओं का पुनर्निर्माण कर अपने साधक को धर्म के अधीन ही अर्थोपार्जन के अनेक मार्ग बनाकर सन्यासी को पूर्ण तृप्ति व गृहस्थ साधक को असीमित अन्न, धन से परिपूर्ण कर तृतीय पुरुषार्थ काम की प्रौढ़रूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित कर देती है !
6-फिर तृतीय पुरुषार्थ काम की अधिष्ठात्री प्रौढ़ा रूपा महाविद्या शक्ति अपने साधक को धर्म व अर्थ से परिपूर्ण रखते हुए सन्यासी को इन्द्रिय, तत्व व अवस्थाओं पर नियन्त्रण तथा गृहस्थ को भौतिक शासन सत्ता सहित असीमित सुख भोगों को प्रदान कर चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष की वृद्धारूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित कर देती है ! 
7-जहाँ वह मोक्ष की अधिष्ठात्री वृद्धा रूपा महाविद्या शक्ति अपने सन्यासी व गृहस्थ साधक को सदैव के लिए स्वयं में समाहित कर लेती है, इसमें भी गृहस्थ को यह सौभाग्य मृत्यु के समय और सन्यासी को जीवित रहते हुए ही प्राप्त हो जाता है !
8- इस गहन विद्या का निम्नलिखित दोनों में से किसी भी एक मार्ग से साधना पूर्ण कर चुका साधक ;इसके बाद अन्य भौतिक साधनाओं को नहीं करता है, क्योंकि इसके बाद अन्य साधनाओं की उसको न तो कोई आवश्यकता ही रह जाती है, और न ही वह साधनाएं उस साधक को किसी प्रकार से प्रभावित कर पाती हैं ! अर्थात मारण, मोहन, वशीकरण, तुष्टि, पुष्टि, शान्ति आदि षट्कर्म मोक्षाभिलाषी व श्रीविद्या उपासक के लिए नहीं होते हैं, और यह षट्कर्म श्रीविद्या उपासक को प्रभावित भी नहीं कर पाते हैं ! 
9-यह षट्कर्म करना तो उन लोगों का कार्य होता है जिनको यह षट्कर्म करके इन कर्मों के परिणामों को अनेक योनि व सुख दुःख के रूप में भोगने के लिए यहीं पर जीवन मृत्यु के चक्र के मध्य ही अनन्त काल तक घूमते रहना होता है !
1-"त्रिपुरा शब्द का महत्व ";-
07 FACTS;-
1-बाला, बाला-त्रिपुरा, त्रिपुरा-बाला, बाला-सुंदरी, बाला-त्रिपुर-सुंदरी, पिण्डी-भूता त्रिपुरा, काम-त्रिपुरा, त्रिपुर-भैरवी, वाक-त्रिपुरा, महा-लक्ष्मी-त्रिपुरा, बाला-भैरवी, श्रीललिता राजराजेश्वरी, षोडशी, श्रीललिता महा-त्रिपुरा-सुंदरी, के अन्य भेद सभी श्री श्री विद्या के नाम से पुकारे जाते है | इन सभी विद्या की उपासना ऊधर्वाम्नाय से होती है |
2-बाला, बाला-त्रिपुरा और बाला-त्रिपुर-सुंदरी नामों से एक ही महा विद्या को सम्बोधित किया जाता है | किसी भी नाम से उपासना की जाये, उपासना तो जगन्माता की ही की जाती है | नारदीय संहिता मे लिखा है कि -'वेद, धर्म-शास्त्र, पुराण, पञ्चरात्र आदि शास्त्रों मे एक 'परमेश्वरी' का वर्णन है, नाम चाहे भिन्न भिन्न हो|
3-किन्तु महा शक्ति एक ही है | कहीं मन्त्रोध्दार भेद से, कहीं आसन भेद से, कहीं सम्प्रदाय भेद से, कहीं पूजा भेद से, कहीं स्वरूप भेद से, कहीं ध्यान भेद से, "त्रिपुरा' के बहुत प्रकार है | कहीं त्रिपुरा भैरवी, कहीं त्रिपुरा ललिता, कहीं त्रिपुर सुंदरी, कहीं इन नामों से पृथक, कहीं मात्र त्रिपुरा या बाला ही कही जाती है |
4-त्रिपुरा अर्थात तीन पुरों की अधीश्वरी | तीन पुरियों में जाने के मार्ग भी तीन है | " मुक्ति' के पञ्च प्रकार १. सालोक्य २. सामीप्य ३.सारूप्य ४.सायुज्य और ५. कैवल्य है | 
5-इनमे से सालोक्य का एक मार्ग है और कैवल्य का एक | शेष तीन सायुज्य, सारुप्य, और सामीप्य का एक अलग मार्ग है | इस प्रकार कुल तीन मार्ग हुए | त्रिविध मार्ग होने से पुरियां भी तीन है | तीन पुरियों की प्राप्ति अभीष्ट होने से पर-देवता को त्रिपुरा (त्रिपुर सुंदरी ) कहा गया है |
त्रिमूर्ति ( ब्रम्हा ,विष्णु , महेश्वर )की सृष्टि से पूर्व जो विधमान थी तथा जो वेद त्रयी ( ऋग ,यजु ,साम-वेद )से पूर्व विद्यमान थी एवं त्रि-लोकों (स्वर्ग ,पृथ्वी ,पाताल )के लय होने पर भी पुन: उनको ज्यो का त्यों बना देने वाली भगवती के नाम त्रिपुरा है |
6-विश्व भर मे तीन-तीन वस्तुओं के जितने भी समुदाय है वे सब भगवती बाला त्रिपुर सुंदरी के त्रिपुरा नाम में समाविष्ट है | अर्थात संसार में त्रि-संख्यात्मक जो कुछ है वे सभी वस्तुएं त्रिपुरा के तीन अक्षरों वाले नाम से ही उत्पन्न हुई है | 
7-त्रि-संख्यात्मक वस्तुओं में कतिपय त्रि-वर्गात्मक वस्तुओं के नाम भी है जैसे..
12 POINTS;-
1-तीन देवता ;-
ब्रह्मा , विष्णु, महेश 
2-तीन गुरु ;- 
गुरु ,परम गुरु ,परमेष्ठी गुरु 
3-तीन अग्नि ;-
गाहर्पत्य ,दक्षिनाग्नि ,आहवनीय अग्नि या ज्योति,
4-तीन ज्योतियां ;-
ह्रदय-ज्योति ,ललाट-ज्योति , शिरो-ज्योति
5-तीन शक्ति;-
इच्छा शक्ति , ज्ञान शक्ति , क्रिया शक्ति
6-शक्ति से तीन देवियों का भी बोध होता है ;-
ब्रह्माणी ,वैष्णवी ,रुद्राणी 
7-तीन स्वर ;-
उदात्त ,अनुदात्त , त्वरित अर्थात 
8-तीन चक्र;-
आज्ञा , शीर्ष ,ब्रह्म-ज्ञान |
9-त्रि-पदी ( तीन स्थान );-
जालन्धर-पीठ , काम-रूप-पीठ ,उड्डियान-पीठ 
10-तीन नाद ;-
गगनानंद २. परमानन्द ३. कमलानन्द 
11-त्रि-पुष्कर ( तीन तीर्थ ) ;-
शिर २. ह्रदय ३. नाभि अथवा ज्येष्ठ पुष्कर ,मध्यम पुष्कर ,कनिष्ठ पुष्कर |
12-त्रि-ब्रह्म ( तीन ब्रह्म );-
इड़ा , पिंगला ,सुषुम्ना अर्थात (अतीत ,अनागत ,वर्तमान )जैसे ह्रदय ,व्योम ,ब्रह्म-रंध्र | 
2-बाला शब्द का महत्व :- 
09 FACTS;- 
1-जो अपने पुत्रों को तथा संसार को बल प्रदान करती है उसे बाला कहते है | सीधे-सादे अर्थ में यह समझना चाहियें की जो संसार के प्राणियों को बल प्रदान करती है वह "बाला" है बाला वही है जो हमारें समस्त अंगों को बल प्रदान करती है | नख से शिखा तक, रक्त से ओज तक, बुद्धि से बल तक जो प्राणी को बल प्रदान करती है वह शक्ति-मति अवश्य है , जिसके बिना प्राणी अपने को निस्सहाय समझता है |
2- " बाला " अर्थात सर्व-शक्ति संपन्न, आदि माता | बाला का काम ही वृद्धि करना है | वह मानव या किसी प्राणी-विशेष को ही बल प्रदान करती हो, ऐसा नहीं- आदि-युग से ही यह जगन्माता इस संसार को बढाती चली आ रही है | आदि माता द्वारा निर्मित सृष्टि को जननी से मिला रही है | बल-वर्धिनी माता की अद्बुत शक्ति से जो परिचित हो गया, उसका जन्म तो सफल हो ही जाता है, उसके सामने त्रिभुवन की सम्पति भी तृण के सामान तुच्छ हो जाती है, क्योंकि जिस पुत्र पर माता-पिता का स्नेह हाथ फिर जाता है वह धन्य हो जाता है |
3- "बाला' ( बल-वर्धिनी ) का सेवक कभी निर्बल नहीं रह सकता और विश्वासी पर किसकी दया नहीं होती | बाला पहले अपने पुत्र को बल देती है और फिर बुद्धि | इन सब की प्राप्ति तभी होगी, जब संसार के लोग माता बाला की शरण में आयेंगें |
4- विश्वात्मिका शक्ति " श्री बाला ".. शिव और शक्ति- तत्व सृष्टी के 
आदि कारण है, वे जब ही कल्पना करते है , तभी सृष्टी होने लगती है | महा प्रलय के बाद जब "एकोहम बहु स्याम प्रजाये" की कल्पना होती है, तभी शक्ति-तत्व-शिव-तत्व से अलग होता है |
5-उसके पहले वे एक ही रहते है | उस एक रहने का नाम नाद है अर्थात सृष्टी की कल्पना होने के समय निष्क्रिय शिव और सक्रिय शक्ति की जो विपरीत रति होती है उसे ही नाद कहते है और इसी विपरीत रति द्वारा बिन्दु की उत्पति होती है | 
6-शक्ति जब निष्कल शिव से युक्त होती है, तब वे चिद-रूपिणी और विश्वोत्तीर्णा अर्थात विश्व के बाहर रहती है और जब वे सकल शिव के साथ होती है तब वे विश्वात्मिका होती है | परा शक्ति वे है, जो चैतन्य के साथ विश्रमावस्था में रहती है | इनको ही कादी-विद्या में "महा-काली" कहा जाता है और हादी विद्या में "महा-त्रिपुर-सुंदरी" |
7-नाद से जो बिन्दु उत्पन्न होता है वही श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी है अर्थात महा-त्रिपुर-सुंदरी नाद है और श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी बिन्दु है | जो शक्ति विश्वोत्तीर्णा है, वही महा-त्रिपुर-सुंदरी है और जो विश्वात्मिका है वे ही श्रीबाला है |
8-दुसरे प्रकार से विचार करे तो उपनिषद के अनुसार जाग्रत, स्वप्न और सुशुप्ताभिमानी विश्व "तैजस और प्राज्ञ पुरुष है | इन त्रि-मात्राओं के दर्शन से पता चलता है कि शक्ति ही जगत-रूप में अभिव्यक्त है | वाक्य द्वारा इसका वर्णन नहीं किया जा सकता | अत: यह सिद्धांत निकलता है की नाद को बिन्दु में युक्त करना चाहिए | 
9-उक्त व्याख्या से स्पष्ट है की महा-त्रिपुर-सुंदरी से श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी को युक्त समझना आवश्यक है | वास्तव में नामान्तर से दो भेद "शक्ति" के प्रतीत होते है, जो वस्तुतः एक ही है, कोई भेद नहीं है | जो नाद है वही बिन्दु है | जो महा-त्रिपुर-सुंदरी है वही श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी है |
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महात्रिपुर सुन्दरी साधना(‘पञ्च-दशी’ )का महत्व ;-‘ 
12 FACTS;- 
1-सोलह कला,श्री जो प्रदान करे वही षोडशी है। ये ऐश्वर्य,धन,पद जो भी चाहिए सभी कुछ प्रदान कर देती है।इनके श्री चक्र को श्रीयंत्र भी कहा जाता है।इनकी साधना से भक्त जो इच्छा करेगा,वह पा ही लेगा।ये त्रिपुरा समस्त भुवन मे सबसे अधिक सुन्दर है।इन्हे जो एक बार देख ले तो दूसरी कोई भी रुप देखने की रुची नही रहती।
2-इनकी पलक कभी नही गिरती है,ये जीव को शिव बना देती है।अभाव क्या है,कर्म क्या है,इनके भक्त क्या जाने,भक्त जैसी भी इच्छा करते है,वह सभी उन्हे प्राप्त हो जाता है।ये सभी की अधिश्वरी है।श्याम वर्ण मे काली कामाख्या है,वही गौर वर्ण मे राज राजेश्वरी है।सौन्दर्य रुप,श्रृंगार,विलास,स्वास्थ्य सभी कुछ इनके कृपा मात्र से प्राप्त होता है।
3-‘श्री षोडशी’ या ‘महा-त्रिपुर-सुन्दरी’ का मुख्य मन्त्र सोलह अक्षरों का है, उसी के अनुरुप उनका नाम है । पूजा यन्त्र ‘श्रीललिता’ – जैसा ही है ।
‘श्री ललिता’ एवं श्री ‘षोडशी’ के मन्त्रों में तीन ‘कूटों’ का समावेश है, जो क्रमशः ‘वाक्-कूट’, काम-कूट’ तथा ‘शक्ति-कूट’ नामों से प्रसिद्ध हैं । यहाँ ज्ञातव्य है कि पञ्चदशी के कूट-त्रय ‘क’, ‘ह′ या ‘स’ से प्रारम्भ होते हैं । अतः विभिन्न ‘कादि’, ‘हादि’ और ‘सादि’ – विद्या नाम से जाने जाते हैं ।
4-भगवती षोडशी से सम्बन्धित पूजा-यन्त्र ‘श्री-चक्र’ या ‘श्री-यन्त्र’ की विशेष ख्याति है । इस तरह का जटिल पूजा-यन्त्र अन्य किसी देवता का नहीं है । वह पिण्ड और ब्रह्माण्ड के समस्त रहस्यों का बोधक है । इसी से उसे ‘यन्त्र-राज’ या ‘चक्र-राज’ भी कहते हैं ।
5-महात्रिपुर सुन्दरी श्री कुल की विद्या है। महाविद्या समुदाय में त्रिपुरा नाम की अनेक देवियां हैं, जिनमें त्रिपुरा-भैरवी, त्रिपुरा और त्रिपुर सुंदरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। देवी त्रिपुरसुंदरी ब्रह्मस्वरूपा हैं, भुवनेश्वरी विश्वमोहिनी हैं। ये श्रीविद्या, षोडशी, ललिता, राज-राजेश्वरी, बाला पंचदशी अनेक नामों से जानी जाती हैं। त्रिपुरसुंदरी का शक्ति-संप्रदाय में असाधारण महत्त्व है। महात्रिपुर सुन्दरी देवी माहेश्वरी शाक्ति की सबसे मनोहर श्री विग्रह वाली सिद्घ देवी हैं।
6-श्री श्रीविद्या’ का मुख्य मन्त्र पन्द्रह अक्षरों का होने से उनका नामान्तर ‘पञ्च-दशी’ भी है । इनका पूजा-यन्त्र ‘श्री-चक्र’ या ‘श्री-यन्त्र’ नाम से प्रसिद्ध 
है ।ये श्री कुल की विद्या है,इनकी पूजा गुरु मार्ग से की जाती है।ये साधक को पूर्ण समर्थ बनाती है,आकर्षण,वशित्व,कवित्व,भौतिक सुख सभी को देने वाली है।इनकी साधना से सभी भोग भोगते हुये मोक्ष की प्राप्ती होती है।ये परम करुणामयी जीव को उस स्वरुप को प्रकट करती है तो जीव शिव बन अपना स्वरुप देखता है की वह तो मै ही हूँ।ॐ तत्सत् इस रहस्य से परिचित होता है।
7-इनकी पूजा मे श्री बाला त्रिपुरसुन्दरी की भी पूजा की जाती है।इनकी साधना से साधक का कुन्डलिनी शक्ति खुल जाती है।ये श्री माँ है,सारे अभावो को दूर कर भक्त को धन,यश के साथ दिव्यदृष्टि प्रदान करती है।ये चार पायों से युक्त जिनके नीचे ब्रह्मा,विष्णु,रुद्र,ईश्वर पाया बन जिस सिंहासन को अपने मस्तक पर विराजमान किये है उसके ऊपर सदा शिव लेटे हुये है और उनके नाभी से एक कमल जो खिलता हुआ,उसपर ये त्रिपुरा विराजमान है।
8-सैकड़ों पूर्वजन्म के पुण्य प्रभाव और गुरु कृपा से इनका मंत्र मिल पाता है।किसी भी ग्रह,दोष,या कोई भी अशुभ प्रभाव इनके भक्त पर नही हो पाता।श्रीयंत्र की पूजन सभी के वश की बात नही है।किसी भी महाविद्या की साधना मे गुरु शिव,,गणेश,भैरव की पूजा अनिवार्य होती है।
9-इनकी महिमा अवर्णनीय है। संसार के समस्त तंत्र-मंत्र इनकी आराधना करते हैं। प्रसन्न होने पर ये भक्तों को अमूल्य निधियां प्रदान कर देती हैं। चार दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें तंत्र शास्त्रों में ‘पंचवक्त्र’ अर्थात् पांच मुखों वाली कहा गया है। आप सोलह कलाओं से परिपूर्ण हैं, इसलिए इनका नाम ‘षोडशी’ भी है।
10-कलिका पुराण के अनुसार एक बार पार्वती जी ने भगवान शंकर से पूछा, ‘भगवन! आपके द्वारा वर्णित तंत्र शास्त्र की साधना से जीव के आधि-व्याधि, शोक संताप, दीनता-हीनता तो दूर हो जाएगी, किन्तु गर्भवास और मरण के असह्य दुख की निवृत्ति और मोक्ष पद की प्राप्ति का कोई सरल उपाय बताइए।’
11-तब पार्वती जी के अनुरोध पर भगवान शंकर ने त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या साधना-प्रणाली को प्रकट किया। "भैरवयामल और शक्तिलहरी" में त्रिपुर सुन्दरी उपासना का विस्तृत वर्णन मिलता है। ऋषि दुर्वासा आपके परम आराधक थे। इनकी उपासना "श्री चक्र" में होती है। 
12-आदिगुरू शंकरचार्य ने भी अपने ग्रन्थ सौन्दर्यलहरी में त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या की बड़ी सरस स्तुति की है। कहा जाता है भगवती त्रिपुर सुन्दरी के आशीर्वाद से साधक को भोग और मोक्ष दोनों सहज उपलब्ध हो जाते हैं।

देवी श्री विद्या त्रिपुरसुन्दरी के स्वरूप का वर्णन ;-
04 FACTS;- 
1-महाविद्याओं में तीसरे स्थान पर विद्यमान महा शक्ति त्रिपुरसुंदरी, तीनों लोकों में सोलह वर्षीय युवती स्वरूप में सर्वाधिक मनोहर तथा सुन्दर रूप से सुशोभित हैं। देवी का शारीरिक वर्ण हजारों उदीयमान सूर्य के कांति कि भाँति है, देवी की चार भुजा तथा तीन नेत्र (त्रि-नेत्रा) हैं। अचेत पड़े हुए सदाशिव के नाभि से उद्भूत कमल के आसन पर देवी विराजमान है। देवी अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, धनुष तथा बाण से सुशोभित है।
2- देवी पंचवक्त्र है अर्थात देवी के पांच मस्तक या मुख है, चारों दिशाओं में चार तथा ऊपर की ओर एक मुख हैं। देवी के मस्तक तत्पुरुष, सद्ध्योजात, वामदेव, अघोर तथा ईशान नमक पांच शिव स्वरूपों के प्रतीक हैं क्रमशः हरा, लाल, धूम्र, नील तथा पीत वर्ण वाली हैं।
3- देवी दस भुजा वाली हैं तथा अभय, वज्र, शूल, पाश, खड़ग, अंकुश, टंक, नाग तथा अग्नि धारण की हुई हैं। देवी अनेक प्रकार के अमूल्य रत्नों से युक्त आभूषणों से सुशोभित हैं तथा देवी ने अपने मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण कर रखा हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा यम देवी के आसन को अपने मस्तक पर धारण करते हैं।
4-देवी काली की समान ही देवी त्रिपुरसुंदरी चेतना से सम्बंधित हैं। देवी त्रिपुरा, ब्रह्मा, शिव, रुद्र तथा विष्णु के शव पर आरूढ़ हैं, तात्पर्य, चेतना रहित देवताओं के देह पर देवी चेतना रूप से विराजमान हैं तथा ब्रह्मा, शिव, विष्णु, लक्ष्मी तथा सरस्वती द्वारा पूजिता हैं। कुछ शास्त्रों के अनुसार, देवी कमल के आसन पर भी विराजमान हैं, जो अचेत शिव के नाभि से निकलती हैं शिव, ब्रह्मा, विष्णु तथा यम, चेतना रहित शिव सहित देवी को अपने मस्तक पर धारण किये हुए हैं।
आदि देवी की उपासना-पीठ ;- 
04 FACTS;- 
1-यंत्रों में श्रेष्ठ श्री यन्त्र या श्री चक्र, साक्षात् देवी त्रिपुरा का ही स्वरूप हैं तथा श्री विद्या या श्री संप्रदाय, पंथ या कुल का निर्माण करती हैं। देवी त्रिपुरा आदि शक्ति हैं, कश्मीर, दक्षिण भारत तथा बंगाल में आदि काल से ही, श्री संप्रदाय विद्यमान हैं तथा देवी आराधना की जाती हैं, विशेषकर दक्षिण भारत में देवी श्री विद्या नाम से विख्यात हैं।
2- मदुरै में विद्यमान मीनाक्षी मंदिर, कांचीपुरम में विद्यमान कामाक्षी मंदिर, दक्षिण भारत में हैं तथा यहाँ देवी श्री विद्या के रूप में पूजिता हैं। वाराणसी में विद्यमान राजराजेश्वरी मंदिर, देवी श्री विद्या से ही सम्बंधित हैं तथा आकर्षण सम्बंधित विद्याओं की प्राप्ति हेतु प्रसिद्ध हैं।
3-देवी की उपासना श्री चक्र में होती है, श्री चक्र से सम्बंधित मुख्य शक्ति देवी त्रिपुरसुंदरी ही हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध गुप्त अथवा परा शक्तियों, विद्याओं से हैं; तन्त्र की ये अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। तंत्र में वर्णित मरण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन इत्यादि प्रयोगों की देवी अधिष्ठात्री है। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध गुप्त अथवा परा शक्तियों, विद्याओं से हैं, तन्त्र की ये अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। समस्त प्रकार के तांत्रिक कर्म देवी की कृपा के बिना सफल नहीं होते हैं।
4-योनि-पीठ कामाख्या;-
आदि काल से ही देवी के योनि-पीठ कामाख्या में, समस्त तंत्र साधनाओं का विशेष विधान हैं। देवी आज भी वर्ष में एक बार देवी ऋतु वत्सल होती है जो ३ दिन का होता है, इस काल में असंख्य भक्त तथा साधु, सन्यासी देवी कृपा प्राप्त करने हेतु कामाख्या धाम आते हैं। देवी कि रक्त वस्त्र जो ऋतुस्रव के पश्चात प्राप्त होता है, प्रसाद के रूप में प्राप्त कर उसे अपनी सुरक्षा हेतु अपने पास रखते हैं।
श्री कुल की अधिष्ठात्री देवी ; -
13 FACTS;- 
1-देवी त्रिपुरा या त्रिपुरसुंदरी, श्री यंत्र तथा श्री मंत्र के स्वरूप से समरसता रखती हैं, जो यंत्र-मंत्रो में सर्वश्रेष्ठ पद पर आसीन हैं, यन्त्र शिरोमणि हैं, देवी साक्षात् श्री चक्र रूप में यन्त्र के केंद्र में विद्यमान हैं। श्री विद्या के नाम से देवी एक अलग संप्रदाय का भी निर्माण करती हैं, जो श्री कुल के नाम से विख्यात हैं तथा देवी, श्री कुल की अधिष्ठात्री हैं। 
2-देवी श्री विद्या, स्थूल, सूक्ष्म तथा परा, तीनों रूपों में 'श्री चक्र' में विद्यमान हैं, चक्र स्वरूपी देवी त्रिपुरा श्री यन्त्र के केंद्र में निवास करती हैं, चक्र ही देवी का आराधना स्थल हैं तथा चक्र के रूप में देवी की पूजा आराधना होती हैं। श्री यन्त्र, सर्व प्रकार के कामनाओं को पूर्ण करने की क्षमता रखती हैं, इसे त्रैलोक्य मोहन यन्त्र भी कहाँ जाता हैं। श्री यन्त्र को महा मेरु, नव चक्र के नाम से भी जाना जाता हैं।
3-यह यन्त्र देवी लक्ष्मी से भी समरसता रखती हैं, देवी धन, सौभाग्य, संपत्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं, उनकी आराधना श्री यन्त्र के मध्य में होती हैं। सामान्यतः धन तथा सौभाग्य की दात्री होने के कारण, श्री चक्र में देवी की आराधना, पूजा होती हैं। सामान्य लोगों के पूजा घरों के साथ कुछ विशेष मंदिरों में देवी, इसी श्री चक्र के रूप में ही पूजिता हैं। 
4-कामाक्षी मंदिर, कांचीपुरम, तमिलनाडु, अम्बाजी मंदिर, गब्बर पर्वत, गुजरात (सती पीठों), देवी की पूजा श्री चक्र के रूप में ही होती हैं। शास्त्रों में यंत्रों को देवताओं का स्थूल देह माना गया हैं, श्री यन्त्र की मान्यता सर्वप्रथम यन्त्र होने से भी हैं, यह सर्व-रक्षा कारक, सौभाग्य और सर्व सिद्धि दायक तथा सर्व-विघ्न नाशक हैं। निर्धनता तथा ऋण से मुक्ति हेतु, श्री यन्त्र की स्थापना तथा पूजा अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, श्री यन्त्र के स्थापना मात्र से लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती हैं।
5-श्री यंत्र के मध्य या केन्द्र या में एक बिंदु है, इस बिंदु के चारों ओर 9 अंतर्ग्रथित त्रिभुज हैं जो 9 शक्तिओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। 
1- बिंदु,
2-त्रिकोण,
3-अष्टकोण, 
4-दशकोण, 
5-बहिर्दर्शरा, 
6-चतुर्दर्शारा, 
7- अष्ट दल, 
8- षोडश दल, 
9- वृत्तत्रय, 
10- भूपुर से 
6-भूपुर से श्री यन्त्र का निर्माण हुआ हैं,9 त्रिभुजों के अन्त ग्रथित होने से कुल 43 लघु त्रिभुज बनते हैं तथा अपने अंदर समस्त प्रकार के अलौकिक तथा दिव्य शक्ति समाये हुए हैं। 98 शक्तिओं की आराधना श्री चक्र में की जाती हैं तथा समस्त शक्तियां सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नियंत्रण तथा सञ्चालन करती हैं।
7-कामेश्वरी की स्वारसिक समरसता को प्राप्त परा-तत्व ही महा त्रिपुरसुंदरी के रूप में विराजमान हैं तथा यही सर्वानन्दमयी, सकलाधिष्ठान ( सर्व स्थान में व्याप्त ) देवी ललिताम्बिका हैं। देवी में सभी वेदांतो का तात्पर्य-अर्थ समाहित हैं तथा चराचर जगत के समस्त कार्य इन्हीं देवी में प्रतिष्ठित हैं।
8- देवी में न शिव की प्रधानता हैं और न ही शक्ति की, अपितु शिव तथा शक्ति ('अर्धनारीश्वर') दोनों की समानता हैं। समस्त तत्वों के रूप में विद्यमान होते हुए भी, देवी सबसे अतीत हैं, परिणामस्वरूप इन्हें ‘तात्वातीत’ कहा जाता हैं, देवी जगत के प्रत्येक तत्व में व्याप्त भी हैं और पृथक भी हैं, परिणामस्वरूप इन्हें ‘विश्वोत्तीर्ण’ भी कहा जाता हैं। 
9-देवी ही परा ( जिसे हम देख नहीं सकते ) विद्या भी कही गई हैं, ये दृश्यमान प्रपंच इनका केवल उन्मेष मात्र हैं , देवी चर तथा अचर दोनों तत्वों के निर्माण करने में समर्थ हैं तथा निर्गुण तथा सगुण दोनों रूप में अवस्थित हैं। ऐसे ही परा शक्ति, नाम रहित होते हुए भी अपने साधकों पर कृपा कर, सगुण रूप धारण करती हैं।
10-देवी विविध रूपों में अवतरित हो विश्व का कल्याण करती हैं तथा श्री विद्या के नाम से विख्यात हैं। देवी ब्रह्माण्ड की नायिका हैं तथा विभिन्न प्रकार के असंख्य देवताओं, गन्धर्वो, राक्षसों इत्यादि द्वारा सेवित तथा वंदिता हैं। 
11-देवी त्रिपुरा, चैतान्य-रुपा चिद शक्ति तथा चैतन्य ब्रह्म हैं। भंडासुर की संहारिका, त्रिपुरसुंदरी, सागर के मध्य में स्थित मणिद्वीप का निर्माण कर चित्कला के रूप में विद्यमान हैं। तदनंतर, तत्वानुसार अपने त्रिविध रूप को व्यक्त करती हैं, 
1-आत्म-तत्व 
2-विद्या-तत्व 
3- शिव-तत्व
12-इन्हीं तत्व-त्रय के कारण ही देवी शाम्भवी ,श्यामा तथा विद्या के रूप में त्रिविधता प्राप्त करती हैं। इन तीनों शक्तिओं के पति या भैरव क्रमशः परमशिव, सदाशिव तथा रुद्र हैं।
13-देवी त्रिपुरसुन्दरी के पूर्व भाग में श्यामा और उत्तर भाग में शाम्भवी विराजित हैं तथा इन्हीं तीन विद्याओं के द्वारा अन्य अनेक विद्याओं का प्राकट्य या प्रादुर्भाव हुआ हैं तथा श्री विद्या परिवार का निर्माण करती हैं। भक्तों को अनुग्रहीत करने की इच्छा से, भंडासुर का वध करने के निमित्त एक होना महाशक्ति का वैविध्य हैं।
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साधना के प्रकार;- 
09 FACTS;- 
यह साधना मुख्यतः दो प्रकार से की जाती है :-
प्रथम प्रकार में (दीक्षा लेकर):- 
03 POINTS;-
1-श्रीविद्या पूर्णाभिषेक दीक्षा लेकर साधना संपन्न की जाती है, जिसका प्रथम चरण पूर्ण होने के बाद शेष तीन चरणों के लिए साधक स्वतन्त्र हो जाता है, और केवल कर्ता व दृष्टा मात्र होता है, क्योंकि प्रथम पद धर्म में स्थित होने के बाद के तीनों चरणों में पराम्बा द्वारा अपने साधक को स्वयं में लीन कर लेने तक की क्रिया को पराम्बा अपने साधक से स्वयं ही संपन्न कराती है, और इसी मध्य पराम्बा अपने साधक के सभी कर्मों को भी आंशिक रूप में भोगवाकर कर्मों के बंधन से निवृत कर देती है, क्योंकि मोक्ष के लिए कर्म बंधन से निवृत्ति परम अनिवार्य है ! 
2-इस प्रकार से शेष तीन चरण भी सहज ही संपन्न हो जाते हैं, और साधक को नियमों की बाध्यता भी प्रभावित नहीं करती है ! यह विधि सर्वोत्तम है क्योंकि इसमें एक बार प्रथम चरण किसी प्रकार पूर्ण होने के बाद साधक पर पराम्बा का स्वतन्त्र नियन्त्रण हो जाने के कारण पथभ्रष्ट, पतन व त्रुटि होने की सम्भावनाएं पुर्णतः शून्य हो जाती हैं ! 
3-किन्तु इस विधि से साधना करने वाले साधक को गुरुगम्य होना भी अनिवार्य होता है, तभी तो गुरु उस शिष्य की पात्रता व ग्राह्यता के आधार पर उसको गहन रहस्यों को समझाते हुए सफल होने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है !
दुसरे प्रकार में (दीक्षा अनिवार्य नहीं ) :-
08 POINTS;- 
1-उपरोक्त महाविद्या शक्तियों की बालरूपा से वृद्धा रूपा तक की चारों महाविद्याओं की एक-एक करके क्रमशः क्रमशः धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करते हुए साधना की जाती है, इसमें प्रत्येक अवस्था के अनुसार पृथक-पृथक  नियमों की बाध्यता सहित साधना विधान पूर्ण करना 
पड़ता है ! 
2-यह अनिवार्य नहीं होता है कि चारों महाविद्याओं के पृथक-पृथक साधना विधान एक-एक या दो-दो बार में ही निर्बाध संपन्न हो जायेंगे! 
3-यदि यह क्रम पूर्ण हो जाए तब पराम्बा चतुर्थ चरण में अपने साधक के सभी कर्मों को भी आंशिक रूप में भोगवाकर कर्मों के बंधन से निवृत कर उसका मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है !
4-किन्तु चारों पुरुषार्थों की कामना करने वाले साधकों को अकेले किसी एक महाविद्या की साधना करके चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर लेने की भावना व आग्रह से सदैव दूर ही रहना चाहिए, क्योंकि यदि आप केवल धर्म की सूचक बाल स्वरुपा महाविद्या की उपासना करते हैं तो धर्म के साथ-साथ आपके पास धन व सत्ता भी हो यह अनिवार्य नहीं है, क्योंकि बाल स्वरुपा महाविद्या पुर्णतः धर्म ही सिखाती हैं ! 
5-और यदि आप केवल अर्थ की सूचक तरुण स्वरुपा महाविद्या की उपासना करते हैं तो थोड़ा सा धन हाथ में आते ही आप धर्म को कैसे भूल जाते हैं यह आपको स्वयं ही ज्ञात है, क्योंकि तरुण स्वरुपा महाविद्या अतिशय धन के मार्ग बनाती हैं ! 
6-इसी प्रकार से यदि आप केवल काम की सूचक प्रौढ़ा स्वरुपा महाविद्या की उपासना करते हैं तो थोड़ा सा धन ओर भले ही छोटा सा ग्राम प्रधान के रूप में थोड़ी सत्ता हाथ में आते ही आप धर्म, नीति ओर मानवता को कैसे भूल जाते हैं यह भी आपको स्वयं ही ज्ञात है, क्योंकि प्रौढ़ा स्वरुपा महाविद्या शासन सत्ता प्रदान करती हैं !
7- तो फिर ऐसे में कर्म बंधन से मुक्त हुए बिना चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति केवल दिवास्वपन से अधिक और कुछ नहीं है, किन्तु यदि धर्म की सूचक बाल स्वरुपा महाविद्या की उपासना व उसका अनुसरण करते हैं तो धर्म जनित संस्कार आपको मोक्ष मार्गी होने के लिए प्रेरित अवश्य ही करेंगे !
8-चारों पुरुषार्थों की कामना करने वाले साधकों को श्रीविद्या क्रम के सम्पूर्ण चारों क्रम की साधना को संपन्न करना चाहिए ! और इस प्रकार से किसी भी कुल में श्रीविद्या की चारों क्रम की पूर्ण साधना संपन्न कर चुका साधक धर्म से प्रारम्भ होकर मोक्ष तक निश्चित ही पहुँच जाता है, यह परम सत्य है !
 श्रीबाला त्रिपुर-सुन्दरी साधना क्रम;-‘
07 FACTS;-
`1-दस महा-विद्याओ’ में तीसरी महा-विद्या भगवती षोडशी है, अतः इन्हें तृतीया भी कहते हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि वास्तव में आदि-शक्ति एक ही हैं, उन्हीं का आदि रुप ‘काली’ है और उसी रुप का विकसित स्वरुप ‘षोडशी’ है, इसी से ‘षोडशी’ को ‘रक्त-काली’ नाम से भी स्मरण किया जाता है । भगवती तारा का रुप ‘काली’ और ‘षोडशी’ के मध्य का विकसित स्वरुप है । प्रधानता दो ही रुपों की मानी जाती है और तदनुसार ‘काली-कुल′ एवं ‘श्री-कुल′ इन दो विभागों में दशों महा-विद्यायें परिगणित होती हैं ।
2-भगवती षोडशी के मुख्यतः तीन रुप हैं – ( 1) श्री बाला त्रिपुर-सुन्दरी या श्री बाला त्रिपुरा, ( 2) श्री षोडशी या महा-त्रिपुर सुन्दरी तथा ( 3) श्री ललिता त्रिपुर-सुन्दरी या श्रीश्रीविद्या । 
माँ की पूजाप्रधान रूप से तीन स्वरूपों में होती है
2-1- बाल सुंदरी- 8 वर्षीया कन्या रूप में
2-2- षोडशी त्रिपुर सुंदरी - 16 वर्षीया सुंदरी/युवा स्वरूप
2-3- ललिता त्रिपुर सुंदरी- वृद्धा रूप
माँ की दीक्षा और साधना भी इसी क्रम में करनी चाहिए। 
3-आठ वर्षीया स्वरुप बाला त्रिपुर सुन्दरी का, षोडश-वर्षीय स्वरुप षोडशी स्वरुप तथा ललिता त्रिपुर सुन्दरी स्वरुप युवा अवस्था को माना है ।
श्री विद्या की प्रधान देवि ललिता त्रिपुर सुन्दरी है । यह धन, ऐश्वर्य भोग एवं मोक्ष की अधिष्ठातृ देवी है । अन्य विद्यायें को मोक्ष की विशेष फलदा है, तो कोई भोग की विशेष फलदा है परन्तु श्रीविद्या की उपासना से दोनों ही करतल-गत हैं ।
4-इसकी उपासना तंत्रों में अति रहस्यमय व गुप्त है तथा पूर्व जन्म के विशेष संस्कारों के बलवान होने पर ही इस विद्या की दीक्षा का योग माना है । साधक को क्रम-पूर्वक दीक्षा लेनी चाहिए तभी उत्तम रहता है । कहीं-कहीं ऐसा देखा गया है कि जिन्होंने क्रम-दीक्षा के बिना ललिता त्रिपुर सुन्दरी की उपासना सीधे की है, उन्हें पहले आर्थिक कठिनाईयाँ प्राप्त हुई है एवं बाद में उसका विकास हुआ ।
5-‘श्री बाला’ का मुख्य मन्त्र तीन अक्षरों का है और उनका पूजा-यन्त्र ‘नव-योन्यात्मक’ है । अतः उन्हें ‘त्रिपुरा’ या ‘त्र्यक्षरी’ नामों से भी अभिहित करते हैं ।
6-श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी मंत्र:- 
ॐ - ऐं - क्लीं – सौः
रुद्राक्ष की माला का प्रयोग करें। 
51 माला मंत्र 21 दिन तक लगातार जप अवश्य करें ।
7-मंत्र कब होता है सिद्ध.. 04 लाख बार जपने पर 

त्रिपुर सुंदरी साधना क्रम;-
03 FACTS;-
1-ध्यान मंत्र;-
बालार्कायुंत तेजसं त्रिनयना रक्ताम्ब रोल्लासिनों। 
नानालंक ति राजमानवपुशं बोलडुराट शेखराम्।। 
हस्तैरिक्षुधनु: सृणिं सुमशरं पाशं मुदा विभृती। 
श्रीचक्र स्थित सुंदरीं त्रिजगता माधारभूता स्मरेत्।।
2-आवाहन मंत्र;-
ऊं त्रिपुर सुंदरी पार्वती देवी मम गृहे आगच्छ आवहयामि स्थापयामि।
रुद्राक्ष/कमल गट्टे की माला लेकर करीब नीचे लिखे मंत्र का जप करें 
3-पंचदशी मंत्र:-
क ए इ ल ह्रीं ।
ह स क ह ल ह्रीं। 
स क ल ह्रीं श्रीं॥
श्रावण मास में आराधना;-
09 FACTS;-
1-श्रावण मास में शिव कृपा पाने के लिए भक्त कई तरह की पूजा करते हैं। इस दौरान यदि माता त्रिपुर सुंदरी की आराधना की जाए, तो भक्त कई परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं। मां त्रिपुर सुंदरी पार्वती का ही रूप हैं और इन्हें प्रसन्न करने का अर्थ है, शिव कृपा की प्राप्ति। यह मास पूजा-पाठ एवं शिव आराधना का महीना है। इस दौरान शिव जी की स्तुति करने से भक्तों के जीवन में खुशहाली आती है और उनके राह की बाधाएं भी दूर होती हैं। इस मास में शिव आराधना का काफी अधिक महत्व है।
2-दरअसल हमार जीवन एवं शरीर नौ ग्रहों से प्रेरित होता है। इन ग्रहों में चंद्रमा पृथ्वी के निकटस्थ होने की वजह से हमारे शरीर पर सबसे अधिक प्रभाव डालता है। चंद्रमा के स्वामी हैं, शिव। श्रावण ऐसा मास है, जिसमें वातावरण में अत्यधिक नमी होती है। यह सब चंद्रमा के प्रभाव की वजह से होता है। इसलिए इस मास में शिव को प्रसन्न करने का उपाय किया जाता है, ताकि उनकी कृपा से शिव कृपा से भी भक्त लाभान्वित हो जाएं।
3- अगर चंद्रमा की कृपा भक्तों पर हो जाए, तो हमें राजसी सुख मिल सकते हैं और यश भी मिलता है। अगर व्यापारिक क्षेत्रों में तरक्की चाहते हों, तो वे इस मास में किसी भी सप्ताह यह साधना कर सकते हैं। दस महाविधाओं में से एक महाविद्या त्रिपुर सुंदरी, राज राजेश्वरी, षोड्षी, पार्वती जी की सूक्ष्म साधना भी लाभप्रद साबित हो सकती है।
4-इस मास के लिए किसी भी सोमवार से अगले सोमवार तक साधना की जा सकती है। प्रात: से लेकर रात्रि तक जो भी समय सुविधापूर्ण लगे, उसमें साधना की जा सकती है। साधना काल के सप्ताह में मांस, मदिरा आदि अभक्ष्य पदार्थों के सेवन से परहेज करना चाहिए। साथ ही अनैतिक कृत्यों से भी बचना चाहिए।
5-साधना आरंभ करने से पहले स्नान आदि कर शुद्ध होकर सफेद वस्त्र धारण करें। इसके बाद रेशमी या सफेद रंग के वस्त्र का आसन लें। एक सुपारी को कलावे से अच्छी तरह लपेटकर उसे एक थाली में सफेद वस्त्र के ऊपर रखें। अब देवी पार्वती का ध्यान करते हुए उनसे प्रार्थना करते हुए उनसे उस सुपारी में अपना अंश प्रदान करने की प्रार्थना करें। यह क्रिया ग्यारह बार करें। अब देवी का ध्यान, आवाहन मंत्र जपे।
6-इसके बाद देवी को सुपारी में प्रतिष्ठित कर दें। इसे तिलक करें और धूप-दीप आदि पूजन सामग्रियों के साथ पंचोपचार विधि से पूजन पूर्ण करें अब कमल गट्टे की माला लेकर उपरोक्त लिखे मंत्र का जप करें
7-जब मंत्र जप पूर्ण हो जाए, तो देवी जी से आज्ञा लेकर अपने द्वारा की गई गलतियों की क्षमा मांगकर पूजन कार्य समाप्त करें। यह प्रक्रिया लगातार सात दिनों तक करें। आठवें दिन खील, सफेद तिल, बताशे, चीनी और गुलाब के फूल, बेल पत्र को एक साथ मिलाकर 108 आहूतियों से हवन करें। हवन के लिए मंत्र के आगे ऊं नम: स्वाहा: जोड़कर मंत्रोच्चार करें।
8-साधना आरंभ करने से पहले यह संकल्प जरूर लें कि साधना का उद्देश्य क्या है और यथाशक्ति दान क्या होगा? इस साधना से आपकी कामना पूरी होगी और शिव कृपा भी मिलेगी। पूजा के बाद पूजन सामग्री को एक जगह इकट्ठा कीजिए और देवी से प्रार्थना करें कि वे अब अपने स्थान पर वापस जा सकती हैं। उन्हें धन्यवाद देते हुए साधना का विसर्जन करें। इसके बाद सारी पूजन सामग्री की माला ,प्रतिष्ठित सुपारी को आदरपूर्वक नदी में विसर्जित करें।
9-मंत्र कब होता है सिद्ध .. 16 लाख बार जपने पर सिद्ध हो जाता है 
माँ ललिता त्रिपुर सुंदरी आराधना;-
03 FACTS;-
1-ललिता त्रिपुर सुंदरी या त्रिपुर सुंदरी को श्री विद्या भी कहा जाता है ,जो दस महाविद्या में से एक प्रमुख महाविद्या हैं और श्री कुल की अधिष्ठात्री |इन्हें ५१ शक्तिपीठों में भी स्थान प्राप्त है और कामाख्या को भी इनका स्वरुप कहा जाता है [यद्यपि कामाख्या को काली से भी जोड़ा जाता है ]|देवी ललिता आदि शक्ति का वर्णन देवी पुराण में प्राप्त होता है. भगवान शंकर को हृदय में धारण करने पर सती नैमिष में लिंगधारिणीनाम से विख्यात हुईं इन्हें ललिता देवी के नाम से पुकारा जाने लगा.
2-एक अन्य कथा अनुसार ललिता देवी का प्रादुर्भाव तब होता है जब ब्रह्मा जी द्वारा छोडे गये चक्र से पाताल समाप्त होने लगा. इस स्थिति से विचलित होकर ऋषि-मुनि भी घबरा जाते हैं, और संपूर्ण पृथ्वी धीरे-धीरे जलमग्न होने लगती है. तब सभी ऋषि माता ललिता देवी की उपासना करने लगते हैं. उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवी जी प्रकट होती हैं तथा इस विनाशकारी चक्र को थाम लेती हैं. सृष्टि पुन: नवजीवन को पाती है.
3-श्री ललिता जयंती पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है. पौराणिक मान्यतानुसार इस दिन देवी ललिता भांडा नामक राक्षस को मारने के लिए अवतार लेती हैं. राक्षस भांडा कामदेव के शरीर के राख से उत्पन्न होता है. इस दिन भक्तगण षोडषोपचार विधि से मां ललिता का पूजन करते है. इस दिन मां ललिता के साथ साथ स्कंदमाता और शिव शंकर की भी शास्त्रानुसार पूजा की जाती है.
4-माँ ललिता त्रिपुर सुंदरी रक्त काली स्वरूपा हैं।बृहन्नीला तंत्र के अनुसार काली के दो भेद कहे गए हैं कृष्ण वर्ण और रक्त वर्ण।महा विद्याओं में
कोई स्वरुप भोग देने में प्रधान है तो कोई स्वरूप मोक्ष देने में परंतु त्रिपुरसुंदरी अपने साधक को दोनों ही देती है। 
2-शुक्ल पक्ष के समय प्रात:काल माता की पूजा उपासना करनी चाहिए. कालिकापुराण के अनुसार देवी की दो भुजाएं हैं, यह गौर वर्ण की, रक्तिम कमल पर विराजित हैं. प्रतिदिन अथवा पंचमी के दिन ललिता माता के निम्न मंत्र का जाप करने का कुछ विशेष ही महत्व होता है।
माता ललिता का ध्यान धरकर उनकी प्रार्थना एवं निम्न 
मंत्र का जाप करने से मनुष्य सभी कष्टों से मुक्ति पा जाता है।
3-पंचमी के दिन इस ध्यान मंत्र से मां को लाल रंग के पुष्प, लाल वस्त्र आदि भेंट कर इस मंत्र का अधिकाधिक जाप करने से जीवन की आर्थिक समस्याएं दूर होकर धन की प्राप्ति के सुगम मार्ग मिलता है।
4-देवी ललिता जी का ध्यान रुप बहुत ही उज्जवल व प्रकाश मान है. ललिता देवी की पूजा से समृद्धि की प्राप्त होती है. दक्षिणमार्गी शाक्तों के मतानुसार देवी ललिता को चण्डी का स्थान प्राप्त है. इनकी पूजा पद्धति देवी चण्डी के समान ही है।
5-ललिता माता का पवित्र मंत्र :-
'ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नम:।'
ध्यान मन्त्र से माँ को रक्त पुष्प , वस्त्र आदि चढ़ाकर अधिकाधिक जप करें। 
मंत्र कब होता है सिद्ध ..32 लाख बार जपने पर सिद्ध हो जाता है। 
AS IT IS REPEATED;-
श्रीविद्या साधना संसार की सर्वश्रेष्ठ साधनाओ मे से एक हैं. ध्यान के बिना केवल मन्त्र का जाप करना श्री विद्या साधना नही है.बिना ध्यान के केवल दस प्रतिशत का ही लाभ मिल सकता है. श्रीविद्या साधना में ध्यान का विशेष महत्व हैं. इसलिए पहले ध्यान का अभ्यास करे व साथ-साथ जप करे,अन्त मे केवल ध्यान करें.

....SHIVOHAM...

Wednesday, May 6, 2020

ग्रहो के 120 गुण



ग्रहों के 120 गुण.......

लगन अगर-
मेष है तो आदमी का बच्चा है
वृष है तो धन की मशीन है
मिथुन है तो टेलीफ़ोन है
कर्क है तो भावना की पुडिया है
सिंह है तो अहम भरा हुआ है
कन्या है तो कर्जा दुश्मनी बीमारी से घिरा है
तुला है तो हर बात में फ़ायदा सोचने वाला है
वृश्चिक है तो भूतो का सरदार है
धनु है तो बाप दादा की बात करने वाला है
मकर है तो चौबीस घंटे काम ही काम है
कुम्भ है तो जल्दी रिस्ता बना सकता है
मीन है तो हमेशा मौन रहने वाला है

लगन से सूर्य अगर-
पहले भाव मे है तो अहम भरा है
दूसरे भाव मे है तो चमक के आगे कुछ दिखाई ही नही देता
तीसरे भाव मे है तो नेतागीरी पहले है
चौथे भाव मे है तो राजनीति वाली सोच है
पंचम भाव मे है तो परिवार मे ही राजनीति करने वाला है
छठे भाव मे है तो बाप को नौकर समझता है
सातवे भाव मे है जीवन साथी का गुलाम है
आठवे भाव मे है तो बेचारा दिल का मरीज है
नवे भाव मे है तो धर्म से भी कमाने वाला है
दसवे भाव मे है तो सभी काम नेतागीरी से किये जाते है
ग्यारहवे भाव मे है तो पिता को नोट छापने की मशीन समझता है
बारहवे भाव मे है तो आंखों का मरीज है

लगन से चन्द्र अगर-
पहले भाव मे है तो मन से काम करने वाला है
दूसरे भाव मे है तो ख्यालों से धनी है
तीसरे भाव मे है तो हर बात को पूंछ कर चलने वाला है
चौथे भाव मे है तो मकान दुकान और घर मे रहने वाला है
पंचवे भाव मे है तो मनोरंजन में ही मस्त रहने वाला है
छठे भाव मे है तो कोई काम सोचने से नही होता है
सातवे भाव मे है तो हर बात में माता की राय जरूरी है
आठवे भाव मे है तो दिल की गहराइया बहुत है,थाह पाना मुश्किल है
नवे भाव मे है तो हर काम भाग्य के भरोसे है
दसवे भाव मे है तो कार्य के लिये सोचने वाला है करने वाला नही है
ग्यारहवे भाव मे है तो कमाने के पहले ही कर्जा करने वाला है
बारहवे भाव मे है तो टोने टोटके और ज्योतिष मे रुचि रखने वाला है

मंगल अगर-
पहले भाव मे है तो तलवार का धनी है
दूसरे भाव मे है तो खरी खोटी सुनाने वाला है
तीसरे भाव मे है तो झगडा करने की आदत है
चौथे भाव मे है तो दिल को सुलगाने वाला है
पंचम भाव मे है तो खिलाडी है
छठे भाव मे है तो खून मे ही बीमारी है
सातवे भाव मे है तो काम मे चौकस है
आठवे भाव मे है तो जली हुयी मिठाई है
नवे भाव मे है तो खानदान को आग लगाने वाला है
दसवे भाव में है तो जो कहा है वह सच है,भले ही झूठ हो
ग्यारहवे भाव मे है तो चोरों का सरदार है
बारहवे भाव मे है तो तवे पर पानी छिनछिनाता है

बुध अगर-
पहले भाव मे है तो बातूनी है
दूसरे भाव मे है तो जमीन जायदाद वाला है
तीसरे भाव मे है तो चुगलखोर है
चौथे भाव मे है तो गाने बजाने मे रुचि है
पंचम भाव मे है तो गेंद की तरह परिवार को उछालने वाला है
छठे भाव मे है तो आवाज भी धीमी है
सातवे भाव मे है तो मौन रहकर सुनने वाला है
आठवे भाव मे है तो बात की औकात ही नही है
नवे भाव मे है तो पहुंच कर भी जगह से फ़िसलने वाला है
दसवें भाव मे है तो बातों का व्यापार करने वाला है
ग्यारहवे भाव मे है तो इतिहास को बखानने वाला है
बारहवे भाव मे है तो आधा पागल है

गुरु अगर-
पहले भाव मे है तो बेचारा अकेला है
दूसरे भाव मे है तो वेद को भी बेचकर खाने वाला है
तीसरे भाव मे है तो हर बात धर्मानुसार होनी चाहिये
चौथे भाव मे है तो कपडे की जानकारी है
पंचम भाव मे रास्ते चलते शिक्षा देने वाला है
छठे भाव मे है तो कर्जा दुश्मनी और बीमारी के मामले मे गुणी है
सप्तम भाव मे है तो धर्म पर बहस करने वाला है
अष्टम भाव मे है तो जमा पूंजी को खाने वाला है
नवम भाव मे है तो पूर्वजों के भाग्य की खा रहा है
दसम भाव मे है तो पूर्वजों की सम्पत्ति को बेच कर खाने वाला है
ग्यारहवे भाव मे है तो दोस्तों के साथ ही पति या पत्नी के सम्बन्ध बनाने वाला है
बारहवे भाव मे है तो आगे नाम चलाने वाला ही नही है

शुक्र अगर-
पहले भाव मे है तो खूबसूरत है
दूसरे भाव मे है तो बिना क्रीम लगाये कही जाने वाला नही
तीसरे भाव मे है तो सज संवर कर ही निकलेगा
चौथे भाव मे है तो रोजाना सवारी तो करनी ही है
पंचम भाव मे है तो फ़िल्म देखने से ही फ़ुर्सत नही है
छठे भाव मे है तो मकान दुकान और पत्नी को भी गिरवी रखने वाला है
सातवें भाव मे है तो जीवन को पैर के नीचे लेकर चलने वाला है
अष्टम मे है तो शमशान मे भी सो सकते है
नवम मे है तो देश मे तो रह ही नही सकते है
दसवे भाव मे है तो चमक दमक मे ही काम करना है,शाम को भले भूखा सोना पडे
ग्यारहवे भाव मे है तो शाम को रोटी भी उधारी की आ सकती है
बारहवे भाव मे है तो आराम का मामला है

शनि अगर-
पहले भाव मे है तो जड है
दूसरे भाव मे है तो धन की चिन्ता है
तीसरे भाव मे है तो आलसी है
चौथे भाव में ठंड अधिक लगती है
पंचम मे है तो कल का खाया ही नही पचता है
छठे भाव मे है तो सारी जिन्दगी की ताबेदारी यानी नौकरी है
सप्तम मे है तो रोजाना पहाड पर चढ कर काम करना है
अष्टम मे है तो सूखा कुआ है
नवम मे है तो भाग्य भरोसे नही काम के भरोसे कमाना है
दसवे भाव मे है तो दिन रात की मेहनत के बाद भी केवल रोटी
ग्यारहवे भाव मे है तो रोजाना काम का पैसा डूबने वाला है
बारहवे भाव मे है तो आराम के मामलो मे खर्चा नही

राहु अगर-
पहले भाव मे है तो आसमान से उतरना मुश्किल है
दूसरे भाव मे है तो पैसा कहां से आयेगा
तीसरे भाव मे है तो कोई भरोसा नही कब थप्पड मार दे
चौथे भाव मे है तो हर बात में शक है
पंचम मे है तो पढाई से क्या होता है हम तो बहुत जानते है
छठे भाव मे है तो बिना दवाई के रास्ता नही चलनी
सातवे भाव मे है तो घर मे कभी नही बननी
आठवे भाव मे है तो पता नही कब गुम जायें
नवे भाव मे है तो खाना खाने से भी पहले पूर्वजों का नाम लेना है
दसवे भाव मे कभी तो भूत की तरह काम करना है कभी करना ही नही है
ग्यारहवे भाव मे है तो कभी बहुत कमाई कभी धेला भी नही
बारहवे भाव मे है तो घर से बाहर निकलने में भी डर लगता है

केतु अगर-
पहले भाव मे है तो अकेला काफ़ी है
दूसरे भाव मे है तो मालिक के लिये धनदायक है
तीसरे भाव मे है तो टेलीफ़ोन का तार है
चौथे भाव मे है तो बेचारा सांस का मरीज है
पंचम भाव मे है तो क्रिकेट का बल्ला है
छठे भाव मे है तो औजार ही खराब है
सातवे भाव मे है तो सामने खम्भा है
आठवे भाव मे है तो एक टांग टूटी है
नवे भाव मे है तो कोई धर्म हो सब एक जैसे है
दसवे भाव मे है तो सरकारी नेता है
ग्यारहवे भाव मे है तो हर काम बायें हाथ का है
बारहवे भाव मे है तो झंडा ऊंचा रहे हमारा

Tuesday, April 28, 2020

कुंडलिनी शक्ति

5 Top कुण्डलिनी जागरण विधि: तरीका:मंत्र:विज्ञान:योग साधना:शक्ति:प्राणायाम: Kundalini Awakening

5 Top कुण्डलिनी जागरण विधि:तरीका:मंत्र:विज्ञान:योग
साधना:शक्ति:प्राणायाम

क्या आप ऊर्जा चक्र और कुंडलिनी जागृत करने के बारे में जानते हैं?

क्या आप जानते हैं कि वैज्ञानिकों ने पिछले कुछ सालों में मान लिया है कि इनके सही उपयोग से आप अपने खुद के डीएनए को सुगठित व रिबिल्ड तक कर सकते हैं ?

सोचिये एक जिन्दा इंसान खुद का डीएनए रिबिल्ड कर सकता है जिसे नोबल पुरूस्कार प्राप्त वैज्ञानिक अत्याधुनिक प्रयोगशालाओं में भी सिर्फ एक डीएनए कोडिंग पर सही ढंग से नहीं कर पाते |

क्या आप जानते हैं आधुनिक विज्ञान का मानना है कि सारे आनुवांशिक और अन्य सभी रोगों का इलाज बिना किसी दवा के इस से संभव है?
ये वैदिक ज्ञान था जो शायद आज हम अधिकतम भूल चुके हैं

आज हमें जरुरत है वेदों के रहस्यों में डूब जाने की और अपने

 वैदिक ज्ञान को प्राप्त करने की आधुनिक विज्ञान वहीं से निकल 

रहा है

korotkov - ये एक नाम है | एक वैज्ञानिक का ।

जिनकी टीम ने आधुनिक उपकरणों व हमारे वैदिक साइंस का मिश्रण कर के रिसर्च की और योग का चक्रों पर प्रभाव व शरीर से निकलने वाले बायो मैग्नेटिक प्रभाव पर व्यापक अध्यन किया |
ये सब वही है जिसे हम वेदों में पढ़ते हैं उर्जा चक्र जब व्यक्ति का

 उर्जा चक्रों पर नियंत्रण हो जाता है कुंडली जागरण आदि संभव है

 और संभव है उस व्यक्ति की हर भौतिक परेशानी का हल

Rig Veda 6.16.13 में मंत्र आता है |

तवामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत ।
मूर्ध्नो विश्वस्य वाघतः ॥

कुछ लोगों को लगता है कि ये जादू है पर ये हमारे शरीर की ही उर्जा है जो सभी उर्जा चक्रों पर पूर्ण नियंत्रण के बाद जागती है और हमारे पूर्वज इसे जानते थे तभी ये अधिकतर भारतीयों को सुना सुना लगेगा |
हमारी प्राण शक्ति के केंद्र कुंडलिनी को अंग्रेजी भाषा में 'serpent power' कहते हैं। पहले विज्ञान भी इसको नहीं मानता था,क्योंकि वो खुद कर के देख नहीं सकते थे पर आज ऊर्जा चक्रों की ऊर्जा वो देख चुके हैं तो वो आगे खोज कर रहे हैं

कुंडलिनी शक्ति रीढ़ की हड्डी के निचले हिस्से में सुसुप्त अवस्था

 में रहती है।

 कुंडलिनी का कार्य : इससे सभी नाड़ियों का संचालन होता है। योग में मानव शरीर के भीतर 7 चक्रों का वर्णन किया गया है। कुंडलिनी को जब सिद्धयोग के द्वारा जागृत किया जाता है, तब यही शक्ति जागृत होकर मस्तिष्क की ओर बढ़ते हुए शरीर के सभी चक्रों को क्रियाशील करती है।

सिद्ध योग के अभ्यास से  कुंडलिनी को जाग्रत कर इसे सुषम्ना में स्थित चक्रों का भेदन कराते हुए सहस्रार तक ले जाया जाता है। यह कुंडलिनी ही हमारे शरीर, भाव और विचार को प्रभावित करती है।
चक्रों के नाम : मूलत: सात चक्र होते हैं:- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार।

नाड़ी और चक्र :
नाड़ीयाँ : इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों को शुद्ध करने के लिए सभी तरह के प्राणायाम का अभ्यास करना। इनके शुद्ध होने से शरीर में स्थित 72 हजार नाड़ियाँ भी शुद्ध होने लगती हैं। कुंडलिनी जागरण में नाड़ियों का शुद्ध और पुष्ट होना आवश्यक है। स्वर विज्ञान में इसका उल्लेख मिलता है।

सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं। इड़ा को गंगा, पिंगला को यमुना और सुषुम्ना को सरस्वती कहा गया है। इन तीन ना‍ड़ियों का पहला मिलन केंद्र मूलाधार कहलाता है। इसलिए मूलाधार को मुक्तत्रिवेणी और आज्ञाचक्र को युक्त त्रिवेणीकहते हैं।

चक्र : मेरुरज्जु (spinal card) में प्राणों के प्रवाह के लिए सूक्ष्म नाड़ी है जिसे सुषुम्ना कहा गया है। इसमें अनेक केंद्र हैं। जिसे चक्र अथवा पदम कहा जाता है। कई ना‍ड़ियों के एक स्थान पर मिलने से इन चक्रों अथवा केंद्रों का निर्माण होता है। कुंडलिनी जब चक्रों का भेदन करती है तो उस में शक्ति का संचार हो उठता है, मानों कमल पुष्प प्रस्फुटित हो गया और उस चक्र की गुप्त शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं।

इसके लाभ : कुंडलिनी योग ऐसी योग क्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपने भीतर मौजूद कुंडलिनी शक्ति को जगाकर दिव्यशक्ति को प्राप्त कर सकता है। कुंडलिनी के साथ 7 चक्रों का जागरण होने से मनुष्य को शक्ति और सिद्धि का ज्ञान होता है। वह भूत और भविष्य का जानकार बन जाता है। वह शरीर में बाहर निकल कर कहीं भी भ्रमण कर सकता है। वह अपनी सकारात्मक शक्ति के द्वारा किसी के भी दुख दर्द-दूर करने में सक्षम होता है। सिद्धियों की कोई सीमा नहीं होती।

  कुँडलिनी की अर्थ कुँडल फेरा या लपेटा किया जाता है। तीन चार आवृत्ति में घूमे वर्तुल को कुँडलिनी कहते हैं। यह शब्द सामान्य स्थिति में शरीर को लपेटे मारकर बैठी सर्पिणी के प्रतीक का बोध कराने के लिए चुना गया है। कुँडलिनी का अर्थ फेरा तो है, लेकिन वह इतना ही नहीं है। सही अर्थ है- गहरा स्थान या गड्ढा। अगर एक गड्ढा बनाया जाए और वह कुछ गहरा बन जाए, तो उसे कुँड कहते हैं। उस कुंड से संबंधित चीज को कुँडलिनी कहेंगे।

 योगशास्त्र के मर्मज्ञ कहते हैं कि मस्तिष्क में एक गहरा गड्ढा है। वहाँ दिव्यशक्ति छिपी पड़ी है। यह गड्ढा सिर को छेदकर या दिमाग का आपरेशन कर नहीं ढूंढ़ा जा सकता। इसका अस्तित्व स्थूल मस्तिष्क में नहीं सूक्ष्मशरीर में है। इस केंद्र को योगसाधनाओं से निर्मल हुए चित्त में केवल अनुभव ही किया जा सकता है। स्वामी सत्यानंद के अनुसार मस्तिष्क में विद्यमान उस गहर अथवा कुँड को जगा दिया जाए तो व्यक्ति के संपूर्ण अस्तित्व में स्थित शक्तिकेंद्र जाग उठते हैं। सामान्य स्थिति में ये केंद्र सोए पड़े रहते हैं।
सिद्ध योगी या गुरु साधक पर जब शक्तिपात करते हैं,तो मस्तिष्क का यही केंद्र जागता है। गुरु अपने शिष्य पर अनुग्रह करते हुए उसके सिर पर हाथ रखते हैं। आशीर्वाद के उस क्रम में ही शक्ति का संचार हस्ताँतरण या जागरण होता है। शक्ति यों पूरे व्यक्तित्व में ही व्याप्त है। कुछ केंद्र इसके नियंत्रण की भूमिका में होते है। वहाँ से इसका संचालन जागरण और निष्क्रमण होता है। दैनंदिन जीवन में किसी भी यंत्र को चलाने के लिए स्विच ऑन या ऑफ करने के उदाहरण से इस तथ्य को समझा जा सकता है। बिजली सभी जगह व्याप्त है, लेकिन उसका कोई लाभ नहीं उठाया जा सकता है। बिजली का उपयोग करना हो तो एक प्रक्रिया से गुजरते हैं। उसके लिए बिजली के उत्पादन और वितरण तंत्र से संपर्क स्थापित करते हैं। उस संपर्क को जाग्रत और प्रसुप्त करने के लिए स्विच ऑन या ऑफ किया जा सकता है। मानवी चेतना में व्याप्त शक्ति को ऊर्जा के विराट सागर से जोड़ने अथवा उसे अपने भीतर उद्घाटित करने के लिए अवतरण या जागरण संपन्न होने के बाद संकल्प मात्र से अभीष्ट केंद्रों को सक्रिय किया और रोका जा सकता है।

कुँडलिनी को सर्पिणी के रूपक से समझाया गया तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह नाग या नागिन है। आशय सिर्फ इतना है कि महाशक्ति चमकती हुई लपलपाती और सधी हुई अवस्था में जीवनदायिनी है। जिस युग के योगियों ने कुँडलिनी महाशक्ति का अनुभव किया, उस युग में किसी सीमित स्थान में सीमित शक्ति के लिए सर्प ही उपयुक्त प्रतीक था। उसमें दीप्ति, स्फूर्ति, ऊर्जा और विष की जो क्षमताएँ है, वे मूलाधार चक्र में प्रसुप्त शक्ति की विशेषताओं से मेल खाती है। शक्ति का स्वयं कोई आकार या रूप नहीं सर्प या सर्पिणी का उपयोग किया गया।

आज के युग में किसी को कुँडलिनी का प्रथम अनुभव होता तो संभव है दूसरे प्रतीक चुने जाते। आज की स्थिति और काल के अनुरूप कोई प्रतीक चुनना होता, तो कुँडलिनी को विद्युत के रूपक से समझाया जाता। निराकार, दीप्तिवान, कौंधती हुई ऊर्जा और संभालकर चलें तो निहाल कर देने वाली क्षमता बिजली में विद्यमान है। बिना संभाले, असावधानी से इस्तेमाल किए जाने पर बिजली सर्प से भी ज्यादा घातक सिद्ध होती है। कुँडलिनी जागरण के अनुभव से गुजरे विभिन्न योगी इस शक्ति को आकाश में कौंधती और घरों में अकस्मात चमक उठने वाली बिजली की तरह देखते भी है। शक्तिपात के समय भी कुछ शिष्य-साधकों को इसी तरह का अनुभव हुआ है।

विज्ञान के विद्यार्थी और योग के साधकों ने कुँडलिनी की तुलना अणुशक्ति से की है। अणु का विखंडन संभाला न जाए तो विनाश कर देता है और उसका व्यवस्थित उपयोग किया जाए, तो कई शहरों को निरन्तर बिजली दे सकता है।

जिस चेतना में महाशक्ति का अवतरण होता या जहाँ कुंडलिनी शक्ति जाग्रति है, वहाँ व्यक्तित्व में आमूलचूल परिवर्तन आ जाता है। यह परिवर्तन स्वभाव, संस्कृत, प्रतिभा, मेधा, प्रभाव और वैभव आदि सभी पक्षों में दिखाई देता है। कहना न होगा कि परिवर्तन शुभ और कल्याणकारी ही होता है। अपने लिए भी और संपर्क में आने वालों के लिए भी।

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Lables
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कुण्डलिनी जागरण साधना
कुण्डलिनी जागरण की विधि
कुण्डलिनी जागरण की विधि pdf
कुण्डलिनी शक्ति का जागरण
कुण्डलिनी जागरण तरीका
कुण्डलिनी जागरण मंत्र
कुण्डलिनी जागरण विधि और विज्ञान
कुण्डलिनी शक्ति
कुण्डलिनी प्राणायाम
कुण्डलिनी योग
कुण्डलिनी साधना

परमपिता का अर्द्धनारीश्वर भाग शक्ति कहलाता है यह ईश्वर की पराशक्ति है (प्रबल लौकिक ऊर्जा शक्ति) । जिसे हम राधा, सीता, दुर्गा, माता, अम्बा, पार्वती या काली आदि के नाम से पूजते हैं। पूर्व में लोगों ने ध्यान – साधना के दौरान कुण्डलिनी शक्ति के अलग-अलग रूप देखे एवं उन्हें चित्र या मूर्ति के रूप में ढलने का प्रयास किया | उन शक्तियों के अलग-अलग नाम राधा, सीता, दुर्गा, अम्बा, काली, संतोषी, पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती आदि दिए गए | यानी ये सभी शक्तियां इंसान के अंदर हैं, इसीलिए लोगों को ध्यान में दिखी | पर कलियुग के प्रभाव के कारण लोगों ने इन शक्तियों को अंदर के बजाय बाहर मूर्तियों में ढूँढना आरम्भ कर दिया | आज भी ये सब शक्तियाँ मानव मात्र में सुषुप्तावस्था में विद्यमान हैं | गुरुदेव इन्हीं सोई हुई शक्तियों को जगाने का मार्ग बताते हैं |

इन शक्तियों को ही भारतीय योगदर्शन में कुण्डलिनी कहा गया है। यह दिव्य शक्ति मानव शरीर में मूलाधार (रीढ़ की हड्डी का निचला हिस्सा) में सुषुप्तावस्था में रहती है। यह रीढ़ की हड्डी के आखिरी हिस्से के चारों ओर साढ़े तीन आँटे लगाकर कुण्डली मारे, सोए हुए सांप की तरह सोई रहती है। इसीलिए यह कुण्डलिनी कहलाती है। जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो यह सहस्रार में स्थित अपने स्वामी से मिलने के लिये ऊपर की ओर उठती है। जागृत कुण्डलिनी पर समर्थ सद्गुरु का पूर्ण नियंत्रण होता है, वे ही उसके वेग को अनुशासित एवं नियंत्रित करते हैं। गुरुकृपा रूपी शक्तिपात दीक्षा से कुण्डलिनी शक्ति जागृत होकर 6 चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार तक पहुँचती है। कुण्डलिनी द्वारा जो योग करवाया जाता है उससे मनुष्य के सभी अंग पूर्ण स्वस्थ हो जाते हैं। साधक का जो अंग बीमार या कमजोर होता है मात्र उसी की योगिक क्रियायें ध्यानावस्था में होती हैं एवं कुण्डलिनी शक्ति उसी बीमार अंग का योग करवाकर उसे पूर्ण स्वस्थ कर देती है।

इससे मानव शरीर पूर्णतः रोगमुक्त हो जाता है तथा साधक ऊर्जा युक्त होकर आगे की आध्यात्मिक यात्रा हेतु तैयार हो जाता है। शरीर के रोग मुक्त होने के सिद्धयोग ध्यान के दौरान जो बाह्य लक्षण हैं उनमें योगिक क्रियाऐं जैसे दायें – बाएँ हिलना कम्पन, झुकना, लेटना, रोना, हंसना, सिर का तेजी से घूमना, ताली बजाना, हाथों एवं शरीर की अनियंत्रित गतियाँ, तेज रोशनी या रंग दिखाई देना या अन्य कोई आसन, बंध, मुद्रा या प्राणायाम की स्थिति आदि मुख्यतः होती हैं। साधक की कुण्डलिनी चेतन होकर सहस्त्रार में लय हो जाती है, इसी को मोक्ष कहा गया है। 

इस तरह कुंडलिनी शक्ति जगाकर आप भी कर सकते हैं चमत्कार
आचार्य बालकृष्ण Updated Sat, 21 Feb 2015 03:29 PM IST
   
how to rise kundalini
कुंडलिनी वह रहस्यमय शक्ति है, जो व्यक्ति के शरीर में सूक्ष्म रूप में व्याप्त है। इसे जगाने की एक विधि है, जिसे गुरु परंपरा से सीखा जा सकता है। जब यह शक्ति जागने लगती है तो विभिन्न मुद्राएं, प्रणायाम या आसन आदि क्रियाएं अपने आप होने लगती है। कुंडलिनी विद्या को गुरु परंपरा से प्राप्त ज्ञान भी कहा जाता है।
 
यदि साधक तीव्र जिज्ञासु हो और आसन प्राणायाम आदि को तीव्र गति से लंबे समय तक नियमित रूप से करता है तब भी कुंडलिनी जागृत हो जाती है। स्वयं साधना करने से कुंडलिनी जागृत हो जाती है तो भी कुंडलिनी योग  परंपरा में ऐसा माना जाता है कि गुरु की कृपा से जागृत शक्ति ही अभी जागृत हुई है।

हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि जिस प्रकार डंडे की मार खाकर सांप सीधा डंडे की आकृति वाला हो जाता है, उसी प्रकार जालंधर बंध करके वायु को ऊपर ले जाकर कुंभक का अभ्यास करें। साधक धीरे धीरे श्वास छोड़ें। इस महामुद्रा से कुंडलिनी शक्ति सीधी (जागृत) हो जाती है।
 
कुंडलिनी को सहस्त्रार तक पहुंचा कर उसे स्थित रखना है या समाधि को प्राप्त करना है, तब साधक को विकारों का त्याग करना पड़ता है। कुंडलिनी जागृत होने के बाद साधक निरंतर उसका अभ्यास करता है। यदि साधना काल में साधक अपने विकारों को योग के जरिए समाप्त नहीं करता तब वह शक्ति फिर निम्न चक्रों में पतन की आशंका बनी रहती है।

Kundlini Shakti ko Jagrat Kaise Karen | कुंडलिनी शक्ति को जागृत कैसे करें | How to Awaken Kundlini Energy

  

 

कुंडलिनी शक्ति ( Kundlini Shakti )
कुंडलिनी शक्ति को समझने के लिए सबसे पहले हमे ब्रह्म और शक्ति को समझना होगा. ब्रह्म सर्वशक्तिमान है, वो हर जगह विराजमान है और वो निर्विकार है किन्तु उसे मूढ़ अर्थ अज्ञानी और गुम सुम बैठा रहने वाला भी कहा जाता है. किन्तु सोचो कि अगर ब्रह्म ही जो हर जगह विराजमान है जिसके बिना कुछ भी नही अगर वो ही गुम सुम बैठा रहे तो सृष्टि का सृजन और उसका पालन कौन करेगा. इसीलिए ब्रह्म को जगाने की आवश्यकता होती है. इसी स्थिति को देखते हुए शक्ति अर्थात शिव ने मदद की. इसी शक्ति को या इस शक्ति के तत्व को ही कुंडलिनी कहा जाता है. ये शक्ति ब्रह्म को कार्य करने के लिए उर्जावान बना कार्यशील बनती है. कुंडलिनी शक्ति को दुसरे अर्थ में आप नीचे दिए प्रकार से भी समझने की कोशिश करें. CLICK HERE TO KNOW HOW TO AWAKEN MULADHAR ENERGY CENTER CHAKRA ...
Kundlini Shakti ko Jagrat Kaise Karen 
Kundlini Shakti ko Jagrat Kaise Karen
ईश्वर की पराशक्ति जिसे हम माता पार्वती, लक्ष्मी, दुर्गा या काली इत्यादि नामो से पुकारते है वो ईश्वर का ही हिस्सा होती है. जब ईश्वर और ईश्वर की ये पराशक्ति मिलती है तो ईश्वर के उस भाग को अर्धनारीश्वर कहा जाता है. परमपिता प्रमेश्वर की इसी पराशक्ति को कुंडलिनी कहा जाता है. मनुष्य की ये कुंडलिनी शक्ति या दिव्य शक्ति मनुष्य शरीर की रीढ़ की हड्डी के नीचे मूलाधार में स्थित होती है. किन्तु जब तक इसे जगाया ना जाएँ ये वहाँ साढ़े तीन आंट लगाकर सोती रहती है. इन्ही आंटो को कुंडली कहा जाता है. और क्योकि ये शक्ति है तो इसे कुंडलिनी शक्ति कहा जाता है.

इसके जागरण की प्रक्रिया के दौरान ये शक्ति ऊपर की तरफ बढती रहती है. इस शक्ति पर ईश्वर का नियंत्रण होता है इसीलिए इसके इतने शक्तिशाली और प्रचंड वेग के होने के बाद भी ये अनुशासित और नियंत्रित रहती है. ये धीरे धीरे ऊपर बढ़ते हुए 6 चक्रों को पार करती है और सहस्रार चक्र तक पहुँच जाती है. CLICK HERE TO KNOW ABOUT YOGA AND PRANAYAM ...
कुंडलिनी शक्ति को जागृत कैसे करें 
कुंडलिनी शक्ति को जागृत कैसे करें
कुंडलिनी में त्रिदेव ( Trinity in Kundlini ) :
कुंडलिनी में 3 चक्र, 3 कोण, 3 भुपुर, 3 स्वर के मंत्र और इसके 3 ही पहलु होते है. इसका कारण ये है कि इसमें तीनों ईश्वर ब्रह्मा – जिन्होंने सृष्टि को बनाया है, विष्णु – जो सृष्टि का पालन करते है और महेश – जो सृष्टि का संहार करते है, वे तीनो इसी कुंडलिनी में विराजमान है. इन्हें त्रिदेव भी कहा जाता है.

कुंडलिनी में प्राणवायु ( Vital Breaths in Kundlini ) :
क्योकि कुंडलिनी शक्ति या उर्जा शरीर के हर हिस्से में विराजमान होती है इसीलिए ये शरीर की पाँचों वायु को भी नियंत्रित करती है. इन्ही पांच वायु की वजह से ही मानव शरीर की रचना होती है और वो मानव शरीर को पकडे और आकार दे पाता है. ये पांच वायु कुछ इस प्रकार है –
How to Awaken Kundlini Energy
How to Awaken Kundlini Energy
-    प्राण : ये शरीर के ऊपर वाले हिस्से में स्थित होती है और हमेशा ऊपर की ही तरफ बढती है.  

-    अपान : अपान शरीर के निचले हिस्से में स्थित है और ये हमेशा नीचे की ही तरफ अग्रसर रहती है.

-    सामान : ये मानव धड में ही रहती है और खाने की चीजों के साथ अपना कार्य करती है.

-    व्यान : व्यान मानव हृदय में रहती है और वहाँ से खून के साथ मिलकर सम्पूर्ण शरीर में प्रसारित होती है.

-    उदान : जब मनुष्य मरता है तो उस वक़्त ये आत्मा को ऊपर की तरफ लेकर जाती है.

ये पाँचों वायु मिलकर कुंडलिनी शक्ति को नियंत्रित करती है और शरीर को कार्यरत रखती है. इसीलिए कुंडलिनी शक्ति को चैतन्य भी कहा जाता है क्योकि ये शरीर में चेतना को बनाये रखती है.  
कुंडलिनी शक्ति कैसे जगायें
कुंडलिनी शक्ति कैसे जगायें
·         कुंडलिनी शक्ति को जागृत करें ( Awake Kundlini Shakti ) :
कुंडलिनी शक्ति को जगाने का सबसे अच्छा तरीका है साधना या शक्तिपात.

1.       साधना ( Meditation ) : अगर आप साधना के जरिये अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करना चाहते है तो उसके लिएय आपको योग के मार्ग का अनुसरण करते हुये कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग और गुरुकृपायोग को साधना पड़ता है. साथ ही आपको प्राणायाम, यौगिक क्रियाओं और ब्रह्मचर्य का पालन भी करना होता है. इन सब नियमों के पालन के अलावा आपमें अनुशासन, धैर्य और सहनशीलता का होना भी अति आवश्यक है.
कुंडलिनी शक्ति
कुंडलिनी शक्ति
2.       शक्तिपात ( Shaktipaat ) : ये एक योग है जिसके जरियें आपको एक व्यक्ति के द्वारा दुसरे व्यक्ति को आध्यात्मिक शक्ति दी जाती है. सीधे शब्दों में कहें तो एक गुरु अपने शिष्य को अपनी आध्यात्मिक शक्ति देकर उसकी कुंडलिनी शक्ति के जागरण में सहायक होता है. शक्ति को शिष्य तक पहुँचाने के लिए गुरु कुछ मन्त्रों का या पवित्र शब्दों का इस्तेमाल करता है, इस दौरान वो अपने नेत्रों को बंद रखता है और शिष्य को स्पर्श कर उसके आज्ञाचक्र में अपनी शक्ति को डालता है. इस प्रकार गुरु अपने योग्य शिष्य पर अपनी कृपा दीखता है. गुरु द्वारा दी गई इस शक्ति का प्रयोग कर शिष्य आसानी से अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करने में सफल हो पाता है.
Kundlini Shakti Kaise Jagayen
Kundlini Shakti Kaise Jagayen
कुंडलिनी शक्ति का जागरण मात्र आध्यात्मिक प्रगति से ही संभव है जिसके सरल और सही मार्ग है साधना. तो आप साधना के जरिये ही अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करें, जिसके लिए आप साधना के 6 मूलभूत तत्वों को जरुर ध्यान में रखें. ये 6 तत्व आपके मार्ग को सरल बनाते है. किन्तु जब गुरु द्वारा शक्तिपात किया जाता है तो इससे शिष्य के पास एकदम से अचानक आध्यात्मिक शक्ति आ जाती है और वो इस आनंदमयी अनुभव को जीने लगता है. इसके अलावा अब उसे सिर्फ गुणात्मक और संख्यात्मक स्तर में इजाफा कर उसे कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने की दिशा में अग्रसर होना होता है. इससे साधक का विश्वास भी मजबूत होता है.
Kundlini mein Pranvaayu
Kundlini mein Pranvaayu
कहा जाता है कि अगर कोई साधक भक्तिमार्ग के जरिये अपनी कुंडलिनी शक्ति को जागृत करता है तो उसका भाव जागृत होता है और यदि वो ज्ञानमार्ग से कुंडलिनी शक्ति को जागृत करता है तो उससे उसे दिव्या ज्ञान की अनुभूति होती है.

कुंडलिनी शक्ति और इसके जागरण के बारे में अधिक जानने के लिए आप तुरंत नीचे कमेंट करके जानकारी हासिल कर सकते हो.

कुण्डलिनी चक्र और जाग्रत करने की विधि :

1. मूलाधार चक्र :
यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह 'आधार चक्र' है। 99.9%
लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।

इस चक्र में श्री गणेश जी का वास होता है।  
मंत्र : लं
चक्र जगाने की विधि : मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है इसीलिए
भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्‍यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने
लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।
प्रभाव : इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।

 2. स्वाधिष्ठान चक्र-
यह वह चक्र है, जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है जिसकी छ: पंखुरियां हैं। अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है तो आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।

इस चक्र में सावित्री और ब्रह्मा जी का वास होता है। 
मंत्र : वं
कैसे जाग्रत करें : जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।
प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश
होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।

3. मणिपुर चक्र :
नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत मणिपुर नामक तीसरा चक्र है, जो दस
कमल पंखुरियों से युक्त है। जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है उसे काम करने की धुन-सी
रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।

इस चक्र में लक्ष्मी और विष्णु जी का वास होता है।
मंत्र : रं
कैसे जाग्रत करें : आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।
प्रभाव : इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो
जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना
जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं।
आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।

4. अनाहत चक्र-
हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से
सुशोभित चक्र ही अनाहत चक्र है। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील
व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं। आप चित्रकार, कवि, कहानीकार,
इंजीनियर आदि हो सकते हैं।

इस चक्र में पार्वती और  शिव जी का वास होता है।

मंत्र : यं
कैसे जाग्रत करें : हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर
रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और सुषुम्ना
इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।
प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार
समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है।
इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगता है।व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।

5. विशुद्ध चक्र-
कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां विशुद्ध चक्र है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। सामान्यतौर पर
यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है तो आप अति शक्तिशाली होंगे।

इस चक्र में अष्टांगी माता दुर्गा जी का वास होता है।
मंत्र : हं
कैसे जाग्रत करें : कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।
प्रभाव : इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत
होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।

6. आज्ञाचक्र :

भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में आज्ञा चक्र है। सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां
ज्यादा सक्रिय है तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन जाता है
लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है। इस बौद्धिक सिद्धि कहते हैं।
मंत्र : ऊं
कैसे जाग्रत करें : भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।
प्रभाव : यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से ये सभी
शक्तियां जाग पड़ती हैं और व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।

7. सहस्रार चक्र :

सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम
का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को
संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।
कैसे जाग्रत करें :
मूलाधार से होते हुए ही सहस्रार तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह चक्र जाग्रत
हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।
प्रभाव : शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही मोक्ष का द्वार है।

हवा में उड़ने, हमेशा जवान रहने और सारे रोगों का नाश करने वाली रहस्यमयी मुद्राओं का वर्णन – Rahasyamaya
आश्चर्यजनक सिद्धियां प्रदान करने वाली ये मुद्रायें हठयोग के अन्तर्गत वर्णित हैं।

मुद्राओं का तत्काल और सूक्ष्म प्रभाव शरीर की आंतरिक ग्रन्थियों पर पड़ता है। इन मुद्राओं के माध्यम से शरीर के अवयवों तथा उनकी क्रियाओं को प्रभावित, नियन्त्रित किया जा सकता है। विलक्षण चमत्कारी फायदा पहुचाने वाली इन मुद्राओं का अलग-अलग क्रिया विधि है।

उनमें से कुछ अति महत्वपूर्ण मुद्राओं की क्रिया विधि और उनके फायदे निम्नलिखित हैं –

(1) खेचरी मुद्रा – इसे खेचरी मुद्रा इसलिए कहते है क्योकि (ख मतलब आकाश और चर मतलब घूमने वाला) इस मुद्रा को सिद्ध करने पर हवा में उड़ने की शक्ति मिल जाती है ! भगवान हनुमान जी को उनकी वायु में अति तीव्र गति से उड़ने की शक्ति की वजह से उन्हें सबसे बड़ा खेचर कहा जाता है। साथ ही इस मुद्रा को करने से देवताओं के समान सुंदर शरीर और शाश्वत युवा अवस्था प्राप्त होती है।

जीभ को उलटना और तालू के गड़्ढे में जिह्वा की नोंक (अगला भाग) लगा देने को खेचरी मुद्रा कहते हैं। तालू के अन्त भाग में एक पोला स्थान है जिसमें आगे चलकर माँस की एक सूँड सी लटकती है, उसे कपिल कुहर भी कहते हैं। इसी सूंड से जीभ के अगले भाग को बार बार सटाने का प्रयास करना होता है, और रोज रोज प्रयास करने से कुछ महीने में धीरे धीरे जीभ लम्बी होकर कुहर से सट जाती है।

और जीभ के सटते ही, कपाल गह्वर में होकर प्राण-शक्ति का संचार होने लगता है और सहस्रदल कमल में स्थित अमृत झरने लगता है, जिसके आस्वादन से एक बड़ा ही दिव्य आनन्द आता है और शरीर में दिव्य शक्तियां जागृत होने लगती है । खेचरी मुद्रा द्वारा ब्रह्माण्ड स्थित शेषशायी सहस्रदल निवासी भगवान से साक्षात्कार भी होता है। यह मुद्रा बड़ी ही महत्वपूर्ण है।

(2) महामुद्रा – इस मुद्रा को सिद्ध कर लेने पर शरीर हमेशा 16 वर्ष के युवक की तरह जवान, सुन्दर और स्वस्थ बना रहता है। इसे करने में, बाएँ पैर की एडी़ को गुदा तक मूत्रेन्द्रिय के बीच सीवन भाग में लगावें और दाहिना पैर लम्बा कर दीजिए। लम्बे किये हुए पैर के अँगूठे को दोनों हाथों से पकड़े रहिये। सिर को घुटने से लगाने का प्रयत्न कीजिए। नासिका के बाएँ छिद्र से साँस पूरक खींचकर कुछ देर कुम्भक करते हुए दाहिने छिद्र से रेचक प्राणायाम कीजिए।

आरम्भ में पाँच प्राणायाम बाईं मुद्रा से करने चाहिये, फिर दाएँ पैर को सिकोड़कर गुदा भाग से लगायें और बाएँ पैर को फैलाकर दोनों हाथों से उसका अँगूठा पकड़ने की क्रिया करनी चाहिये। इस दशा में दाएँ नथुने से पूरक और बाएँ से रेचक करना चाहिये। जितनी देर बाएँ भाग से यह मुद्रा की थी उतनी ही देर दाएँ भाग से करनी चाहिये।

इस महा-मुद्रा से कपिल मुनि ने सिद्धि प्राप्त की थी। इससे अहंकार, अविद्या, भय, द्वेष, मोह आदि के पंच क्लेशदायक विकारों का शमन होता है। भगन्दर, बवासीर, सग्रहिणी, प्रमेह आदि रोग दूर होते हैं। शरीर का तेज बढ़ता है, व्यक्ति हमेशा युवा रहता है और वृद्धावस्था दूर हटती जाती है।

(3) शाम्भवी मुद्रा – सुखासन या पद्मासन में बैठकर, ऑंखें बन्दकर दोनों भौहों के बीच (भ्रकुटी) में ध्यान करने को शाम्भवी मुद्रा कहते हैं। भगवान शम्भु के द्वारा साधित होने के कारण इन साधनाओं का नाम शाम्भवी मुद्रा पड़ा है। इससे तृतीय नेत्र जागता है जिससे दिव्य लोकों का दर्शन होता है, शरीर के सारे रोगों का नाश होता है और कुण्डलिनी जागरण में सफलता मिलना सुनिश्चित होता है।

(4) अगोचरी मुद्रा – नाक से चार उँगली आगे के शून्य स्थान पर दोनों नेत्रों की दृष्टि को एक बिन्दु पर केन्द्रित करके ध्यान लगाना। ये मुद्रा बहुत तेजी से पाप भक्षण करती है और ईश्वर प्राप्ति में बहुत सहयोगी है।

इसके अतिरिक्त नभो मुद्रा, महा-बंध शक्तिचालिनी मुद्रा, ताडगी, माण्डवी, अधोधारण ,आम्भसी, वैश्वानरी, बायवी, नभोधारणा, अश्वनी, पाशनी, काकी, मातंगी, धुजांगिनी आदि 25 मुद्राओं का हमारे अति पवित्र और अति प्राचीन हिन्दू धर्म के ग्रन्थ “घेरण्ड-सहिता” में सविस्तार वर्णन है।

यह सभी दिव्य मुद्राएं अनेक प्रयोजनों के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनकी जानकारियां हम आपको समय समय पर देते रहेंगे। इन मुद्राओं की किसी क्रिया विधि में कोई शंका हो तो उसका निराकरण योग्य जानकार व्यक्ति से अवश्य करके ही अभ्यास करना चाहिए।

कुण्डलिनी जागरण के दिव्य लक्षण
कुण्डलिनी जागरण | Kundalini Jagran in Hindi

कुंडलिनी जागरण (Kundalini Jagran) के आध्यात्मिक लाभ की अभिव्यक्ति शब्दो में तो नहीं की जा सकती, हाँ, इतना अवशय कहा जा सकता है की कुण्डलिनी शक्ति जागरण (Kundalini Shakti Jagran) के पश्चात एक पूर्ण आनंद की स्थिति होती है ! इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद कुछ पाना शेष नही रह जाता ! मन में पूर्ण संतोष, पूर्णशांति व परमसुख होता है ! ऐसे साधक के पास बैठने से दूसरे व्यक्ति को भी शांति अनुभूति होती है ! ऐसे योगी पुरुष के पास बैठने से दूसरे विकासी पुरुष के भी विकार शांत होने लगते है तथा योग व भगवान के प्रति स्रद्धा भाव बढ़ते है

कुण्डलिनी जागरण के लक्षण (Kundalini Awakening Symptoms)

इसके अतिरिक कुण्डलिनी शक्ति (Kundalini Shakti) जिसकी जाग्रत हो जाती है , उसके मुख पर एक दिव्य आभा, ओज, तेज व कान्ति बढ़ने लगती है ! शरीर पर भी लावण्य आने लगता है, मुख पर प्रसन्ता व समता का भाव होता है,दृष्टि में समता, करुणा व दिव्य प्रेम होते है ! विचारो में महानता व पूर्ण सात्विकता होती हे ! संक्षेप में हम कह सकते हे की जीवन का प्रतियक पहलु पूर्ण पवित्र उदात्त व महानता को छूता हुआ होता है ! इस पूरी प्रक्रिया के जहाँ spiritual लाभ है, वही एक लाभ अत्यधिक महत्वपूर्ण यह भी है की ऐसी योगिक प्रक्रिया करनेवाले व्यक्ति को जीवन में कोई रोग नहीं हो सकता है तथा कैंसर से लेकर हदयरोग, diabetes , मोटापा , पेट के समस्त रोग वात, पित, व कफ की समस्त विषमताएं स्वत: समाप्त हो जाती है ! व्यक्ति पूर्ण निरोगी हो जाता है ! आज के स्वार्थी व्यक्ति के लिए क्या यह कम उपलबधि है की बिना किसी दवा के सभी रोग मिटाये जा सकते है और जिंदगी भर निरोग, स्वस्थ, ओजस्वी, मनस्वी, तपस्वी बना जा सकता है |

ब्रह्म को जहाँ सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और निर्विकार कहा जाता है वहाँ उसे मूढ़ भी कहा जाता है। मूढ़ का अर्थ है अज्ञानी गुम-सुम बैठा रहने वाला। उसकी न कोई इच्छा है न आकांक्षा ऐसा ब्रह्म विश्व के सृजन और पालन का उत्तरदायित्व भला कैसे पूरा कर सकता था। इसलिये उस जागृत करने की आवश्यकता पड़ी। इस आवश्यकता की पूर्ति उसकी शक्ति ( lord shiv ) ने की। यह शक्ति या शिव तत्व और कुछ नहीं कुण्डलिनी ही है, वहीं ब्रह्म को क्रियाशील बनाती है। इस शास्त्रीय विवेचन की पुष्टि के लिये शरीरगत कुण्डलिनी तत्व का अध्ययन करना चाहिए।

मेरुदण्ड के भीतर सूक्ष्म प्रवाह और चैतन्य लोकों के निर्माण और उनके क्रिया कलाप का अध्ययन केवल भारतीय योगी ही कर सके हैं। इन सूक्ष्म लोकों का महत्व सर्वाधिक है। उनकी जानकारी से ही विश्व रहस्यों का उद्घाटन होता है। अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त होती है, मनुष्य जीवन का वास्तविक अर्थ समझ में आता है और स्वर्ग, मुक्ति या परम पद प्राप्ति का द्वार खुलता है।

गुदा क्षेत्र में सोई हुई कुण्डलिनी दो धाराओं इड़ा और पिंगला (यह नाड़ियाँ ऋण विद्युत् और धन विद्युत् गत विद्युत् के आणविक स्वरूप में अन्तर है) में होकर ऊपर को उठती है और मस्तिष्क में जाकर मूढ़ ब्रह्म की चेतना को झकझोरती है। कुण्डलिनी यदि जागृत नहीं है तो इड़ा और पिंगला अपने सामान्य परिवेश में ही काम करती है, उसी प्रकार मस्तिष्क भी सामान्य ढीले-पोले काम करता रहता है पर जागृत कुण्डलिनी के आवेश को संभालना तो मस्तिष्क के लिये भी कठिन हो जाता है। फिर वह बैठा नहीं रह सकता। कुछ न कुछ उछल-कूद तोड़-फोड़ बनाव शृंगार उसे करना ही पड़ता हैं। जिस व्यक्ति की कुण्डलिनी जाग जाती है वह जागृत अवस्था की तहत गम्भीर निद्रावस्था में भी उतना ही सचेतन रहता है। उसकी स्वप्न और जागृति में कोई अन्तर नहीं आता। जिस तरह जागृत अवस्था में वह किसी से बातचीत करता, सुनता, सोचता, विचारता, प्रेरणा देता, सहायता, सहयोग देता रहता है उसी प्रकार स्वप्नावस्था में भी उसकी गतिविधियाँ चला करती हैं।

उस अवस्था में वह किसी का भला भी कर सकता है और नई-नई जानकारियों के लिये अन्य ब्रह्माण्डों में सैर के लिये भी जा सकता है। अन्य ब्रह्माण्डों का अर्थ विद्धि रूप से सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति, शुक्र, हर्शल, प्लूटो आदि से है। यह आश्चर्य लगने वाली बात उसके लिये बिल्कुल साधारण और सामान्य होती है। साधना में तीन व्यक्तियों को कभी कभी रात में ऐसे कुछ स्वप्न हो जाते हैं जिसमें उन्हें किसी भविष्य की घटना का पूर्वाभास मिल जाता है या किसी गोपनीय रहस्य का पता चल जाता है। वह कुण्डलिनी की ही शक्ति होती है।

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कुण्डलिनी चक्रों के प्रतीकात्मक वैदिक नाम तथा उपयोगिता और चक्र सोधन में प्राणमय कोष की भूमिका

हमारी धरती गोलाकार है उसके केन्द्र में अति गर्मी है जिससे वहाँ की सब वस्तुएँ और धातुएँ गली हुई तरल स्थिति में होती हैं। मूलाधार की वह गाँठ, जहाँ मेरुदण्ड समाप्त होता है और जिसे अनेक नाड़ी गुच्छकों ने बाँध रखा है, का भेदन किया जाय तो वहाँ अत्यन्त तेजस्वी और उष्ण शक्ति मिलती है, यही कुण्डलिनी है। वह स्फुरणा वाली शक्ति है इसलिये यहाँ नाड़ी गुच्छक भी स्फुरित से है चारों ओर को उत्तेजित से बने रहते हैं। यहाँ की अग्नि पृथ्वी में पाई जाने वाली अग्नि से बहुत कुछ मिलती जुलती होती है।

विज्ञान का एक नियम है कि एक पदार्थ के सभी अणुओं की चेष्टाएँ मूल पदार्थ जैसी ही होती हैं। उदाहरणार्थ लोहे में जो गुण और चेष्टा होगी वही उसके परमाणु में भी होगी। नमक में जो गुण और तत्व होंगे उसके परमाणु में भी वही होंगे। गुदा पार्थिव पदार्थों से बना हुआ होने के कारण उसके गुण, अहंकार और वासनायें भी पार्थिव होती हैं इसलिये शक्ति की दृष्टि से भी वह कुण्डलिनी की तरह ही महत्त्वपूर्ण होता है अर्थात् कुण्डलिनी का एक उपयोग केवल पार्थिव काम वासना-जन्य सुखों के लिये भी किया जा सकता है पर उस स्थिति में शक्ति अधोगामी होने से उसका पतन शीघ्र हो जाता है और ऐसे मनुष्य की वासनायें मृत्यु तक भी शान्त नहीं होती इसलिये उसे उनकी पूर्ति के लिये पुनः जीवन धारण करना पड़ता है।

लेकिन जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है और इड़ा, पिंगला समान गति से ऊर्ध्वगामी हो जाती हैं तो एक तीसरी धारा सुषुम्ना का आविर्भाव होता है। उससे ऊर्ध्वमुखी लोकों की अनुभूति और गमन का सुख मिलता है यह सुख संभोग सुख जैसा होता है पर संभोग का सुख क्षणिक होता है और ऊर्ध्वमुखी आध्यात्मिक सुख का रसास्वादन निरन्तर किया जा सकता है। पर उसके लिये कुण्डलिनी को जगाना आवश्यक हो जाता है।

कुण्डलिनी जगाने का अर्थ भीतर गोलों (7 chakra) की कुण्डलिनी को क्रियावान् करना है। पवित्रता के बिना इस कार्य में बड़ा जोखिम है। इसलिये उसे गुप्त रखा गया। कुण्डलिनी के दो उत्पत्ति स्थान माने गये हैं, एक सूर्य केन्द्र में निवास करने वाली पुरुषरूपी और दूसरी स्त्री रूप में पृथ्वी केन्द्र में। पृथ्वी केन्द्र में कुण्डलिनी को प्राणधारियों की जीवन सत्ता का केन्द्र कह सकते हैं। यह दरअसल सूर्य कुण्डलिनी का ही बीज है।

कहा जाता है कि संसार जो कुछ भी है वह सब बीज रूप से देह में विद्यमान् है सूर्य भी कुण्डलिनी के रूप में शरीर में बैठा हुआ है। शारीरिक मूलाधार में ग्रन्थि का जब विकास होता है तब उसमें सूर्य जैसी होती है। अर्थात् उसमें मनुष्य की शक्ति सूर्य की जितनी शक्ति वाली, सर्वव्यापी, सर्व-समर्थ हो जाती है फिर उस शक्ति का नियन्त्रण करना कठिन हो जाता है। कमजोर मन और शरीर वाले उस शक्ति (kundalini power) को धारण नहीं कर सकते।

गायत्री का देवता “सविता” है और कुण्डलिनी की प्रतिनिधि शक्ति भी सूर्य ही है इसलिये गायत्री उपासना का सीधा प्रभाव मेरुदण्ड से होकर इस गुदा क्षेत्र में ही होता है। ऊपर से उतरने वाला प्राण प्रवाह पहले यहीं पहुँचता है और फिर गुच्छकों के द्वारा सारे शरीर में संचित होता रहता है। जितना अधिक साधन का विकास होता है उतना ही प्राणशक्ति का अभिवर्द्धन और उसी अनुपात से कुण्डलिनी जागृत होती चलती है। यह प्रकाश धीरे-धीरे नेत्र, वाणी, मुख और ललाट आदि सम्पूर्ण शरीर में चमकने लगता है। त्वचा में यही कोमलता और बुद्धि में सात्विकता एवं पवित्रता की अभिवृद्धि करता है। यह क्रिया धीरे-धीरे होती है इसलिये हानि की भी आशंका नहीं रहती उपासक अपने आत्म-कल्याण भर के संकेत प्राप्त करता हुआ जो वास्तविक लक्ष्य है वह जीवन -मुक्ति भी प्राप्त कर लेता हैं।

सविता लोक से आने वाले प्राणकण यद्यपि बहुत छोटे होते हैं किन्तु इतने प्रकाशमय होते है कि बिना दिव्य-दृष्टि के भी उन्हें देखा जा सकता है। आसमान की ओर देखने पर वायु में छोटे-छोटे प्रकाश के कण अति शीघ्रता से चारों ओर उछलते हुए दिख पड़ते हैं ये प्राणकण ही हैं। यह कण सात ईश्वर कणों से विनिर्मित होता है। यह प्राण कण सफेद होता है पर ईश्वर के सातों अणु सात रंगों के बने होते हैं। सूर्य भी सात रंगों का प्रकाश है।

नाभि चक्र में घुसने पर यह रंग अलग-अलग होकर अपने क्रिया क्षेत्रों में बँट जाते हैं नीला और लाल रंग मिली हुई हल्की बैगनी (वायलेट) और नीली किरणें कंठ में चली जाती हैं और हल्की नीली कण्ठ चक्र में। यह दोनों गले को शुद्ध रखती हैं और वाणी को मधुर बनाती हैं। कासनी और गहरा नीला मस्तिष्क में चले जाते हैं उससे विचार, भक्ति और वैराग्य के गुणों का आविर्भाव होता है। गहरा नीला मगज के निचले और मध्य भाग तथा नीला रंग सहस्रार का पोषण करता है।

पीली किरणें हृदय में प्रवेश करती है उससे रक्तकणों की शक्ति और स्निग्धता बढ़ती है। शरीर सुन्दर बनता है। यही किरणें बाद में मस्तिष्क को चली जाती हैं जिससे विचार और भावनाओं का समन्वय होता है। हरी किरणें पेट की अन्तड़ियों में कार्य करती हैं इससे पाचन क्रिया सशक्त बनती है। गुलाबी किरणें ज्ञान तन्तुओं के साथ सारे शरीर में फैलती है आरोग्य की दृष्टि से इन किरणों का बड़ा भारी महत्व है ऐसी की बहुतायत वाला व्यक्ति किसी को भी हाथ रखकर स्वस्थ कर सकता है।

देवदारु और यूकेलिप्टस वृक्षों में इन किरणों की ही बहुतायत होती है जिससे उनकी छाया भी बहुत आरोग्यवर्धक होती हैं। नारंगी लाल किरणें जननेन्द्रियों तक पहुँचकर गुदा वाले रोग ठीक कर देती हैं और शरीर की गर्मी में सन्तुलन रखती हैं। हलकी बैंगनी किरणें भी यहाँ आकर इस क्रिया में हाथ बँटाती हैं यदि कामवासना पर नियन्त्रण रखा जा सके तो इन किरणों को ही मस्तिष्क में भेजकर भविष्य ज्ञान, दूर दर्शन, दर श्रवण आदि चमत्कार, प्राप्त किये जा सकते हैं।

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शुद्ध पीले रंग से बुद्धि का विकास होता है। गहरा लाल किरमिजी (क्रिमसन) से सर्वात्म भाव और प्रेमभाव का विकास होता है। इन रंगों की सम्मिलित शक्ति से आध्यात्मिकता का विकास होता हैं। इस तरह यह देखने में आता है कि कुण्डलिनी जागरण से आन्तरिक कलेवर का आमूल-चूल परिवर्तन हो जाता है। इस क्रान्ति का माध्यम शरीरस्थ कुण्डलिनी को सूर्य कुण्डलिनी से जोड़ देना ही होता है। यह क्रिया वैसे ही है जैसे किसी बड़े तालाब से छोटी सी नाली लगाकर खेतों तक पानी पहुँचा देते हैं। कुण्डलिनी जागरण की यह साधना समय साध्य तो है पर जोखिम नहीं है।

कुंडलिनी चक्र जागरण में दिखने वाले रंगों का अर्थ | Kundalini 7 Chakra’s Colors

साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं. अनेक साधकों के ध्यान में होने वाले अनुभव एकत्रित कर यहाँ वर्णन कर रहे हैं ताकि नए साधक अपनी साधना में अपनी साधना में यदि उन अनुभवों को अनुभव करते हों तो वे अपनी साधना की प्रगति, स्थिति व बाधाओं को ठीक प्रकार से जान सकें और स्थिति व परिस्थिति के अनुरूप निर्णय ले सकें.

भौहों के बीच आज्ञा चक्र (Aagya chakra) में ध्यान लगने पर पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देता है. फिर पीले रंग की परिधि वाले नीला रंग भरे हुए गोले एक के अन्दर एक विलीन होते हुए दिखाई देते हैं. एक पीली परिधि वाला नीला गोला घूमता हुआ धीरे-धीरे छोटा होता हुआ अदृश्य हो जाता है और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है. इस प्रकार यह क्रम बहुत देर तक चलता रहता है. साधक यह सोचता है इक यह क्या है, इसका अर्थ क्या है ? इस प्रकार दिखने वाला नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है. नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है. पीला रंग आत्मा का प्रकाश है जो जीवात्मा के आत्मा के भीतर होने का संकेत है.

इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है. इससे भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्षा दीखने लगते है और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं. साथ ही हमारे मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे हम असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेते हैं.

कुण्डलिनी जागरण का अनुभव | kundalini awakening experiences

कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं. अर्थात यह ईश्वर की साक्षात् शक्ति है. यह कुदालिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शारीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है. जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक हम सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं. परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुदा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है. यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है. यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है.

जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र (Muladhar Chakra) में स्पंदन का अनुभव होने लगता है. यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे हमारा कोई अंग फड़कता है. फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है. जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है, यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है. इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर हम सांसारिक विषय भोगों से विरक्त हो जाते हैं और ईश्वर प्राप्ति की ओर हमारा मन लग जाता है. इसके अतिरिक्त हमारी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है. कठिन कार्य भी हम शीघ्रता से कर लेते हैं.

कुण्डलिनी जागरण के दिव्य लक्षण | Divine symptoms of kundalini awakening

कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण हैं : ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना, गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना, गर्दन का भाग ऊंचा उठ जाना, सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ चलने जैसा लगना, कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है ऐसा लगना, मुंह का पूरा खुलना और चेहरे की मांसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है.

एक से अधिक शरीरों का अनुभव होना –

कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है. यानि एक तो यह स्थूल शरीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर. तब साधक कई बार घबरा जाता है. वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है. परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है.

एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है. दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है तीसरा शरीर कारण शारीर कहलाता है. सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शरीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि. परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है. तीसरा शरीर कारण शरीर है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं. मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है. इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं.

कुंडलिनी शक्ति को जगाने का सबसे अच्छा तरीका है साधना या शक्तिपात.

कुण्डलिनी जागरण साधना (Kunadlini Yog)

अगर आप साधना के जरिये अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करना चाहते है तो उसके लिएय आपको योग के मार्ग का अनुसरण करते हुये कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग और गुरुकृपायोग को साधना पड़ता है. साथ ही आपको प्राणायाम, यौगिक क्रियाओं और ब्रह्मचर्य का पालन भी करना होता है. इन सब नियमों के पालन के अलावा आपमें अनुशासन, धैर्य और सहनशीलता का होना भी अति आवश्यक है.

कुण्डलिनी जागरण शक्तिपात (Kundalini Shaktipaat )

ये एक योग है जिसके जरियें आपको एक व्यक्ति के द्वारा दुसरे व्यक्ति को आध्यात्मिक शक्ति दी जाती है. सीधे शब्दों में कहें तो एक गुरु अपने शिष्य को अपनी आध्यात्मिक शक्ति देकर उसकी कुंडलिनी शक्ति के जागरण में सहायक होता है. शक्ति को शिष्य तक पहुँचाने के लिए गुरु कुछ मन्त्रों का या पवित्र शब्दों का इस्तेमाल करता है, इस दौरान वो अपने नेत्रों को बंद रखता है और शिष्य को स्पर्श कर उसके आज्ञाचक्र में अपनी शक्ति को डालता है. इस प्रकार गुरु अपने योग्य शिष्य पर अपनी कृपा दीखता है. गुरु द्वारा दी गई इस शक्ति का प्रयोग कर शिष्य आसानी से अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करने में सफल हो पाता है.

कुंडलिनी शक्ति का जागरण मात्र आध्यात्मिक प्रगति से ही संभव है जिसके सरल और सही मार्ग है साधना, आप साधना के जरिये ही अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करें, जिसके लिए आप साधना के 6 मूलभूत तत्वों को जरुर ध्यान में रखें. ये 6 तत्व आपके मार्ग को सरल बनाते है. किन्तु जब गुरु द्वारा शक्तिपात किया जाता है तो इससे शिष्य के पास एकदम से अचानक आध्यात्मिक शक्ति आ जाती है और वो इस आनंदमयी अनुभव को जीने लगता है. इसके अलावा अब उसे सिर्फ गुणात्मक और संख्यात्मक स्तर में इजाफा कर उसे कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने की दिशा में अग्रसर होना होता है. इससे साधक का विश्वास भी मजबूत होता है.

कहा जाता है कि अगर कोई साधक भक्तिमार्ग के जरिये अपनी कुंडलिनी शक्ति को जागृत करता है तो उसका भाव जागृत होता है और यदि वो ज्ञानमार्ग से कुंडलिनी शक्ति को जागृत करता है तो उससे उसे दिव्या ज्ञान की अनुभूति होती है.