क्या है तांत्रोत्क श्री-विद्या-साधना का रहस्य ? क्या है श्रीविद्या साधना प्रणाली?.
भोग, मोक्ष प्रदायिनी श्रीविद्या उपासना /साधना क्या है?-
03 FACTS;-
1-श्रीविद्या-आत्मविद्या-आत्मसमर्पण;श्री’ अर्थात् देवी और विद्या
अर्थात ज्ञान। सीधे-सादे शब्दों में यह देवी की उपासना है। एक ऐसा ज्ञान है जिसे जानने के पश्चात कुछ जानना शेष नहीं रह जाता। मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य आत्म बोध है। अपने निज स्वरूप से अनभिज्ञ मनुष्य स्वयं को असहाय महसूस करता है। कर्म बंधन में फंसा जीवन इसी आत्म बोध के लिए जन्म जन्मांतर तक भटकता रहता है। इसी आत्मबोध के तंत्र का नाम श्री विद्या है। यह शाक्त परंपरा की प्राचीन एवं सर्वोच्च प्रणाली है।
2-आदि काल से मनुष्य लौकिक और पारलौकिक सुखों के लिए विभिन्न देवी-देवताओ की उपासना करता आया है। ऐसा अक्सर पाया जाता है कि भौतिक सुखों में लिप्त जीवन जीते हुए मनुष्य आत्मिक सुख से वंचित रहता है, कुछ अधूरा सा अनुभव करता है। यह भी माना जाता है कि आत्मिक अनुभूति के लिए भौतिक सुखों का मोह छोड़ना पड़ता है। एक साधारण मनुष्य के लिए यह भी संभव नहीं है। ऐसे संदर्भ में श्री विद्या उपासना एक महत्वपूर्ण साधन है।
यह देवी (शक्ति) की तीन अभिव्यक्तियों पर आधारित है।
2-1- भोग, मोक्ष प्रदायिनी मां ललिता त्रिपुर सुंदरी का स्वरूप।
2-2- श्री यंत्र
2-3-पंचदशाक्षरी मंत्र
3-श्रीविद्या एक क्रमबद्ध, रहस्यमयी पद्धति है जिसमें ज्ञान, योग (प्राणायाम), भक्ति और देवी के पूजन-अर्चन का सुन्दर समावेश है।
महाशक्ति त्रिपुर सुंदरी कौन' है ?-
07 FACTS;-
1-महाशक्ति त्रिपुरसुंदरी महादेव की स्वरूपा शक्ति हैं।इन्हीं के सहयोग
से शिव सृष्टि में सूक्ष्म से लेकर स्थूल रूपों में उपस्थित हैं। सामान्य मनुष्य के लिए कण-कण में भगवान उपस्थित हैं।
2-जगद् गुरु शंकराचार्य कृत सौंदर्य लहरी के प्रथम श्लोक में यह भाव प्रत्यक्ष दिखाई देता है।
'' हे भगवती! जब शिव शक्ति से युक्त होते हैं तभी जगदुत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। यदि वे शक्ति से युक्त न हों तो सर्वथा हिलने या चलने में भी अशक्त रहते हैं।''
3-मां त्रिपुर सुंदरी की अलौकिक सुंदरता का वर्णन भी सौंदर्य लहरी में कई स्थानों (श्लोकों) में मिलता है। यूं तो मां शक्ति रूपा हैं, निराकार होकर भी सब में विद्यमान हैं, तो भी साधक के मन की एकाग्रता के लिए उनके स्थूल रूप का प्रयोजन है।
''शरदपूर्णिमा की चांदनी के समान शुभ्रवर्णा, द्वितीया के चंद्रमा से युक्त जटाजूट रूपी मकुटों वाली, अपने हाथों में वरमुद्रा, अभय मुद्रा, स्फटिक मणि की माला और पुस्तक धारण किए हुए आपको एक बार भी नमन करने वाले मनुष्य के मुख से मधु, क्षीर, द्राक्षा शर्करादि से भी मधुर अमृतमयी वाणी क्यों न झरेगी। ''
4- मां की चार भुजाओं में पाश, अंकुश, इक्षुधनु और पंच पुष्पबाणों का ध्यान किया जाता है। पाश अर्थात 36 तत्वों में प्रीति, अंकुश अर्थात क्रोध, द्वेष, इक्षुधनु - संकल्प-विकल्पात्मक क्रियारूप मन ही इक्षुधनु है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध पांच पुष्प बाण हैं।
5-पाश- इच्छाशक्ति, अंकुश-ज्ञान शक्ति तथा बाण और धनुष क्रियाशक्ति स्वरूप हैं। इन तीनों शक्तियों को अपने में धारण करती हैं मां त्रिपुर सुंदरी।
6-किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए मनुष्यं को उपरोक्त शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता है। प्रथम कार्य करने की इच्छा रखना, दूसरा ज्ञान (कार्य से संबंधित ज्ञान) और तीसरा कार्य को करना। स्पष्ट है कि इन तीनों के लिए आवश्यकता होती है मन की एकाग्रता की। मन की एकाग्रता प्रबल आत्मिक शक्ति और दृढ़ संकल्प के बिना असंभव है।
7-अर्थात् आत्मिक शक्ति ही मां त्रिपुरा हैं। अदम्य आत्मिक शक्ति का परिचय उपासक को सशक्त बनाता है और वह असंभव को संभव कर देता है। मां की उपासना मां का सीधा-सादा उपदेश है- स्वात्म शक्ति का ज्ञान क्योंकि यही पारसमणि है।
श्री यंत्र:-
03 FACTS;-
1-श्री विद्या उपासना चिह्न इसकी रचना जटिल है। यह एक बिंदु के चारों ओर अनेक त्रिकोणों का क्रमबद्ध समागम है। श्री चक्र मानव जीवन के अपने केंद्र ‘‘स्व’’ तक की यात्रा का प्रतीक है। बिंदु स्व का, आत्मशक्ति का- मां त्रिपुर सुंदरी का प्रतीक है। त्रिभुज आवरण हैं। श्री यंत्र की आराधना नव (9) आवरण आराधना कही जाती है।
2-जैसे-जैसे आवरण हटते जाते हैं उपसक अपने ही करीब आता जाता है। अंत में सब आवरण हटते ही उपासक मां त्रिपुर सुंदरी (स्वआत्मिक शक्ति) में लीन हो जाता है। यह बाहर से भीतर की यात्रा कुंडलिनी जागरण से संबंध रखती है। आदि शक्ति मूलाधार चक्र में सर्पाकार रूप में सुप्त अवस्था में उपस्थित होती है। कुंडलिनी योग और प्राणायाम से जाग्रत हो षटचक्रों को भेदती हुई सहस्त्राशार में पहुंच जाती है। यहां उपस्थित शिव तत्व में लीन होकर उपासक को परमानंद की अनुभूति देती है।
3-सौंदर्य लहरी के अनुसार((9);-
'' हे भगवती! आप मूलाधार में पृथ्वीतत्व को, मणिपुर में जलतत्व को, स्वाधिष्ठान में अग्नितत्व को, हृदय में स्थित अनाहत में मरुतत्व को, विशुद्धि चक्र में आकाशतत्व को तथा भूचक्र में मनस्तत्व को इस प्रकार सारे चक्रों का भेदन कर सुषुम्ना मार्ग को भी छोड़कर सहस्त्रा पद्म में सर्वथा एकांत में अपने पति सदाशिव के साथ विहार करती हैं।''
पंचदशाक्षरी मंत्र:-
03 FACTS;-
1-सौंदर्य लहरी के अनुसार(32)
क-शिवः, ए- शक्ति, ई-कामः, ल-क्षिति,
ह्रीं-ह्रल्लेखा,-ह,-रवि, स-सोम, क- रूमर, ह- हंस ल-शुक्रः हल्लेखा - हृीं,
स-परा शक्ति, क-मारः ल-हरि, हल्लेखा-ह्रीं-
इस प्रकार तीन कूटबीजों की सृष्टि होती है। हे भगवती ! आपके नामरूप ये तीन कूट हैं। इनका जप करने से साधक का अतिहित होता है। -
2-इस श्लोक में गुप्त रूप से पंचदशाक्षरी मंत्र का वर्णन है। इस मंत्र के तीन भाग हैं-
2-1- वाग्भव कूट अर्थात् वाहनि कुंडलिनी,
2-2-कामराजकूट- सूर्य कुंडलिनी
2-3-शक्ति कूट- सोम कुंडलिनी।
3-उपरोक्त सभी विधियां सामान्य मनुष्य के लिए कठिन प्रतीत होती हैं। किसी भी ज्ञान या विद्या का मूल्यांकन उसकी व्यवहारिकता से किया जाता है। यदि किसी विद्या का प्रयोग मनुष्य रोजमर्रा के जीवन में अपने विविध कार्य कलापों के लिए न कर सके तो उसका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। इसके लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने अपने ग्रंथ सौंदर्य लहरी में एक सरल विधि बतायी है ...
'' हे भगवती! आत्मार्पण दृष्टि से इस देह से जो कुछ भी बाह्यन्तर साधन किया हो, वह अपनी आराधना रूप मान लें और स्वीकार करें। मेरा बोलना आपके लिए मंत्र जप हो जाए, शिल्पादि बाह्य क्रिया मुद्रा प्रदर्शन हो जाए, देह की गति (चलना) आपकी प्रदक्षिणा हो जाए, देह का सोना (शयन) अष्टांग नमस्कार हो तथा दूसरे शारीरिक सुख या दुख भोग भी सर्वार्पण भाव में आप स्वीकार करें।''
4-स्पष्ट है कि यह अत्यंत सरल मार्ग है। आत्म समर्पण भाव से यदि श्री विद्या उपासना की जाए तो शीघ्र ही मां त्रिपुरा उपासक के जीवन का संचालन स्वयं करती हैं। उपासक सुख, समृद्धि सफलता तो पाता ही है, सत् चित आनंद भी उसके लिए सुलभ और सहज हो जाते हैं अर्थात् भौतिक और आत्मिक सुख दोनों प्राप्त हो जाते हैं। यही भोग, मोक्ष प्रदायिनी मां की अपने भक्तों से प्रतिज्ञा है।
श्रीविद्या साधना चतुर्विध पुरुषार्थ क्या है?-
09 FACTS;-
1-यह तो सर्व विदित है कि श्रीविद्या साधना चतुर्विध पुरुषार्थ अर्थात धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्रदायिनी एक मात्र साधना है ! लोक लोकान्तर व मत मतान्तर में इस साधना को लेकर बहुत अधिक भ्रम भी व्याप्त हैं ! किन्तु श्रीविद्या के मूलतः चार कुल हैं, और प्रत्येक कुल एक समान ही फलदायी भी है, केवल प्रत्येक कुल की साधना में साधना विधान व भाव का भेद होता है !
2-श्रीविद्या के प्रत्येक कुल में चार-चार महाविद्याओं का समूह होता है व प्रत्येक समूह में एक बालरुपा (धर्म की अधिष्ठात्री), एक तरुण रूपा (अर्थ की अधिष्ठात्री), एक प्रौढ़ा रूपा (काम की अधिष्ठात्री) व एक वृद्धा रूपा (निवृत्ति/मोक्ष की अधिष्ठात्री) महाविद्या शक्ति होती हैं !
3- यह मूलविद्या अपने साधक को फल भी इसी क्रम से ही प्रदान करती है तब जाकर श्रीविद्या साधना से चतुर्विध पुरुषार्थ की पूर्ण प्राप्ति होती है ! ओर चार-चार महाविद्याओं का समूह होने के कारण ही इस समूह को श्रीविद्या कहा जाता है ! यथा :-
______________ श्रीकुल
धर्म – बाल रूप –श्रीबाला त्रिपुर-सुन्दरी _______________ _______________
अर्थ – तरुण रूप – त्रिपुरसुन्दरी
काम – प्रौढ़ा रूप – राजराजेश्वरी
मोक्ष – वृद्धा रूप – ललिताम्बा
4-श्रीविद्या की दीक्षा के बाद साधना करते हुए सन्यासी व गृहस्थ साधक को प्रथम पुरुषार्थ धर्म की अधिष्ठात्री बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने नियन्त्रण व धर्म में स्थित करती है, इसके लिए वह अपने साधक के धर्म विरुद्ध सभी कर्मों व अवस्थाओं को अवरुद्ध कर देती है, ताकि वह अपने साधक के लिए नीति, न्याय व धर्म से परिपूर्ण स्वच्छ व स्वस्थ कर्मों, आय व अवस्थाओं का पुनर्निर्माण कर सके ! इसी मध्य पराम्बा अपने साधक के मन मस्तिष्क को ऐसी ऊर्जा से भर देती है कि वह साधक केवल धर्म का ही अनुसरण करता है !
5-तदुपरांत साधक के पुर्णतः धर्मनिष्ठ हो जाने पर बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने साधक को द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की अधिष्ठात्री तरुणीरूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की महाविद्या शक्ति अपने साधक के लिए नीति, न्याय व धर्म से परिपूर्ण स्वच्छ व स्वस्थ कर्मों, आय व अवस्थाओं का पुनर्निर्माण कर अपने साधक को धर्म के अधीन ही अर्थोपार्जन के अनेक मार्ग बनाकर सन्यासी को पूर्ण तृप्ति व गृहस्थ साधक को असीमित अन्न, धन से परिपूर्ण कर तृतीय पुरुषार्थ काम की प्रौढ़रूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित कर देती है !
6-फिर तृतीय पुरुषार्थ काम की अधिष्ठात्री प्रौढ़ा रूपा महाविद्या शक्ति अपने साधक को धर्म व अर्थ से परिपूर्ण रखते हुए सन्यासी को इन्द्रिय, तत्व व अवस्थाओं पर नियन्त्रण तथा गृहस्थ को भौतिक शासन सत्ता सहित असीमित सुख भोगों को प्रदान कर चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष की वृद्धारूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित कर देती है !
7-जहाँ वह मोक्ष की अधिष्ठात्री वृद्धा रूपा महाविद्या शक्ति अपने सन्यासी व गृहस्थ साधक को सदैव के लिए स्वयं में समाहित कर लेती है, इसमें भी गृहस्थ को यह सौभाग्य मृत्यु के समय और सन्यासी को जीवित रहते हुए ही प्राप्त हो जाता है !
8- इस गहन विद्या का निम्नलिखित दोनों में से किसी भी एक मार्ग से साधना पूर्ण कर चुका साधक ;इसके बाद अन्य भौतिक साधनाओं को नहीं करता है, क्योंकि इसके बाद अन्य साधनाओं की उसको न तो कोई आवश्यकता ही रह जाती है, और न ही वह साधनाएं उस साधक को किसी प्रकार से प्रभावित कर पाती हैं ! अर्थात मारण, मोहन, वशीकरण, तुष्टि, पुष्टि, शान्ति आदि षट्कर्म मोक्षाभिलाषी व श्रीविद्या उपासक के लिए नहीं होते हैं, और यह षट्कर्म श्रीविद्या उपासक को प्रभावित भी नहीं कर पाते हैं !
9-यह षट्कर्म करना तो उन लोगों का कार्य होता है जिनको यह षट्कर्म करके इन कर्मों के परिणामों को अनेक योनि व सुख दुःख के रूप में भोगने के लिए यहीं पर जीवन मृत्यु के चक्र के मध्य ही अनन्त काल तक घूमते रहना होता है !
1-"त्रिपुरा शब्द का महत्व ";-
07 FACTS;-
1-बाला, बाला-त्रिपुरा, त्रिपुरा-बाला, बाला-सुंदरी, बाला-त्रिपुर-सुंदरी, पिण्डी-भूता त्रिपुरा, काम-त्रिपुरा, त्रिपुर-भैरवी, वाक-त्रिपुरा, महा-लक्ष्मी-त्रिपुरा, बाला-भैरवी, श्रीललिता राजराजेश्वरी, षोडशी, श्रीललिता महा-त्रिपुरा-सुंदरी, के अन्य भेद सभी श्री श्री विद्या के नाम से पुकारे जाते है | इन सभी विद्या की उपासना ऊधर्वाम्नाय से होती है |
2-बाला, बाला-त्रिपुरा और बाला-त्रिपुर-सुंदरी नामों से एक ही महा विद्या को सम्बोधित किया जाता है | किसी भी नाम से उपासना की जाये, उपासना तो जगन्माता की ही की जाती है | नारदीय संहिता मे लिखा है कि -'वेद, धर्म-शास्त्र, पुराण, पञ्चरात्र आदि शास्त्रों मे एक 'परमेश्वरी' का वर्णन है, नाम चाहे भिन्न भिन्न हो|
3-किन्तु महा शक्ति एक ही है | कहीं मन्त्रोध्दार भेद से, कहीं आसन भेद से, कहीं सम्प्रदाय भेद से, कहीं पूजा भेद से, कहीं स्वरूप भेद से, कहीं ध्यान भेद से, "त्रिपुरा' के बहुत प्रकार है | कहीं त्रिपुरा भैरवी, कहीं त्रिपुरा ललिता, कहीं त्रिपुर सुंदरी, कहीं इन नामों से पृथक, कहीं मात्र त्रिपुरा या बाला ही कही जाती है |
4-त्रिपुरा अर्थात तीन पुरों की अधीश्वरी | तीन पुरियों में जाने के मार्ग भी तीन है | " मुक्ति' के पञ्च प्रकार १. सालोक्य २. सामीप्य ३.सारूप्य ४.सायुज्य और ५. कैवल्य है |
5-इनमे से सालोक्य का एक मार्ग है और कैवल्य का एक | शेष तीन सायुज्य, सारुप्य, और सामीप्य का एक अलग मार्ग है | इस प्रकार कुल तीन मार्ग हुए | त्रिविध मार्ग होने से पुरियां भी तीन है | तीन पुरियों की प्राप्ति अभीष्ट होने से पर-देवता को त्रिपुरा (त्रिपुर सुंदरी ) कहा गया है |
त्रिमूर्ति ( ब्रम्हा ,विष्णु , महेश्वर )की सृष्टि से पूर्व जो विधमान थी तथा जो वेद त्रयी ( ऋग ,यजु ,साम-वेद )से पूर्व विद्यमान थी एवं त्रि-लोकों (स्वर्ग ,पृथ्वी ,पाताल )के लय होने पर भी पुन: उनको ज्यो का त्यों बना देने वाली भगवती के नाम त्रिपुरा है |
6-विश्व भर मे तीन-तीन वस्तुओं के जितने भी समुदाय है वे सब भगवती बाला त्रिपुर सुंदरी के त्रिपुरा नाम में समाविष्ट है | अर्थात संसार में त्रि-संख्यात्मक जो कुछ है वे सभी वस्तुएं त्रिपुरा के तीन अक्षरों वाले नाम से ही उत्पन्न हुई है |
7-त्रि-संख्यात्मक वस्तुओं में कतिपय त्रि-वर्गात्मक वस्तुओं के नाम भी है जैसे..
12 POINTS;-
1-तीन देवता ;-
ब्रह्मा , विष्णु, महेश
2-तीन गुरु ;-
गुरु ,परम गुरु ,परमेष्ठी गुरु
3-तीन अग्नि ;-
गाहर्पत्य ,दक्षिनाग्नि ,आहवनीय अग्नि या ज्योति,
4-तीन ज्योतियां ;-
ह्रदय-ज्योति ,ललाट-ज्योति , शिरो-ज्योति
5-तीन शक्ति;-
इच्छा शक्ति , ज्ञान शक्ति , क्रिया शक्ति
6-शक्ति से तीन देवियों का भी बोध होता है ;-
ब्रह्माणी ,वैष्णवी ,रुद्राणी
7-तीन स्वर ;-
उदात्त ,अनुदात्त , त्वरित अर्थात
8-तीन चक्र;-
आज्ञा , शीर्ष ,ब्रह्म-ज्ञान |
9-त्रि-पदी ( तीन स्थान );-
जालन्धर-पीठ , काम-रूप-पीठ ,उड्डियान-पीठ
10-तीन नाद ;-
गगनानंद २. परमानन्द ३. कमलानन्द
11-त्रि-पुष्कर ( तीन तीर्थ ) ;-
शिर २. ह्रदय ३. नाभि अथवा ज्येष्ठ पुष्कर ,मध्यम पुष्कर ,कनिष्ठ पुष्कर |
12-त्रि-ब्रह्म ( तीन ब्रह्म );-
इड़ा , पिंगला ,सुषुम्ना अर्थात (अतीत ,अनागत ,वर्तमान )जैसे ह्रदय ,व्योम ,ब्रह्म-रंध्र |
2-बाला शब्द का महत्व :-
09 FACTS;-
1-जो अपने पुत्रों को तथा संसार को बल प्रदान करती है उसे बाला कहते है | सीधे-सादे अर्थ में यह समझना चाहियें की जो संसार के प्राणियों को बल प्रदान करती है वह "बाला" है बाला वही है जो हमारें समस्त अंगों को बल प्रदान करती है | नख से शिखा तक, रक्त से ओज तक, बुद्धि से बल तक जो प्राणी को बल प्रदान करती है वह शक्ति-मति अवश्य है , जिसके बिना प्राणी अपने को निस्सहाय समझता है |
2- " बाला " अर्थात सर्व-शक्ति संपन्न, आदि माता | बाला का काम ही वृद्धि करना है | वह मानव या किसी प्राणी-विशेष को ही बल प्रदान करती हो, ऐसा नहीं- आदि-युग से ही यह जगन्माता इस संसार को बढाती चली आ रही है | आदि माता द्वारा निर्मित सृष्टि को जननी से मिला रही है | बल-वर्धिनी माता की अद्बुत शक्ति से जो परिचित हो गया, उसका जन्म तो सफल हो ही जाता है, उसके सामने त्रिभुवन की सम्पति भी तृण के सामान तुच्छ हो जाती है, क्योंकि जिस पुत्र पर माता-पिता का स्नेह हाथ फिर जाता है वह धन्य हो जाता है |
3- "बाला' ( बल-वर्धिनी ) का सेवक कभी निर्बल नहीं रह सकता और विश्वासी पर किसकी दया नहीं होती | बाला पहले अपने पुत्र को बल देती है और फिर बुद्धि | इन सब की प्राप्ति तभी होगी, जब संसार के लोग माता बाला की शरण में आयेंगें |
4- विश्वात्मिका शक्ति " श्री बाला ".. शिव और शक्ति- तत्व सृष्टी के
आदि कारण है, वे जब ही कल्पना करते है , तभी सृष्टी होने लगती है | महा प्रलय के बाद जब "एकोहम बहु स्याम प्रजाये" की कल्पना होती है, तभी शक्ति-तत्व-शिव-तत्व से अलग होता है |
5-उसके पहले वे एक ही रहते है | उस एक रहने का नाम नाद है अर्थात सृष्टी की कल्पना होने के समय निष्क्रिय शिव और सक्रिय शक्ति की जो विपरीत रति होती है उसे ही नाद कहते है और इसी विपरीत रति द्वारा बिन्दु की उत्पति होती है |
6-शक्ति जब निष्कल शिव से युक्त होती है, तब वे चिद-रूपिणी और विश्वोत्तीर्णा अर्थात विश्व के बाहर रहती है और जब वे सकल शिव के साथ होती है तब वे विश्वात्मिका होती है | परा शक्ति वे है, जो चैतन्य के साथ विश्रमावस्था में रहती है | इनको ही कादी-विद्या में "महा-काली" कहा जाता है और हादी विद्या में "महा-त्रिपुर-सुंदरी" |
7-नाद से जो बिन्दु उत्पन्न होता है वही श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी है अर्थात महा-त्रिपुर-सुंदरी नाद है और श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी बिन्दु है | जो शक्ति विश्वोत्तीर्णा है, वही महा-त्रिपुर-सुंदरी है और जो विश्वात्मिका है वे ही श्रीबाला है |
8-दुसरे प्रकार से विचार करे तो उपनिषद के अनुसार जाग्रत, स्वप्न और सुशुप्ताभिमानी विश्व "तैजस और प्राज्ञ पुरुष है | इन त्रि-मात्राओं के दर्शन से पता चलता है कि शक्ति ही जगत-रूप में अभिव्यक्त है | वाक्य द्वारा इसका वर्णन नहीं किया जा सकता | अत: यह सिद्धांत निकलता है की नाद को बिन्दु में युक्त करना चाहिए |
9-उक्त व्याख्या से स्पष्ट है की महा-त्रिपुर-सुंदरी से श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी को युक्त समझना आवश्यक है | वास्तव में नामान्तर से दो भेद "शक्ति" के प्रतीत होते है, जो वस्तुतः एक ही है, कोई भेद नहीं है | जो नाद है वही बिन्दु है | जो महा-त्रिपुर-सुंदरी है वही श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी है |
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महात्रिपुर सुन्दरी साधना(‘पञ्च-दशी’ )का महत्व ;-‘
12 FACTS;-
1-सोलह कला,श्री जो प्रदान करे वही षोडशी है। ये ऐश्वर्य,धन,पद जो भी चाहिए सभी कुछ प्रदान कर देती है।इनके श्री चक्र को श्रीयंत्र भी कहा जाता है।इनकी साधना से भक्त जो इच्छा करेगा,वह पा ही लेगा।ये त्रिपुरा समस्त भुवन मे सबसे अधिक सुन्दर है।इन्हे जो एक बार देख ले तो दूसरी कोई भी रुप देखने की रुची नही रहती।
2-इनकी पलक कभी नही गिरती है,ये जीव को शिव बना देती है।अभाव क्या है,कर्म क्या है,इनके भक्त क्या जाने,भक्त जैसी भी इच्छा करते है,वह सभी उन्हे प्राप्त हो जाता है।ये सभी की अधिश्वरी है।श्याम वर्ण मे काली कामाख्या है,वही गौर वर्ण मे राज राजेश्वरी है।सौन्दर्य रुप,श्रृंगार,विलास,स्वास्थ्य सभी कुछ इनके कृपा मात्र से प्राप्त होता है।
3-‘श्री षोडशी’ या ‘महा-त्रिपुर-सुन्दरी’ का मुख्य मन्त्र सोलह अक्षरों का है, उसी के अनुरुप उनका नाम है । पूजा यन्त्र ‘श्रीललिता’ – जैसा ही है ।
‘श्री ललिता’ एवं श्री ‘षोडशी’ के मन्त्रों में तीन ‘कूटों’ का समावेश है, जो क्रमशः ‘वाक्-कूट’, काम-कूट’ तथा ‘शक्ति-कूट’ नामों से प्रसिद्ध हैं । यहाँ ज्ञातव्य है कि पञ्चदशी के कूट-त्रय ‘क’, ‘ह′ या ‘स’ से प्रारम्भ होते हैं । अतः विभिन्न ‘कादि’, ‘हादि’ और ‘सादि’ – विद्या नाम से जाने जाते हैं ।
4-भगवती षोडशी से सम्बन्धित पूजा-यन्त्र ‘श्री-चक्र’ या ‘श्री-यन्त्र’ की विशेष ख्याति है । इस तरह का जटिल पूजा-यन्त्र अन्य किसी देवता का नहीं है । वह पिण्ड और ब्रह्माण्ड के समस्त रहस्यों का बोधक है । इसी से उसे ‘यन्त्र-राज’ या ‘चक्र-राज’ भी कहते हैं ।
5-महात्रिपुर सुन्दरी श्री कुल की विद्या है। महाविद्या समुदाय में त्रिपुरा नाम की अनेक देवियां हैं, जिनमें त्रिपुरा-भैरवी, त्रिपुरा और त्रिपुर सुंदरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। देवी त्रिपुरसुंदरी ब्रह्मस्वरूपा हैं, भुवनेश्वरी विश्वमोहिनी हैं। ये श्रीविद्या, षोडशी, ललिता, राज-राजेश्वरी, बाला पंचदशी अनेक नामों से जानी जाती हैं। त्रिपुरसुंदरी का शक्ति-संप्रदाय में असाधारण महत्त्व है। महात्रिपुर सुन्दरी देवी माहेश्वरी शाक्ति की सबसे मनोहर श्री विग्रह वाली सिद्घ देवी हैं।
6-श्री श्रीविद्या’ का मुख्य मन्त्र पन्द्रह अक्षरों का होने से उनका नामान्तर ‘पञ्च-दशी’ भी है । इनका पूजा-यन्त्र ‘श्री-चक्र’ या ‘श्री-यन्त्र’ नाम से प्रसिद्ध
है ।ये श्री कुल की विद्या है,इनकी पूजा गुरु मार्ग से की जाती है।ये साधक को पूर्ण समर्थ बनाती है,आकर्षण,वशित्व,कवित्व,भौतिक सुख सभी को देने वाली है।इनकी साधना से सभी भोग भोगते हुये मोक्ष की प्राप्ती होती है।ये परम करुणामयी जीव को उस स्वरुप को प्रकट करती है तो जीव शिव बन अपना स्वरुप देखता है की वह तो मै ही हूँ।ॐ तत्सत् इस रहस्य से परिचित होता है।
7-इनकी पूजा मे श्री बाला त्रिपुरसुन्दरी की भी पूजा की जाती है।इनकी साधना से साधक का कुन्डलिनी शक्ति खुल जाती है।ये श्री माँ है,सारे अभावो को दूर कर भक्त को धन,यश के साथ दिव्यदृष्टि प्रदान करती है।ये चार पायों से युक्त जिनके नीचे ब्रह्मा,विष्णु,रुद्र,ईश्वर पाया बन जिस सिंहासन को अपने मस्तक पर विराजमान किये है उसके ऊपर सदा शिव लेटे हुये है और उनके नाभी से एक कमल जो खिलता हुआ,उसपर ये त्रिपुरा विराजमान है।
8-सैकड़ों पूर्वजन्म के पुण्य प्रभाव और गुरु कृपा से इनका मंत्र मिल पाता है।किसी भी ग्रह,दोष,या कोई भी अशुभ प्रभाव इनके भक्त पर नही हो पाता।श्रीयंत्र की पूजन सभी के वश की बात नही है।किसी भी महाविद्या की साधना मे गुरु शिव,,गणेश,भैरव की पूजा अनिवार्य होती है।
9-इनकी महिमा अवर्णनीय है। संसार के समस्त तंत्र-मंत्र इनकी आराधना करते हैं। प्रसन्न होने पर ये भक्तों को अमूल्य निधियां प्रदान कर देती हैं। चार दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें तंत्र शास्त्रों में ‘पंचवक्त्र’ अर्थात् पांच मुखों वाली कहा गया है। आप सोलह कलाओं से परिपूर्ण हैं, इसलिए इनका नाम ‘षोडशी’ भी है।
10-कलिका पुराण के अनुसार एक बार पार्वती जी ने भगवान शंकर से पूछा, ‘भगवन! आपके द्वारा वर्णित तंत्र शास्त्र की साधना से जीव के आधि-व्याधि, शोक संताप, दीनता-हीनता तो दूर हो जाएगी, किन्तु गर्भवास और मरण के असह्य दुख की निवृत्ति और मोक्ष पद की प्राप्ति का कोई सरल उपाय बताइए।’
11-तब पार्वती जी के अनुरोध पर भगवान शंकर ने त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या साधना-प्रणाली को प्रकट किया। "भैरवयामल और शक्तिलहरी" में त्रिपुर सुन्दरी उपासना का विस्तृत वर्णन मिलता है। ऋषि दुर्वासा आपके परम आराधक थे। इनकी उपासना "श्री चक्र" में होती है।
12-आदिगुरू शंकरचार्य ने भी अपने ग्रन्थ सौन्दर्यलहरी में त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या की बड़ी सरस स्तुति की है। कहा जाता है भगवती त्रिपुर सुन्दरी के आशीर्वाद से साधक को भोग और मोक्ष दोनों सहज उपलब्ध हो जाते हैं।
देवी श्री विद्या त्रिपुरसुन्दरी के स्वरूप का वर्णन ;-
04 FACTS;-
1-महाविद्याओं में तीसरे स्थान पर विद्यमान महा शक्ति त्रिपुरसुंदरी, तीनों लोकों में सोलह वर्षीय युवती स्वरूप में सर्वाधिक मनोहर तथा सुन्दर रूप से सुशोभित हैं। देवी का शारीरिक वर्ण हजारों उदीयमान सूर्य के कांति कि भाँति है, देवी की चार भुजा तथा तीन नेत्र (त्रि-नेत्रा) हैं। अचेत पड़े हुए सदाशिव के नाभि से उद्भूत कमल के आसन पर देवी विराजमान है। देवी अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, धनुष तथा बाण से सुशोभित है।
2- देवी पंचवक्त्र है अर्थात देवी के पांच मस्तक या मुख है, चारों दिशाओं में चार तथा ऊपर की ओर एक मुख हैं। देवी के मस्तक तत्पुरुष, सद्ध्योजात, वामदेव, अघोर तथा ईशान नमक पांच शिव स्वरूपों के प्रतीक हैं क्रमशः हरा, लाल, धूम्र, नील तथा पीत वर्ण वाली हैं।
3- देवी दस भुजा वाली हैं तथा अभय, वज्र, शूल, पाश, खड़ग, अंकुश, टंक, नाग तथा अग्नि धारण की हुई हैं। देवी अनेक प्रकार के अमूल्य रत्नों से युक्त आभूषणों से सुशोभित हैं तथा देवी ने अपने मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण कर रखा हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा यम देवी के आसन को अपने मस्तक पर धारण करते हैं।
4-देवी काली की समान ही देवी त्रिपुरसुंदरी चेतना से सम्बंधित हैं। देवी त्रिपुरा, ब्रह्मा, शिव, रुद्र तथा विष्णु के शव पर आरूढ़ हैं, तात्पर्य, चेतना रहित देवताओं के देह पर देवी चेतना रूप से विराजमान हैं तथा ब्रह्मा, शिव, विष्णु, लक्ष्मी तथा सरस्वती द्वारा पूजिता हैं। कुछ शास्त्रों के अनुसार, देवी कमल के आसन पर भी विराजमान हैं, जो अचेत शिव के नाभि से निकलती हैं शिव, ब्रह्मा, विष्णु तथा यम, चेतना रहित शिव सहित देवी को अपने मस्तक पर धारण किये हुए हैं।
आदि देवी की उपासना-पीठ ;-
04 FACTS;-
1-यंत्रों में श्रेष्ठ श्री यन्त्र या श्री चक्र, साक्षात् देवी त्रिपुरा का ही स्वरूप हैं तथा श्री विद्या या श्री संप्रदाय, पंथ या कुल का निर्माण करती हैं। देवी त्रिपुरा आदि शक्ति हैं, कश्मीर, दक्षिण भारत तथा बंगाल में आदि काल से ही, श्री संप्रदाय विद्यमान हैं तथा देवी आराधना की जाती हैं, विशेषकर दक्षिण भारत में देवी श्री विद्या नाम से विख्यात हैं।
2- मदुरै में विद्यमान मीनाक्षी मंदिर, कांचीपुरम में विद्यमान कामाक्षी मंदिर, दक्षिण भारत में हैं तथा यहाँ देवी श्री विद्या के रूप में पूजिता हैं। वाराणसी में विद्यमान राजराजेश्वरी मंदिर, देवी श्री विद्या से ही सम्बंधित हैं तथा आकर्षण सम्बंधित विद्याओं की प्राप्ति हेतु प्रसिद्ध हैं।
3-देवी की उपासना श्री चक्र में होती है, श्री चक्र से सम्बंधित मुख्य शक्ति देवी त्रिपुरसुंदरी ही हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध गुप्त अथवा परा शक्तियों, विद्याओं से हैं; तन्त्र की ये अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। तंत्र में वर्णित मरण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन इत्यादि प्रयोगों की देवी अधिष्ठात्री है। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध गुप्त अथवा परा शक्तियों, विद्याओं से हैं, तन्त्र की ये अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। समस्त प्रकार के तांत्रिक कर्म देवी की कृपा के बिना सफल नहीं होते हैं।
4-योनि-पीठ कामाख्या;-
आदि काल से ही देवी के योनि-पीठ कामाख्या में, समस्त तंत्र साधनाओं का विशेष विधान हैं। देवी आज भी वर्ष में एक बार देवी ऋतु वत्सल होती है जो ३ दिन का होता है, इस काल में असंख्य भक्त तथा साधु, सन्यासी देवी कृपा प्राप्त करने हेतु कामाख्या धाम आते हैं। देवी कि रक्त वस्त्र जो ऋतुस्रव के पश्चात प्राप्त होता है, प्रसाद के रूप में प्राप्त कर उसे अपनी सुरक्षा हेतु अपने पास रखते हैं।
श्री कुल की अधिष्ठात्री देवी ; -
13 FACTS;-
1-देवी त्रिपुरा या त्रिपुरसुंदरी, श्री यंत्र तथा श्री मंत्र के स्वरूप से समरसता रखती हैं, जो यंत्र-मंत्रो में सर्वश्रेष्ठ पद पर आसीन हैं, यन्त्र शिरोमणि हैं, देवी साक्षात् श्री चक्र रूप में यन्त्र के केंद्र में विद्यमान हैं। श्री विद्या के नाम से देवी एक अलग संप्रदाय का भी निर्माण करती हैं, जो श्री कुल के नाम से विख्यात हैं तथा देवी, श्री कुल की अधिष्ठात्री हैं।
2-देवी श्री विद्या, स्थूल, सूक्ष्म तथा परा, तीनों रूपों में 'श्री चक्र' में विद्यमान हैं, चक्र स्वरूपी देवी त्रिपुरा श्री यन्त्र के केंद्र में निवास करती हैं, चक्र ही देवी का आराधना स्थल हैं तथा चक्र के रूप में देवी की पूजा आराधना होती हैं। श्री यन्त्र, सर्व प्रकार के कामनाओं को पूर्ण करने की क्षमता रखती हैं, इसे त्रैलोक्य मोहन यन्त्र भी कहाँ जाता हैं। श्री यन्त्र को महा मेरु, नव चक्र के नाम से भी जाना जाता हैं।
3-यह यन्त्र देवी लक्ष्मी से भी समरसता रखती हैं, देवी धन, सौभाग्य, संपत्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं, उनकी आराधना श्री यन्त्र के मध्य में होती हैं। सामान्यतः धन तथा सौभाग्य की दात्री होने के कारण, श्री चक्र में देवी की आराधना, पूजा होती हैं। सामान्य लोगों के पूजा घरों के साथ कुछ विशेष मंदिरों में देवी, इसी श्री चक्र के रूप में ही पूजिता हैं।
4-कामाक्षी मंदिर, कांचीपुरम, तमिलनाडु, अम्बाजी मंदिर, गब्बर पर्वत, गुजरात (सती पीठों), देवी की पूजा श्री चक्र के रूप में ही होती हैं। शास्त्रों में यंत्रों को देवताओं का स्थूल देह माना गया हैं, श्री यन्त्र की मान्यता सर्वप्रथम यन्त्र होने से भी हैं, यह सर्व-रक्षा कारक, सौभाग्य और सर्व सिद्धि दायक तथा सर्व-विघ्न नाशक हैं। निर्धनता तथा ऋण से मुक्ति हेतु, श्री यन्त्र की स्थापना तथा पूजा अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, श्री यन्त्र के स्थापना मात्र से लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती हैं।
5-श्री यंत्र के मध्य या केन्द्र या में एक बिंदु है, इस बिंदु के चारों ओर 9 अंतर्ग्रथित त्रिभुज हैं जो 9 शक्तिओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।
1- बिंदु,
2-त्रिकोण,
3-अष्टकोण,
4-दशकोण,
5-बहिर्दर्शरा,
6-चतुर्दर्शारा,
7- अष्ट दल,
8- षोडश दल,
9- वृत्तत्रय,
10- भूपुर से
6-भूपुर से श्री यन्त्र का निर्माण हुआ हैं,9 त्रिभुजों के अन्त ग्रथित होने से कुल 43 लघु त्रिभुज बनते हैं तथा अपने अंदर समस्त प्रकार के अलौकिक तथा दिव्य शक्ति समाये हुए हैं। 98 शक्तिओं की आराधना श्री चक्र में की जाती हैं तथा समस्त शक्तियां सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नियंत्रण तथा सञ्चालन करती हैं।
7-कामेश्वरी की स्वारसिक समरसता को प्राप्त परा-तत्व ही महा त्रिपुरसुंदरी के रूप में विराजमान हैं तथा यही सर्वानन्दमयी, सकलाधिष्ठान ( सर्व स्थान में व्याप्त ) देवी ललिताम्बिका हैं। देवी में सभी वेदांतो का तात्पर्य-अर्थ समाहित हैं तथा चराचर जगत के समस्त कार्य इन्हीं देवी में प्रतिष्ठित हैं।
8- देवी में न शिव की प्रधानता हैं और न ही शक्ति की, अपितु शिव तथा शक्ति ('अर्धनारीश्वर') दोनों की समानता हैं। समस्त तत्वों के रूप में विद्यमान होते हुए भी, देवी सबसे अतीत हैं, परिणामस्वरूप इन्हें ‘तात्वातीत’ कहा जाता हैं, देवी जगत के प्रत्येक तत्व में व्याप्त भी हैं और पृथक भी हैं, परिणामस्वरूप इन्हें ‘विश्वोत्तीर्ण’ भी कहा जाता हैं।
9-देवी ही परा ( जिसे हम देख नहीं सकते ) विद्या भी कही गई हैं, ये दृश्यमान प्रपंच इनका केवल उन्मेष मात्र हैं , देवी चर तथा अचर दोनों तत्वों के निर्माण करने में समर्थ हैं तथा निर्गुण तथा सगुण दोनों रूप में अवस्थित हैं। ऐसे ही परा शक्ति, नाम रहित होते हुए भी अपने साधकों पर कृपा कर, सगुण रूप धारण करती हैं।
10-देवी विविध रूपों में अवतरित हो विश्व का कल्याण करती हैं तथा श्री विद्या के नाम से विख्यात हैं। देवी ब्रह्माण्ड की नायिका हैं तथा विभिन्न प्रकार के असंख्य देवताओं, गन्धर्वो, राक्षसों इत्यादि द्वारा सेवित तथा वंदिता हैं।
11-देवी त्रिपुरा, चैतान्य-रुपा चिद शक्ति तथा चैतन्य ब्रह्म हैं। भंडासुर की संहारिका, त्रिपुरसुंदरी, सागर के मध्य में स्थित मणिद्वीप का निर्माण कर चित्कला के रूप में विद्यमान हैं। तदनंतर, तत्वानुसार अपने त्रिविध रूप को व्यक्त करती हैं,
1-आत्म-तत्व
2-विद्या-तत्व
3- शिव-तत्व
12-इन्हीं तत्व-त्रय के कारण ही देवी शाम्भवी ,श्यामा तथा विद्या के रूप में त्रिविधता प्राप्त करती हैं। इन तीनों शक्तिओं के पति या भैरव क्रमशः परमशिव, सदाशिव तथा रुद्र हैं।
13-देवी त्रिपुरसुन्दरी के पूर्व भाग में श्यामा और उत्तर भाग में शाम्भवी विराजित हैं तथा इन्हीं तीन विद्याओं के द्वारा अन्य अनेक विद्याओं का प्राकट्य या प्रादुर्भाव हुआ हैं तथा श्री विद्या परिवार का निर्माण करती हैं। भक्तों को अनुग्रहीत करने की इच्छा से, भंडासुर का वध करने के निमित्त एक होना महाशक्ति का वैविध्य हैं।
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साधना के प्रकार;-
09 FACTS;-
यह साधना मुख्यतः दो प्रकार से की जाती है :-
प्रथम प्रकार में (दीक्षा लेकर):-
03 POINTS;-
1-श्रीविद्या पूर्णाभिषेक दीक्षा लेकर साधना संपन्न की जाती है, जिसका प्रथम चरण पूर्ण होने के बाद शेष तीन चरणों के लिए साधक स्वतन्त्र हो जाता है, और केवल कर्ता व दृष्टा मात्र होता है, क्योंकि प्रथम पद धर्म में स्थित होने के बाद के तीनों चरणों में पराम्बा द्वारा अपने साधक को स्वयं में लीन कर लेने तक की क्रिया को पराम्बा अपने साधक से स्वयं ही संपन्न कराती है, और इसी मध्य पराम्बा अपने साधक के सभी कर्मों को भी आंशिक रूप में भोगवाकर कर्मों के बंधन से निवृत कर देती है, क्योंकि मोक्ष के लिए कर्म बंधन से निवृत्ति परम अनिवार्य है !
2-इस प्रकार से शेष तीन चरण भी सहज ही संपन्न हो जाते हैं, और साधक को नियमों की बाध्यता भी प्रभावित नहीं करती है ! यह विधि सर्वोत्तम है क्योंकि इसमें एक बार प्रथम चरण किसी प्रकार पूर्ण होने के बाद साधक पर पराम्बा का स्वतन्त्र नियन्त्रण हो जाने के कारण पथभ्रष्ट, पतन व त्रुटि होने की सम्भावनाएं पुर्णतः शून्य हो जाती हैं !
3-किन्तु इस विधि से साधना करने वाले साधक को गुरुगम्य होना भी अनिवार्य होता है, तभी तो गुरु उस शिष्य की पात्रता व ग्राह्यता के आधार पर उसको गहन रहस्यों को समझाते हुए सफल होने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है !
दुसरे प्रकार में (दीक्षा अनिवार्य नहीं ) :-
08 POINTS;-
1-उपरोक्त महाविद्या शक्तियों की बालरूपा से वृद्धा रूपा तक की चारों महाविद्याओं की एक-एक करके क्रमशः क्रमशः धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करते हुए साधना की जाती है, इसमें प्रत्येक अवस्था के अनुसार पृथक-पृथक नियमों की बाध्यता सहित साधना विधान पूर्ण करना
पड़ता है !
2-यह अनिवार्य नहीं होता है कि चारों महाविद्याओं के पृथक-पृथक साधना विधान एक-एक या दो-दो बार में ही निर्बाध संपन्न हो जायेंगे!
3-यदि यह क्रम पूर्ण हो जाए तब पराम्बा चतुर्थ चरण में अपने साधक के सभी कर्मों को भी आंशिक रूप में भोगवाकर कर्मों के बंधन से निवृत कर उसका मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है !
4-किन्तु चारों पुरुषार्थों की कामना करने वाले साधकों को अकेले किसी एक महाविद्या की साधना करके चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर लेने की भावना व आग्रह से सदैव दूर ही रहना चाहिए, क्योंकि यदि आप केवल धर्म की सूचक बाल स्वरुपा महाविद्या की उपासना करते हैं तो धर्म के साथ-साथ आपके पास धन व सत्ता भी हो यह अनिवार्य नहीं है, क्योंकि बाल स्वरुपा महाविद्या पुर्णतः धर्म ही सिखाती हैं !
5-और यदि आप केवल अर्थ की सूचक तरुण स्वरुपा महाविद्या की उपासना करते हैं तो थोड़ा सा धन हाथ में आते ही आप धर्म को कैसे भूल जाते हैं यह आपको स्वयं ही ज्ञात है, क्योंकि तरुण स्वरुपा महाविद्या अतिशय धन के मार्ग बनाती हैं !
6-इसी प्रकार से यदि आप केवल काम की सूचक प्रौढ़ा स्वरुपा महाविद्या की उपासना करते हैं तो थोड़ा सा धन ओर भले ही छोटा सा ग्राम प्रधान के रूप में थोड़ी सत्ता हाथ में आते ही आप धर्म, नीति ओर मानवता को कैसे भूल जाते हैं यह भी आपको स्वयं ही ज्ञात है, क्योंकि प्रौढ़ा स्वरुपा महाविद्या शासन सत्ता प्रदान करती हैं !
7- तो फिर ऐसे में कर्म बंधन से मुक्त हुए बिना चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति केवल दिवास्वपन से अधिक और कुछ नहीं है, किन्तु यदि धर्म की सूचक बाल स्वरुपा महाविद्या की उपासना व उसका अनुसरण करते हैं तो धर्म जनित संस्कार आपको मोक्ष मार्गी होने के लिए प्रेरित अवश्य ही करेंगे !
8-चारों पुरुषार्थों की कामना करने वाले साधकों को श्रीविद्या क्रम के सम्पूर्ण चारों क्रम की साधना को संपन्न करना चाहिए ! और इस प्रकार से किसी भी कुल में श्रीविद्या की चारों क्रम की पूर्ण साधना संपन्न कर चुका साधक धर्म से प्रारम्भ होकर मोक्ष तक निश्चित ही पहुँच जाता है, यह परम सत्य है !
श्रीबाला त्रिपुर-सुन्दरी साधना क्रम;-‘
07 FACTS;-
`1-दस महा-विद्याओ’ में तीसरी महा-विद्या भगवती षोडशी है, अतः इन्हें तृतीया भी कहते हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि वास्तव में आदि-शक्ति एक ही हैं, उन्हीं का आदि रुप ‘काली’ है और उसी रुप का विकसित स्वरुप ‘षोडशी’ है, इसी से ‘षोडशी’ को ‘रक्त-काली’ नाम से भी स्मरण किया जाता है । भगवती तारा का रुप ‘काली’ और ‘षोडशी’ के मध्य का विकसित स्वरुप है । प्रधानता दो ही रुपों की मानी जाती है और तदनुसार ‘काली-कुल′ एवं ‘श्री-कुल′ इन दो विभागों में दशों महा-विद्यायें परिगणित होती हैं ।
2-भगवती षोडशी के मुख्यतः तीन रुप हैं – ( 1) श्री बाला त्रिपुर-सुन्दरी या श्री बाला त्रिपुरा, ( 2) श्री षोडशी या महा-त्रिपुर सुन्दरी तथा ( 3) श्री ललिता त्रिपुर-सुन्दरी या श्रीश्रीविद्या ।
माँ की पूजाप्रधान रूप से तीन स्वरूपों में होती है
2-1- बाल सुंदरी- 8 वर्षीया कन्या रूप में
2-2- षोडशी त्रिपुर सुंदरी - 16 वर्षीया सुंदरी/युवा स्वरूप
2-3- ललिता त्रिपुर सुंदरी- वृद्धा रूप
माँ की दीक्षा और साधना भी इसी क्रम में करनी चाहिए।
3-आठ वर्षीया स्वरुप बाला त्रिपुर सुन्दरी का, षोडश-वर्षीय स्वरुप षोडशी स्वरुप तथा ललिता त्रिपुर सुन्दरी स्वरुप युवा अवस्था को माना है ।
श्री विद्या की प्रधान देवि ललिता त्रिपुर सुन्दरी है । यह धन, ऐश्वर्य भोग एवं मोक्ष की अधिष्ठातृ देवी है । अन्य विद्यायें को मोक्ष की विशेष फलदा है, तो कोई भोग की विशेष फलदा है परन्तु श्रीविद्या की उपासना से दोनों ही करतल-गत हैं ।
4-इसकी उपासना तंत्रों में अति रहस्यमय व गुप्त है तथा पूर्व जन्म के विशेष संस्कारों के बलवान होने पर ही इस विद्या की दीक्षा का योग माना है । साधक को क्रम-पूर्वक दीक्षा लेनी चाहिए तभी उत्तम रहता है । कहीं-कहीं ऐसा देखा गया है कि जिन्होंने क्रम-दीक्षा के बिना ललिता त्रिपुर सुन्दरी की उपासना सीधे की है, उन्हें पहले आर्थिक कठिनाईयाँ प्राप्त हुई है एवं बाद में उसका विकास हुआ ।
5-‘श्री बाला’ का मुख्य मन्त्र तीन अक्षरों का है और उनका पूजा-यन्त्र ‘नव-योन्यात्मक’ है । अतः उन्हें ‘त्रिपुरा’ या ‘त्र्यक्षरी’ नामों से भी अभिहित करते हैं ।
6-श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी मंत्र:-
ॐ - ऐं - क्लीं – सौः
रुद्राक्ष की माला का प्रयोग करें।
51 माला मंत्र 21 दिन तक लगातार जप अवश्य करें ।
7-मंत्र कब होता है सिद्ध.. 04 लाख बार जपने पर
त्रिपुर सुंदरी साधना क्रम;-
03 FACTS;-
1-ध्यान मंत्र;-
बालार्कायुंत तेजसं त्रिनयना रक्ताम्ब रोल्लासिनों।
नानालंक ति राजमानवपुशं बोलडुराट शेखराम्।।
हस्तैरिक्षुधनु: सृणिं सुमशरं पाशं मुदा विभृती।
श्रीचक्र स्थित सुंदरीं त्रिजगता माधारभूता स्मरेत्।।
2-आवाहन मंत्र;-
ऊं त्रिपुर सुंदरी पार्वती देवी मम गृहे आगच्छ आवहयामि स्थापयामि।
रुद्राक्ष/कमल गट्टे की माला लेकर करीब नीचे लिखे मंत्र का जप करें
3-पंचदशी मंत्र:-
क ए इ ल ह्रीं ।
ह स क ह ल ह्रीं।
स क ल ह्रीं श्रीं॥
श्रावण मास में आराधना;-
09 FACTS;-
1-श्रावण मास में शिव कृपा पाने के लिए भक्त कई तरह की पूजा करते हैं। इस दौरान यदि माता त्रिपुर सुंदरी की आराधना की जाए, तो भक्त कई परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं। मां त्रिपुर सुंदरी पार्वती का ही रूप हैं और इन्हें प्रसन्न करने का अर्थ है, शिव कृपा की प्राप्ति। यह मास पूजा-पाठ एवं शिव आराधना का महीना है। इस दौरान शिव जी की स्तुति करने से भक्तों के जीवन में खुशहाली आती है और उनके राह की बाधाएं भी दूर होती हैं। इस मास में शिव आराधना का काफी अधिक महत्व है।
2-दरअसल हमार जीवन एवं शरीर नौ ग्रहों से प्रेरित होता है। इन ग्रहों में चंद्रमा पृथ्वी के निकटस्थ होने की वजह से हमारे शरीर पर सबसे अधिक प्रभाव डालता है। चंद्रमा के स्वामी हैं, शिव। श्रावण ऐसा मास है, जिसमें वातावरण में अत्यधिक नमी होती है। यह सब चंद्रमा के प्रभाव की वजह से होता है। इसलिए इस मास में शिव को प्रसन्न करने का उपाय किया जाता है, ताकि उनकी कृपा से शिव कृपा से भी भक्त लाभान्वित हो जाएं।
3- अगर चंद्रमा की कृपा भक्तों पर हो जाए, तो हमें राजसी सुख मिल सकते हैं और यश भी मिलता है। अगर व्यापारिक क्षेत्रों में तरक्की चाहते हों, तो वे इस मास में किसी भी सप्ताह यह साधना कर सकते हैं। दस महाविधाओं में से एक महाविद्या त्रिपुर सुंदरी, राज राजेश्वरी, षोड्षी, पार्वती जी की सूक्ष्म साधना भी लाभप्रद साबित हो सकती है।
4-इस मास के लिए किसी भी सोमवार से अगले सोमवार तक साधना की जा सकती है। प्रात: से लेकर रात्रि तक जो भी समय सुविधापूर्ण लगे, उसमें साधना की जा सकती है। साधना काल के सप्ताह में मांस, मदिरा आदि अभक्ष्य पदार्थों के सेवन से परहेज करना चाहिए। साथ ही अनैतिक कृत्यों से भी बचना चाहिए।
5-साधना आरंभ करने से पहले स्नान आदि कर शुद्ध होकर सफेद वस्त्र धारण करें। इसके बाद रेशमी या सफेद रंग के वस्त्र का आसन लें। एक सुपारी को कलावे से अच्छी तरह लपेटकर उसे एक थाली में सफेद वस्त्र के ऊपर रखें। अब देवी पार्वती का ध्यान करते हुए उनसे प्रार्थना करते हुए उनसे उस सुपारी में अपना अंश प्रदान करने की प्रार्थना करें। यह क्रिया ग्यारह बार करें। अब देवी का ध्यान, आवाहन मंत्र जपे।
6-इसके बाद देवी को सुपारी में प्रतिष्ठित कर दें। इसे तिलक करें और धूप-दीप आदि पूजन सामग्रियों के साथ पंचोपचार विधि से पूजन पूर्ण करें अब कमल गट्टे की माला लेकर उपरोक्त लिखे मंत्र का जप करें
7-जब मंत्र जप पूर्ण हो जाए, तो देवी जी से आज्ञा लेकर अपने द्वारा की गई गलतियों की क्षमा मांगकर पूजन कार्य समाप्त करें। यह प्रक्रिया लगातार सात दिनों तक करें। आठवें दिन खील, सफेद तिल, बताशे, चीनी और गुलाब के फूल, बेल पत्र को एक साथ मिलाकर 108 आहूतियों से हवन करें। हवन के लिए मंत्र के आगे ऊं नम: स्वाहा: जोड़कर मंत्रोच्चार करें।
8-साधना आरंभ करने से पहले यह संकल्प जरूर लें कि साधना का उद्देश्य क्या है और यथाशक्ति दान क्या होगा? इस साधना से आपकी कामना पूरी होगी और शिव कृपा भी मिलेगी। पूजा के बाद पूजन सामग्री को एक जगह इकट्ठा कीजिए और देवी से प्रार्थना करें कि वे अब अपने स्थान पर वापस जा सकती हैं। उन्हें धन्यवाद देते हुए साधना का विसर्जन करें। इसके बाद सारी पूजन सामग्री की माला ,प्रतिष्ठित सुपारी को आदरपूर्वक नदी में विसर्जित करें।
9-मंत्र कब होता है सिद्ध .. 16 लाख बार जपने पर सिद्ध हो जाता है
माँ ललिता त्रिपुर सुंदरी आराधना;-
03 FACTS;-
1-ललिता त्रिपुर सुंदरी या त्रिपुर सुंदरी को श्री विद्या भी कहा जाता है ,जो दस महाविद्या में से एक प्रमुख महाविद्या हैं और श्री कुल की अधिष्ठात्री |इन्हें ५१ शक्तिपीठों में भी स्थान प्राप्त है और कामाख्या को भी इनका स्वरुप कहा जाता है [यद्यपि कामाख्या को काली से भी जोड़ा जाता है ]|देवी ललिता आदि शक्ति का वर्णन देवी पुराण में प्राप्त होता है. भगवान शंकर को हृदय में धारण करने पर सती नैमिष में लिंगधारिणीनाम से विख्यात हुईं इन्हें ललिता देवी के नाम से पुकारा जाने लगा.
2-एक अन्य कथा अनुसार ललिता देवी का प्रादुर्भाव तब होता है जब ब्रह्मा जी द्वारा छोडे गये चक्र से पाताल समाप्त होने लगा. इस स्थिति से विचलित होकर ऋषि-मुनि भी घबरा जाते हैं, और संपूर्ण पृथ्वी धीरे-धीरे जलमग्न होने लगती है. तब सभी ऋषि माता ललिता देवी की उपासना करने लगते हैं. उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवी जी प्रकट होती हैं तथा इस विनाशकारी चक्र को थाम लेती हैं. सृष्टि पुन: नवजीवन को पाती है.
3-श्री ललिता जयंती पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है. पौराणिक मान्यतानुसार इस दिन देवी ललिता भांडा नामक राक्षस को मारने के लिए अवतार लेती हैं. राक्षस भांडा कामदेव के शरीर के राख से उत्पन्न होता है. इस दिन भक्तगण षोडषोपचार विधि से मां ललिता का पूजन करते है. इस दिन मां ललिता के साथ साथ स्कंदमाता और शिव शंकर की भी शास्त्रानुसार पूजा की जाती है.
4-माँ ललिता त्रिपुर सुंदरी रक्त काली स्वरूपा हैं।बृहन्नीला तंत्र के अनुसार काली के दो भेद कहे गए हैं कृष्ण वर्ण और रक्त वर्ण।महा विद्याओं में
कोई स्वरुप भोग देने में प्रधान है तो कोई स्वरूप मोक्ष देने में परंतु त्रिपुरसुंदरी अपने साधक को दोनों ही देती है।
2-शुक्ल पक्ष के समय प्रात:काल माता की पूजा उपासना करनी चाहिए. कालिकापुराण के अनुसार देवी की दो भुजाएं हैं, यह गौर वर्ण की, रक्तिम कमल पर विराजित हैं. प्रतिदिन अथवा पंचमी के दिन ललिता माता के निम्न मंत्र का जाप करने का कुछ विशेष ही महत्व होता है।
माता ललिता का ध्यान धरकर उनकी प्रार्थना एवं निम्न
मंत्र का जाप करने से मनुष्य सभी कष्टों से मुक्ति पा जाता है।
3-पंचमी के दिन इस ध्यान मंत्र से मां को लाल रंग के पुष्प, लाल वस्त्र आदि भेंट कर इस मंत्र का अधिकाधिक जाप करने से जीवन की आर्थिक समस्याएं दूर होकर धन की प्राप्ति के सुगम मार्ग मिलता है।
4-देवी ललिता जी का ध्यान रुप बहुत ही उज्जवल व प्रकाश मान है. ललिता देवी की पूजा से समृद्धि की प्राप्त होती है. दक्षिणमार्गी शाक्तों के मतानुसार देवी ललिता को चण्डी का स्थान प्राप्त है. इनकी पूजा पद्धति देवी चण्डी के समान ही है।
5-ललिता माता का पवित्र मंत्र :-
'ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नम:।'
ध्यान मन्त्र से माँ को रक्त पुष्प , वस्त्र आदि चढ़ाकर अधिकाधिक जप करें।
मंत्र कब होता है सिद्ध ..32 लाख बार जपने पर सिद्ध हो जाता है।
AS IT IS REPEATED;-
श्रीविद्या साधना संसार की सर्वश्रेष्ठ साधनाओ मे से एक हैं. ध्यान के बिना केवल मन्त्र का जाप करना श्री विद्या साधना नही है.बिना ध्यान के केवल दस प्रतिशत का ही लाभ मिल सकता है. श्रीविद्या साधना में ध्यान का विशेष महत्व हैं. इसलिए पहले ध्यान का अभ्यास करे व साथ-साथ जप करे,अन्त मे केवल ध्यान करें.
....SHIVOHAM...
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