गुरु की महादशा का महत्व
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नवग्रहों में बृहस्पति ग्रह को बड़ा महत्वपूर्ण और
प्रभावशाली माना गया है | देवताओं का गुरू होने के
कारण बृहस्पति को सभी ग्रहों में उच्च स्थान प्राप्त
है | ज्योतिषशास्त्र के अनुसार गुरु धनु और मीन राशि
का स्वामी है।धनु मूल त्रिकोण राशि है तथा साथ
ही पुनर्वसु, विशाखा और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों का
भी यह स्वामी है | गुरू को शुभता,
सत्यता, न्याय, सद्गुण व सुख देने वाला ग्रह माना गया है |
बृहस्पति कुण्डली में द्वितीय, पंचम,
नवम, दशम एवं एकादश भाव का कारक ग्रह माना जाता है | यह
बारह महीनों में चार महीने
वक्री रहता है | कुण्डली में बृहस्पति
की पंचम, सप्तम और नवम भावों पर पूर्ण दृष्टि
होती है अतः बृहस्पति की दृष्टि जिन
भावों पर होती है उस भाव से सम्बन्धित उत्तम फल
की प्राप्ति होती है लेकिन जिस भाव मे
यह स्थित होता है उस भाव की हानि करता है |
धनु और मीन राशि के लिए यह योगकारक माना गया है।
गुरु की उत्कृष्ट दशा में, गुरु उच्च स्थान में, स्वक्षेत्र
में, केंद्र में, लाभ स्थान में त्रिकोण होता हो तो उसकी
दशा में जातक को बहुत से ग्रामो में अधिकार प्राप्त होता है |
जातक को किसी राज्य से पूर्ण सम्मान, धनधान्य, पुत्र,
स्त्री, मित्र इनकी प्राप्ति
होती है | द्रव्य प्राप्ति के विशेष योग बनते है |
नए- नए ग्रंथो का जातक निर्माण करता है।नौकरी में
पदोन्नति होती है | इस दशा में व्यक्ति ख्याति प्राप्त
करता है | बड़े -बड़े वरिष्ठ अधिकारियो से उसके मित्रतापूर्ण
सम्बन्ध स्थापित होते है | एवम विदेश जाने का अवसर बनता है
| चुनाव में विजय होकर उच्च पद भी प्राप्त कर
सकता है | राज्य में अधिकार प्राप्त होता है | बुद्धि का विकास,
आदर , साहस, नम्रता, विजय,सबको लाभ पहुचाने वाले कार्यो
की और प्रवत्ति, राजकार्यो में चतुरता,
अच्छी सलाह देना, न्यायपरायणता, सोना, वाहन, वस्त्र
प्राप्ति, राजा तथा बड़े महात्माताओ से आदर तथा उत्तम विचारो से
प्रसन्नता इत्यादि बाते प्राप्त होती है | देवार्चन,
तीर्थाटन, एवम धार्मिक कृत्यों में सलग्न होता है,
शरीर में पूर्ण निरोगता ,रतनलाभ, शत्रुओ से विवाद में
विजय , पर्याप्त सौख्य तथा मनोभिलषित कामो में सिद्धि -ये बाते
होती है | परीक्षाए देना,
परीक्षाओ में उत्तीर्ण होना, उच्च
श्रेणी की प्रतियोगिताओ में जातक सफल
होता है | चित की शुद्धि , विभूतित्व, ज्ञानाचार,
ज्ञानादि कर्म की परिपूर्णता वेदांतश्रवण, इष्ट सिद्धि,
अन्नदान इत्यादि फलो की प्राप्ति होती है
| राज्य में पुरुस्कार मिलता है | समाज में सम्मान होता है |
गुरु नीच राशि में होकर उच्च नवांश में हो तो राजा
की कृपा, सुख, विद्या, बुद्धि, कीर्ति, धन
इत्यादि वैभव देवाधिपत्य इनकी प्राप्ति
होती है |गुरु अपनी उच्च राशि में होकर
नवांश में नीच राशि में गया हो तो भय, चोर, शत्रु, राजा के
द्वारा निर्धनत्व, स्त्री पुत्र -इनसे द्वेष - ये बाते
होती है |
गुरु की पापदशा हो, गुरु नीच अस्त,
वक्री पापग्रहों से युक्त, अष्टम, द्वादश स्थानगत या
व्यभिचार राशिगत हो तो उसकी दशा में राजा से भय होता
है, धैर्य छुट जाता है, भूमि तथा धन का नाश होता है |सम्बन्धियों
से उसका विरोध बढ़ता है तथा मतिभ्रम से प्रत्येक कार्य में
असफलता ही हाथ लगती है | गुप्त
स्थानो पर रोग होने से व्यक्ति पीड़ित रहता है एव
आय से खर्च अधिक होता है |चित में व्याकुलता, पापी
तथा बुरे लोगो की तरफ से नफरत, दुष्ट स्वामियों
की सेवा, मित्रो से झगड़ा, खेती से हानि,
नोकरो द्वारा चोरी, पुत्र, स्त्री तथा अपने से
बूढ़े सम्बन्धी की मृत्यु, राजा
की अप्रसन्ता, बिना कारण द्वेष, अपनी
संतान से झगड़ा, दिखलावत के लिए लोगो का भला चाहता है और इस
प्रकार से उनको ठगकर प्राप्त करना , धेर्यनाश, घात से नुकसान,
पिता से क्षोभ परीक्षा में असफलता प्राप्त होना,
स्थानभ्रंश, तीर्थयात्रा में विग्न, महान भय,
पशुहानी, इत्यादि बाते होती है।व्याधि
होना, पुत्र को रोग होना, प्लीहा, गुल्म रोग, कंठ-
-रोग, मतिभ्रम, दाह इत्यादि रोग होते है |
इतने पर भी कुल मिला कर गुरु की दशा
जातक के जीवन में श्रेष्ट ही सिद्ध होता
है |
गुरु षष्ठ स्थान में हो तो उसकी दशा में फल :- प्रथम
निरोगता, पुत्र स्त्री लाभ और अंत में
स्त्री, धन हानि तथा चोर आदि से भय होता है |
गुरु अष्ठम स्थान में हो तो उसकी दशा में :- सुख तथा
अपने बंधुओ की हानि, स्थान हानि, विदेश गमन,
अनेक स्त्री, राजसम्मान, पुत्रादि लाभ, राजपुत्र से
सम्मान इत्यादि |
गुरु द्वादश स्थान में हो तो उसकी दशा में :- वाहन
आदि मिलते है तथा अनेक प्रकार के क्लेशो से दबकर विदेश गमन
होता है |
गुरु की १६ वर्ष की महादशा के प्रारम्भ
में राज-पूज्यता तथा धन प्राप्त होता है, मध्य में -- पुत्रादि लाभ
होते है और अंत में - कष्ट होते है |
Sunday, April 2, 2017
गुरु की महादशा
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