वास्तु मे सूर्य का महत्त्व एवं वास्तु मे सूर्य का
प्रभाव…
वास्तु मे सूर्य का महत्त्व एवं वास्तु मे सूर्य का
प्रभाव…
जब भी कोई भवन बनकर तैयार होता है तो वह पंचभूत
का रूप धारण कर लेता है। ईटो, मिट्टी, सीमेन्ट वगैरह
से जब भवन बनकर तैयार हो जाता है तो लोग इसे
निर्जीव समझते है लेकिन उनकी यह विचार धारा
गलत है। दीवारे भी बाते करती है और सांस लेती है
तभी तो कभी कोई गुप्त बात करनी हो तो लोग
कहते है कि धीरे बात करें क्योंकि दीवारों के भी
कान होते है। इन बातों से सिद्ध होता है कि हमारे
पूर्वजों ने इस लकोक्ति को बनाते वक्त वास्तु शास्त्र
का अध्ययन किया था। जो भी कर्म हम करते है
उसका असर हमारे साथ-साथ, हमारे रहने वाले स्थान
पर भी पड़ता है, क्योंकि पंचभूत हर इन्सान की देह
(शरीर) मे विद्यमान है। मनुष्यों एवं बह्याण्ड की
रचना पंच महाभूतों के आधार पर हुई है। यह पंचभूत है-
पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि एवं वायु। हर स्त्री पुरूष के
जीवन मे इनका बहुत महत्व है प्रकृति के विरूद्ध काम
करने से इनका सन्तुलन बिगड़ जाता है और हमारी
ऊर्जाएं गलत दिशांए अपना लेती है, जिससे
अस्वस्थता पैदा होकर हमारे दिमागी व शारीरिक
संतुलन को बिगाड़ देती है, और बैचेनी, तनाव अशान्ति
इत्यादि को पैदा कर देती है। इसी तरह जब मनुष्य
प्रकृति से छेड़छाड करता है तो उसका संन्तुलन बिगड़
जाता है तब तूफान, बाढ़, अग्निकांड तथा भूकम्प
आदि अपना तांडव दिखाते हैं।
इसलिए यह जरूरी है कि पंच तत्वों का सन्तुलन बनाए
रखा जाए ताकि हम शान्तिपूर्वक अपना जीवन
व्यतीत कर सके। जैसे कि ऊपर कहा गया है कि भवन
निर्माण के बाद यह पंच तत्व गृह मे रहने लगते है, तब यह
जरूरी हो जाता है कि इन सबका सही सन्तुलन बना
रहे। अगर यह जरा भी बिगड़ जाए तो भवन मे निवास
करने वाला मानव सुख-शान्ति से नहीं रह पाएगा।
उसे सदैव अशान्ति, कलेश, आर्थिक तंगी, रोग तथा
मानसिक द्वंद आदि समस्याएं हमेशा घेरे रहेगी। इन पंच
तत्वों को जानने के लिए हमें इनके बारे मे अलग-अलग
समझना होगा कि यह क्या है और इनका मनुष्य व
ब्रह्याण्ड पर किस प्रकार असर पड़ता है। पंच तत्वों
का संक्षेप से वर्णन इस प्रकार है।
1. पृथ्वी
पृथ्वी सौरमण्डल के नवग्रहों मे से एक है। सूर्य के अंश से
टूटकर यह लाखों वर्ष पूर्व उसका प्रादुर्भाव हुआ था।
कहते है कि अन्य ग्रह भी इसी प्रकार उत्पन्न हुए थे।
सूर्य से टूटने के बाद यह उसके इर्द-र्गिद चक्कर काटने
लगे और धीरे-धीरे यह सूर्य से दूर हो गए। इसी प्रकार
पृथ्वी भी सूर्य से दूर हो गई और धीरे-धीरे ठंडी हो
गई। पृथ्वी पर लम्बे समय तक रसायनिक क्रियाओ के
फलस्वरूप प्राकृतिक स्थलों, पर्वतों, नदियों व मैदानों
आदि का जन्म हुआ। पृथ्वी सूर्य के गिर्द चक्कर काटने
के साथ-साथ अपनी धुरी पर भी 23 डिग्री मे घूम रही
हैं। यहां पानी, गुरूत्वाकर्षण शक्ति तथा
दक्षिणोत्तर धु्रवीय तरंगे पृथ्वी की सभी जीव-
निर्जीव वस्तुओं को प्रभावित करती है। पृथ्वी ही
जीवनदायिनी है और पालनहार है। पृथ्वी की इसी
ममतामयी छवि के कारण भवन निर्माण का कार्य इस
पर होता है, क्योंकि भूमि के बिना भवन निर्माण
नही हो सकता। कहने का तात्पर्य कि भवन निर्माण
कार्य मे भूमि के महत्व को अनदेखा नही किया जा
सकता तभी तो भारतीय प्राचीन ग्रन्थों मे पृथ्वी
की महत्ता को ‘माता’ जैसे शब्दो से सम्बोधित
किया गया है और भूमि पर किसी भी कार्य को
प्रारम्भ करने से पूर्व पूजा का विधान रखा गया है।
2. जल
जल ही जीवन है इसमे मे कितनी सच्चाई है इसका
अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि
किसी सजीव या निर्जीव वस्तु का अस्तित्व ‘जल’
के बिना नही रह सकता और वह जल्द समाप्त हो
जाती है। जीवन का कारण ही जलचक्र है। सागर,
नदियों, नहरों, तालाबो इत्यादि का जल वाष्प
बनकर आकाश मे चला जाता है और बादल के रूप मे
आकर वर्षा बनकर जल के रूप में फिर से धरती पर आ
जाता है। इसी से जीवन कायम है। यह तो विज्ञान
भी मानता है कि जल मे एक अंश प्राणवायु
(ऑक्सीजन) का भी होता है जोकि इन्सान के खून मे
मिलकर नसो मे दौड़ता है और उसे जीवन देता है। जल
तीन रूपों मे मिलता है जैसे ठोस (वर्षा) तरल व गैस
(भाप एवं बादल)। आम तौर पर जल व अग्नि की जरूरत
पड़ती है। यह पांचो महाभूत अलग अलग हो तो यह
किसी काम के नही और अगर इन्हे एक रूप कर दिया
जाए तो जीवन की एक अनुपम रचना बन सकती है।
इतिहाकारों का मानना है कि विश्व की महान
सभ्यताएं जल के किनारे ही पली-बढ़ी व जल का ही
ग्रास बन गई। अतः पृथ्वी के संचालन के लिए जल
अत्यंत महत्वपूर्ण है। वास्तुशास्त्र के मुताबिक जल को
मुख्य तत्व में रखा जाना चाहिए और निर्माण
सामग्री मे इसके सन्तुलन को ध्यान मे रखना जरूरी है।
3. अग्नि
अग्नि व तेल यह ऊर्जा के स्त्रोत हे और बिना ऊर्जा
के जीवन का कोई आधार नही है। ऊर्जा का प्रमुख
स्त्रोत सूर्य है जिसके तेज से ही जीवन प्रकाशमान है।
तेज को किसी भी मनुष्य के असाधारण गुण के रूप मे
देखा जाता है। पर्यावरण मे व्याप्त वायुकण, धूल और
बादल अपनी चुम्बकीय शक्ति के कारण एक दूसरे की
ओर आकर्षित होते रहते है। इसी कारण इनके सिमटने
और फैलने की क्रिया होती है जिसके बल से ऊर्जा
पैदा होती है और यही ऊर्जा अग्नि है। अग्नि का
मनुष्य की रोजमर्रा की जिन्दगी मे बहुत महत्व है जैसे
भोजन इत्यादि पचाना व प्रकाश करना। हिन्दु
संस्कृति के अनुसार धार्मिक कार्यक्रम मे भी अग्नि
का बहुत महत्व है। जैसे यज्ञ, हवन, विवाह, संस्कार व
अन्य कर्मकांड अग्नि के बिना अधूरे गिने जाते है।
अग्नि को प्रचण्ड रूप मे भी देखा जा सकता है। जब
यह देखते ही देखते बड़े-बड़े महलों व ऊंचे-ऊंचे भवनों को
धूल मे मिला देती है। भारतीय शास्त्रो मे कहा गया
है कि अग्नि मनुष्य के साथ जन्म से लेकर मरण तक रहती
है और यह चिरन्तन सत्य है। अग्नि सत्य एवं अविनाशी
है और मनुष्य जीवन के हरएक पहलू से जुड़ी है। इसे वास्तु
मे भी बहुत महत्व दिया गया है।
4. वायु
चलते फिरते मनुष्य के जीवन मे वायु का बहुत महत्व है,
जो कि श्वसन क्रिया से सम्बन्धित है। जब यह सम्बन्ध
विच्छेद हो जाता है तो मनुष्य का जीवन समाप्त हो
जाता है। प्राणी ही नही पेड़ पौधे भी वायु के
बिना क्षीण होकर समाप्त हो जाते है। मतलब यह
कि वायु का संतुलन सृष्टि की रचना व स्थायित्व मे
योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। पृथ्वी पर वायु मण्डल का
दायरा लगभग 400 कि.मी. है, जिसमें विभिन्न
प्रकार की गैसों का मिश्रण है। मनुष्य जीवन के लिए
दो गैसों आक्सीजन और हाईड्रोजन का बहुत महत्व है
क्योंकि यही दोनो गैसें जल का कारक है और उससे
मनुष्य का शरीर संचालित है। अगर इसमे कमी आ जाए
तो मनुष्य को चमड़ी व खून के दबाव इत्यादि रोगों
का सामना करना पड़ सकता है। मनुष्य की प्रत्येक
क्रिया मे कहीं न कहीं पंच महाभूतों का सम्मिश्रण
अवश्य पाया जाता है। यह मिश्रण किसी और ग्रह पर
नही है तभी तो वहां जीवन संभव नही हो पाया है।
वस्तुतः वायु मानव के लिए अन्य शक्तियों का अमूल्य
उपहार है। वास्तु द्वारा वायु को इतनी पहल इसलिए
दी गई है कि यह निर्माण कार्य को बहुत हद तक
प्रभावित करती है।
5. आकाश
आकाश अनन्त असीम व अथाह है। यह ऊर्जा की
तीव्रता, प्रकाश लौकिक किरणों, विद्युतीय व
चुम्बकीय शक्तियों का प्रतीक है। यह अपने अन्दर एक
आकाश गंगा नहीं बल्कि असीम आकाश गंगाए समाएं
हुए हैं, जिनमें हमारे सूर्य जैसे सैकड़ों सूर्य चमक रहे है।
सभी ग्रह-उपग्रह अपनी स्थिति एवं समयानुसार इसमे
परिक्रमा कर रहे है। हमारे जीवन मे समृद्धि व आनन्द
लाने मे आकाश का महत्वपूर्ण स्थान है।
यदि इन्सान अपनी जिन्दगी मे सुख, समृद्धि व आनन्द
पाना चाहता है तो उसे पंच महाभूतों को यथोचित
सम्मान देना चाहिए ताकि वह अपने जीवन मे
अरोग्यता, शान्ति, समृद्धि व उन्नति प्राप्त कर सके।
संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार सूर्य है जिसकी ऊर्जा पूरे
ब्रह्मांड को जीवन प्रदान करती है। सूर्य की ऊर्जा
से ही पृथ्वी पर जीवन है। इस कारण वास्तुशास्त्र में
पूर्व व उत्तर की दिशा का अत्यधिक महत्त्व दिया
जाता है क्योंकि सूर्य से मिलने वाली सकारात्मक
ऊर्जा का मुख्य द्वार पूर्व दिशा ही है। किसी भी
घर या भवन में सूर्य की ऊर्जा का आगमन ईशान कोण
से ही होता हैं। जहां सूर्य की ऊर्जा के साथ
अंतरिक्ष की ऊर्जा भी भवन में प्रवेश करती हैं।
यह दोनों ऊर्जाए मिलकर भवन के अंदर एक विशष
ऊर्जा क्षेत्र बनाती हैं जो भवन के निवासियों को
सकारात्मक परिणाम देती हैं।
उत्तर व पूर्व से आने वाली ऊर्जा मन व मस्तिष्क को
एकाग्रचित रखती है जो कि पूजा पाठ के लिए बहुत
जरूरी है। इसी प्रकार चित्र, मूर्ति या प्रतिमा का
भी मुख दिशा विशेष की ओर रखने का अपना महत्व
है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कार्तिकेय, इन्द्र इत्यादि
की मूर्तियों या चित्रों का मुख, पूर्व या पश्चिम
की ओर रखना चाहिए। गणेश, कुबेर, षेडसी मातृकाओं
का मुख सदैव दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिए व
हनुमान जी की मूर्ति या चित्र का मुख सर्वदा
नैऋत्य दिशा की ओर होना चाहिए। इन सभी
दिशाओं की ओर मुख निर्धारित करने के पीछे कुछ
वैज्ञानिक तथ्य है ऐसा वास्तु शास्त्र का मानना
है। यदि पूजा इत्यादि इशान दिशा में होगी तो
उत्तर से बहने वाली चुम्बकीय तरंगे मानव के मन मस्तिक
को एकाग्रचित रखती है और इसी से गति मिलेगी
जो ध्यान व आत्मिक शांति के लिए बहुत जरूरी है।
वास्तु के अनुसार दिशाओं का भी भवन निर्माण मे
उतना ही महत्व है जितना कि पंच तत्वों का है।
दिशांए कौन-कौन सी है और उनके स्वामी कौन-कौन
से है यह नीचे दिए जा रहे हैं। कहते हैं कि दिशा
व्यक्ति की दशा बदल देती है। यह बात वास्तुनुरूप बने
भवन पर पूर्ण रूप से सत्य साबित होती है। यदि किसी
भवन निर्माण का दिशाओं के बिना ध्यान रखे
निर्माण किया जाए तो ऐसे भवन के स्वामी को
अनेक कष्ट, दुखो का सामना करना पड़ता है। हमें
वस्तुतः चार दिशााओं का ज्ञान है जिस ओर से सूर्य
उदय होता है उस ओर पूर्व व जिस दिशा मे सूर्य अस्त
होता है उसे पश्चिम कहा जाता है। अगर पूर्व की ओर
मुंह करके खड़े हो जाए तो बायीं ओर उत्तर व दाहिनी
ओर दक्षिण दिशा होती है।
प्राचीन काल में ही मानव इस बात से अच्छी तरह
परिचित हो चुका था कि, सूर्य ही जीवनप्रदायक
और
जीवन-पोषक शक्ति है। सृष्टि के प्रारंभ से ही
विभिन्न कालों में विश्व की विभिन्न सभ्यताओं में
सूर्य की उपासना
यह सिद्ध करती है कि सूर्य का महत्त्व अक्षुण्ण है।
विज्ञान ने भी यह प्रमाणित किया है कि,
प्रातःकालीन सूर्य की किरणों में हमारे शरीर के
लिए अनेक लाभदायक पदार्थ निहित हाते है। जब यह
सूर्य की किरणं त्वचा पर पड़ती है तो हमारे शरीर के
लिए आवश्यक विटामिन ‘डी’ सीधे रक्त द्वारा
सोख लिया जाता है। हमें नंगी आँखों से सूर्य की
किरणं सफेद दिखाई देती हैं पर उसके अंदर बैंगनी,
नीला, श्याम, नारंगी, हरा, लाल और पीला सात रंग
होते हैं। यह रंग भी हमारे स्वास्थ्य पर विशेष प्रभाव
डालते हैं।
वास्तु विज्ञान/शास्त्रों के अनुसार चार दिशाओं के
अतिरिक्त चार उपदिशाएं या विदिशाए भी होती
है और यह चार है 1.ईशान 2.आग्नेय 3.नैऋत्य 4.वायव्य।
इन विदिशाओं का भी वस्तु शास्त्र मे बहुत महत्व है
समरागण सूत्र में दिशाओं/विदिशाओं का उल्लेख इस
प्रकार किया गया है।
1.पूर्वः- यह तो सभी जानते है कि सूर्य पूर्व दिशा में
निकलता है और सुबह की किरणों मे जीवनदायी
पोषक तत्व होते है, जिनकी शरीर व वनस्पति को बहुत
आवश्यकता होती है। इस दिशा का स्वामी ‘इन्द्र’ हैं
और इसे सूर्य का निवास स्थान भी माना जाता है।
अतः एवं यह स्थान मुख्यतः प्रमुख व्यक्ति या पितृ
स्थान माना जाता है अतः एवं इस दिशा को खुला
व स्वच्छ रखा जाना चाहिए। इस दिशा मे कोई
रूकावट नहीं होनी चाहिए। यह दिशा वंश वृद्धि मे
भी सहायक होती है। यह दिशा अगर दूषित होगी
तो व्यक्ति के मान सम्मान को हानि मिलती है व
पितृ दोष लगता है।
पूर्व दिशा का स्वामी ‘इन्द्र है। यह कालपुरूष है।
प्रयास करें कि इस दिशा मे टायलेट न हो वरना धन व
संतान की हानि का भय रहता है। पूर्व दिशा में बनी
चारदीवारी पश्चिम दिशा की चार दीवारी से
ऊंची न हो, वरना संतान हानि का भय है इस दिशा
का प्रतिनिधी ग्रह सूर्य है।
2.पश्चिमः- जब सूर्य अस्तांचल की ओर होता है तो
वह दिशा पश्चिम कहलाती है। इस दिशा का
स्वामी ‘वरूण’ है और यह दिशा वायु तत्व को
प्रभावित करती है और वायु चंचल होती है। अतः यह
दिशा चंचलता प्रदान करती है। यदि भवन का
दरवाजा पश्चिम मुखी है तो वहां रहने वाले
प्राणियों का मन चंचल होगा। पश्चिम दिशा
सफलता यश, भव्यता और कीर्ति प्रदान करती है।
पश्चिम दिशा का स्वामी ‘वरूण’ है और इसका
प्रतिनिधि ग्रह ‘शनि’ है। यदि ऐसे गृह का मुख्य द्वार
पश्चिम दिशा वाला हो तो गलत है। इस कारण ग्रह
स्वामी की आमदनी ठीक नहीं होगी उसे गुप्तांग की
बीमारी होगी।
3.उत्तरः- सूर्य के निकलते समय अगर उस ओर मुंह करके
खड़े हो जाए तो हमारी बायीं तरफ की दिशा उत्तर
दिशा कहलाती है या इसे ऐसे भी ज्ञात किया जा
सकता है कि जिस ओर ध्रुव तारा है, वह दिशा उत्तर
दिशा भी कहलाती है। इस दिशा का स्वामी ‘कुबेर’
है और यह दिशा जल तत्व को प्रभावित करती है।
भवन निर्माण करते समय इस दिशा को खुला छोड़
देना चाहिए। अगर इस दिशा में निर्माण करना जरूरी
हो तो इस दिशा का निर्माण अन्य दिशाओं की
अपेक्षा थोड़ा नीचा होना चाहिए। यह दिशा सुख
सम्पति, धन धान्य एवं जीवन मे सभी सुखों को प्रदान
करती है। उत्तर मुखी भवन इसकी दिशा का ग्रह ‘बुध’
है।
उत्तरी हिस्से में खाली जगह ने हो अहाते की सीमा
के साथ सटकर और मकान हो और दक्षिण दिशा मे
जगह खाली हो तो वह भवन दूसरो की सम्पति बन
सकता है।
4.दक्षिणः- चढ़ते सूर्य की ओर मुंह करके खड़े होने से
अगर बायीं ओर उत्तर हो तो निश्चित दायीं ओर
दक्षिण दिशा होनी चाहिए। आम तौर पर दक्षिण
दिशा को अच्छा नहीं मानते क्योंकि दक्षिण
दिशा का यम का स्थान माना जाता है और यम मृत्यु
के देवता है अतः आम लोग इसे मृत्यु तुल्य दिशा मानते
है। परन्तु यह दिशा बहुत ही सौभाग्यशाली है। यह
धैर्य व स्थिरता की प्रतीक है। यह दिशा हर प्रकार
की बुराइयों को नष्ट करती है। दक्षिण भारत में
तिरूपति मन्दिर बहुत प्रसिद्ध है दक्षिण दिशा मे
स्थित होते हुए भी यह मन्दिर बहुत समृद्धशाली एवं
प्रसिद्ध है। इस मन्दिर की आय से दक्षिण भारत में कई
शिक्षा संस्थान एवं अनाथालय चलते है जिस कारण
यह बहुत प्रसिद्ध है। अतः दक्षिण दिशा उतनी बुरी
भी नही है जितनी कि लोगो की धारणा है। भवन
निर्माण करते समय पहले दक्षिण भाग को कवर करना
चाहिए और इस दिशा को सर्वप्रथम पूरा बन्द रखना
चाहिए। यहां पर भारी समान व भवन निर्माण
साम्रगी को रखना चाहिए। यह दिशा अगर दूषित
या खुली होगी तो शत्रु भय का रोग प्रदान करने
वाले होगी। इस दिशा का स्वामी यम है और ग्रह
मंगल है।
5.ईशानः- पूर्व दिशा व उत्तर दिशा के मध्य भाग
को ईशान दिशा कहा जाता है ईशान दिशा को
देवताओं का स्थान भी कहा जाता है। इसीलिए
हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई शुभ कार्य किया
जाता है तो द्घट स्थापना ईशान दिशा की ओर की
जाती है। सूर्योदय की पहली किरणे भवन के जिस
भाग पर पड़े उसे ईशान दिशा कहा जाता है। यह
दिशा विवेक, धैर्य, ज्ञान, बुद्धि आदि प्रदान करती
है भवन मे इस दिशा को पूरी तरह शुद्ध व पवित्र रखा
जाना चाहिए। यदि यह दिशा दूषित होगी तो भवन
मे प्रायः कलह व विभिन्न कष्टों को प्रदान करने के
साथ व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट होती है और प्रायः
कन्या संतान प्राप्त होती है। अतः भवन में इस दिशा
का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इस दिशा का
स्वामी ‘रूद्र’ यानि भगवान शिव है और प्रतिनिधि
ग्रह ‘बृहस्पति’ है।
6.आग्नेयः- पूर्व दिशा व दक्षिण दिशा को मिलाने
वाले कोण को अग्नेय कोण संज्ञा दी जाती है।
जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है। इस कोण को
अग्नि तत्व का प्रभुत्व माना गया है और इसका
सीधा सम्बन्ध स्वास्थय के साथ है। यदि भवन की यह
दिशा दूषित रहेंगी तो द्घर का कोई न कोई सदस्य
बीमार रहेगा। इस दिशा के दोषपूर्ण रहने से व्यक्ति
को क्रोधित स्वभाव वाला व चिडचिड़ा बना
देगा। यदि भवन का यह कोण बढ़ा हुआ है तो यह
संतान को कष्टप्रद होकर राजमय आदि देता है। इस
दिशा का स्वामी ‘गणेश’ है और प्रतिनिधि ग्रह
‘शुक्र’ है। यदि आग्नेय ब्लॉक की पूर्वी दिशा मे सड़क
सीधे उत्तर की ओर न बढ़कर घर के पास ही समाप्त हो
जाए तो वह घर पराधीन हो जाएगा।
7.नैऋत्यः- दक्षिण व पश्चिम के मध्य कोण को नेऋत्य
कोण कहते है। यह कोण व्यक्ति के चरित्र का परिचय
देता है। यदि भवन का यह कोण दूषित होगा तो उस
भवन के सदस्यों का चरित्र प्रायः कुलषित होगा और
शत्रु भय बना रहेगा। विद्वानों के अनुसार इस कोण के
दूषित होने से अकस्मिक दुर्द्घटना होने के साथ ही
अल्प आयु होने का भी योग होता है। यदि द्घर में इस
कोण में खाली जगह है गड्डा है, भूत है या कांटेदार
वृक्ष है तो गृह स्वामी बीमार, शत्रुओं से पीडित एंव
सम्पन्नता से दूर रहेगा। नेऋत्य का हर कोण पूरे घर मे हर
जगह संतुलित होना चाहिए, अन्यथा दुष्परिणाम
भुगतना पड़ेगा। इस दिशा का स्वामी ‘राक्षस’ है
और प्रतिनिधि ग्रह ‘राहु’ है।
8.वायव्यः- पश्चिम दिशा व उत्तर दिशा को
मिलाने वाली विदिशा को वायव्य विदिशा या
कोण कहते है जैसा कि नाम से ही विदित होता है
कि यह कोण वायु का प्रतिनिधित्व करता है। यह
वायु का ही स्थान माना जाता है। यह मानव को
शांति, स्वस्थ दीर्घायु आदि प्रदान करता है। वस्तुतः
यह परिवर्तन प्रदान करता है। भवन मे यदि इस कोण मे
दोष हो, तो यह शत्रुता चपट हो तो, जातक
भाग्यशाली होते हुए भी आनन्द नही भोग सकता है।
यदि वायव्य द्घर मे सबसे बड़ा या ज्यादा गोलाकार
है तो गृहस्वामी को गुप्त रोग सताएंगें। इस कोण का
स्वामी ‘बटुक’ है और प्रतिनिधि ग्रह ‘चन्द्रमा’
माना गया है।
रंग एवं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में सूर्य की
किरणों का बहुत उपयोग होता है। इन किरणों की
कांति अनेक प्रकार के कीटाणुओं को नष्ट करती हें ।
सूयार्देय के समय की किरणं जो कि अधिक रोशनी
और गर्माहट वाली होने के कारण सर्वोत्तम होती हैं।
इसी कारण वास्तुशास्त्र में पूर्व की ओर अधिक खुला
स्थान एवं दरवाजे, खिड़कियां रखने की सलाह दी
जाती है ताकि प्रातःकालीन सूर्य की किरणं घर व
आंगन में अधिक से अधिक मात्रा में प्रवेश कर सकें। जो
हानिकारक बैक्टीरिया और कीटाणुओं को नष्ट कर
उस स्थान को शुद्ध करे ताकि, वहां निवास करने
वाले स्वस्थ जीवन बिता सकें। उत्तम स्वास्थ्य ही
सबसे बड़ी दौलत है।
जिस प्रकार आज के युग में ज्योतिष मानव जीवन मे
अपना स्थान स्थापित कर चुका है, उसी प्रकार आज
के समय में वास्तु शास्त्र भी मानव जीवन मे महत्वपूर्ण
स्थान ग्रहण कर चुका है। क्योंकि मानव जीवन का
कोई भी ऐसा पहलू नही है जो वास्तु शास्त्र से
प्रभावित न हो। यह तो अब माना जाने लगा है कि
मकान की बनावट, उसमें रखी जाने वाली चीजें और
उन्हे रखने का तरीका जीवन को बना व बिगाड़
सकता है। कुछ समय पहले वास्तु शास्त्र का उपयोग
सिर्फ धनाढ़्य व्यक्ति अपनी फैक्टरियों व कोठियां
आदि बनवाने में करते थे, परन्तु आज एक साधारण
व्यक्ति भी इस बारे में जानकारी रखता है और उसकी
कोशिश रहती है कि वह अपना भवन वास्तु शास्त्र
की दिशा निर्देश के अनुसार करवाए, ताकि भविष्य
मे आने वाले दुःख तकलीफ का निवारण कर सके।
वास्तु शास्त्र के सिद्धान्तों मे प्रकृति के साथ
तालमेल बढ़ाने के कई तरह के उदाहरण मिलते है। वास्तु
शास्त्र की यह कोशिश रहती है कि प्रकृति के
नियमों के खिलाफ कोई काम न करे ताकि किसी
प्रकार का कोई दण्ड न मिलें। वास्तु का एक उत्तम
प्रमाण अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री बिल
क्लिंटन है जो कि वास्तु शास्त्र का लोहा मानते
हैं। अपने कार्यकाल मे उन्होने अपने ऑफिस में बैठने की
दिशा बदल कर और अपने आवास को उत्तर दिशा
वाली खिड़की में मोमबत्ती जला कर रखने से अपनी
जीवन में सुखद अनुभूति महसूस की। इससे सिद्ध होता
है कि वास्तु शास्त्र का प्रचलन पश्चिमी देशों में भी
है तभी तो वहां के लोग सुख व शान्ति से रहते है।
वास्तु का मनुष्य की राशी में ग्रहों से भी बहुत निकट
का सम्बन्ध है।
वास्तु का ज्योतिष से गहरा रिश्ता है. ज्योतिष
शास्त्र का मानना है कि मनुष्य के जीवन पर नवग्रहों
का पूरा प्रभाव होता है. वास्तु शास्त्र में इन ग्रहों
की स्थितियों का पूरा ध्यान रखा जाता है. वास्तु
के सिद्धांतों के अनुसार भवन का निर्माण कराकर
आप उत्तरी ध्रुव से चलने वाली चुम्बकीय ऊर्जा, सूर्य
के प्रकाश में मोजूद अल्ट्रा वायलेट रेज और इन्फ्रारेड
रेज, गुरुत्वाकर्षण – शक्ति तथा अनेक अदृश्य
ब्रह्मांडीय तत्व जो मनुष्य को प्रभावित करते है के
शुभ परिणाम प्राप्त कर सकते है. और अनिष्टकारी
प्रभावों से अपनी रक्षा भी कर सकते है. वास्तु
शास्त्र में दिशाओं का सबसे अधिक महत्व है. सम्पूर्ण
वास्तु शास्त्र दिशाओं पर ही निर्भर होता है.
क्योंकि वास्तु की दृष्टि में हर दिशा का अपना एक
अलग ही महत्व है ल
भूखंड की शुभ-अशुभ दशा का अनुमान वास्तुविद्
आसपास की चीजों को देखकर ही लगाते हैं। भूखंड
की किस दिशा की ओर क्या है और उसका भूखंड पर
कैसा प्रभाव पड़ेगा, इसकी जानकारी वास्तु शास्त्र
के सिद्धांतों के अध्ययन विश्लेषण से ही मिल सकती
है। इसके सिद्धांतों के अनुरूप निर्मित भवन में रहने
वालों के जीवन के सुखमय होने की संभावना प्रबल
हो जाती है। हर मनुष्य की इच्छा होती है कि उसका
घर सुंदर और सुखद हो, जहां सकारात्मक ऊर्जा का
वास हो, जहां रहने वालों का जीवन सुखमय हो। इसके
लिए आवश्यक है कि घर वास्तु सिद्धांतों के अनुरूप हो
और यदि उसमें कोई वास्तु दोष हो, तो उसका
वास्तुसम्मत सुधार किया जाए। यदि मकान की
दिशाओं में या भूमि में दोष हो तो उस पर कितनी
भी लागत लगाकर मकान खड़ा किया जाए, उसमें रहने
वालों की जीवन सुखमय नहीं होता। मुगल कालीन
भवनों, मिस्र के पिरामिड आदि के निर्माण-कार्य में
वास्तुशास्त्र का सहारा लिया गया है।
हमारे आसपास की सृष्टि में व्याप्त अनिष्ट शक्तियों
से हमारी रक्षा के उद्देश्य से इस विज्ञान का
विकास किया। वास्तु का उद्भव स्थापत्य वेद से हुआ
है, जो अथर्ववेद का अंग है। इस सृष्टि के साथ-साथ
मानव शरीर भी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश
से बना है और वास्तु शास्त्र के अनुसार यही तत्व
जीवन तथा जगत को प्रभावित करने वाले प्रमुख
कारक हैं। भवन निर्माण में भूखंड और उसके आसपास के
स्थानों का महत्व बहुत अहम होता है।
विशेष – मेरे विचार से प्रतिवर्ष सूर्य के उत्तरायण और
दक्षिणायन होने का भवन के वास्तु के प्रभाव में कोई
अंतर नहीं होता हें ।
Tuesday, March 21, 2017
वास्तु में सूर्य
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