क्या आप जानते है पूर्णिमा और अमावस्या पर ज्यादातर
क्यों होते हैं हादसे ?
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ज्यादातर दुर्घटनाएं अमावस्या और पूर्णिमा पर
ही क्यों होती है? आइए जानते हैं
यह रहस्य-
पूर्णिमा और अमावस्या यूं तो खगोलीय घटनाएं हैं,
पूर्णिमा के दिन मोहक दिखने वाला और अमावस्या पर रात में छुप
जाने वाला चांद अनिष्टकारी होता है।
हादसों और प्राकृतिक प्रकोप का भी अक्सर
यही समय होता है। चांद के कारण समुद्र में उठने
वाली लहरें इसी बात को पुष्ट
करती हैं। हादसों के आंकड़े भी इस
बात को काफी हद तक प्रमाणित करते हैं।
चंद्र ग्रह मनुष्य को मानसिक तनाव देने के साथ
ही कई बार आपराधिक कृत्य के लिए प्रेरित
भी करता है। इसके प्रकोप से जहां प्राकृतिक
आपदाएं जैसी स्थितियां निर्मित होती हैं,
वहीं आपराधिक घटनाएं
भी बढ़ती हैं।
मानव शरीर में 80 प्रतिशत जल होने से मन
तथा मस्तिष्क पर चंद्रमा का असर अधिक होता है। यह प्रभाव
पूर्णिमा व अमावस्या पर अधिक दिखाई देता है।
हालांकि चंद्र सबसे कमजोर ग्रह माना जाता है।
इसकी गति धीमी होती है
और यह ढाई दिन में राशि परिवर्तन करता है। चंद्रमा मनुष्य
को तनाव देने के साथ ही अप्रिय घटनाओं को अंजाम
भी देता है। यही वजह है
कि पूर्णिमा तथा अमावस्या पर सबसे
ज्यादा अनिष्टकारी घटनाएं घटित
होती हैं।
पूर्णिमा एवं अमावस्या को चंद्रमा के बढे हुए प्रभाव के परिणाम
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अमावस्या के दिन, रज-तम फैलाने वाली अनिष्ट
शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इ.), गूढ कर्मकांडों में (काला जादू)
फंसे लोग और प्रमुखरूप से राजसिक और तामसिक लोग अधिक
प्रभावित होते हैं और अपने रज-तमात्मक कार्य के लिए
काली शक्ति प्राप्त करते हैं । यह दिन अनिष्ट
शक्तियों के कार्य के अनुकूल होता है, इसलिए अच्छे कार्य के
लिए अपवित्र माना जाता है । चंद्रमा के रज-तमसे मन प्रभावित
होने के कारण पलायन करना (भाग जाना),
आत्महत्या अथवा भूतों द्वारा आवेशित होना आदि घटनाएं अधिक
मात्रा में होती हैं । विशेषरूप से रात्रि के समय, जब
सूर्य से मिलने वाला ब्रह्मांड का मूलभूत अग्नितत्त्व
(तेजतत्त्व) अनुपस्थित रहता है,
अमावस्या की रात अनिष्ट शक्तियों के लिए मनुष्य
को कष्ट पहुंचाने का स्वर्णिर्म अवसर होता है ।
पूर्णिमा की रातमें, जब चंद्र का प्रकाशित भाग
पृथ्वी की ओर होता है, अन्य
रात्रियों की तुलना में मूलभूत सूक्ष्म-
स्तरीय रज-तम न्यूनतम मात्रा में प्रक्षेपित
होता है । अतः इस रात में अनिष्ट शक्तियों, रज-तमयुक्त
लोगों अथवा गूढ कर्मकांड (काला जादू) करने वाले लोगों को रज-
तमात्मक शक्ति न्यूनतम मात्रा में उपलब्ध होती है
। तथापि, अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) पूर्णिमा के दिन
चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का लाभ उठाकर कष्ट
की तीव्रता बढाती हैं ।
पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और
नींद कम ही आती है।
कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के
विचार बढ़ जाते हैं। चांद का धरती के जल से संबंध
है। जब पूर्णिमा आती है तो समुद्र में ज्वार-
भाटा उत्पन्न होता है, क्योंकि चंद्रमा समुद्र के जल को ऊपर
की ओर खींचता है। मानव के
शरीर में भी लगभग 85 प्रतिशत जल
रहता है। पूर्णिमा के दिन इस जल की गति और
गुण बदल जाते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन चन्द्रमा का प्रभाव
काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर
के अंदर रक्तञ में न्यूरॉन सेल्स क्रियाशील हो जाते
हैं और ऐसी स्थिति में इंसान ज्यादा उत्तेजित
या भावुक रहता है। एक बार नहीं, प्रत्येक
पूर्णिमा को ऐसा होता रहता है तो व्यक्ति का भविष्य
भी उसी अनुसार बनता और
बिगड़ता रहता है।
जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय
की क्रिया शिथिल होती है, तब अक्सर
सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्ति भोजन करने के बाद
नशा जैसा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल
हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम,
भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्तिहयों पर
चन्द्रमा का प्रभाव गलत दिशा लेने लगता है। इस कारण
पूर्णिमा व्रत का पालन रखने की सलाह
दी जाती है।कार्तिक पूर्णिमा, माघ
पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा आदि।
इस दिन किसी भी प्रकार
की तामसिक वस्तुओं का सेवन
नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से
भी दूर रहना चाहिए।
इसके शरीर पर ही नहीं,
आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं।
जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, पूर्णिमा और
प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई
है।
वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष
में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन
और कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय
रहती हैं।
जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय
रहती हैं, तब मनुष्यों में
भी दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है
इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में
व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़
दिया जाता है।
अमावस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर
जीव-जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त
रहते हैं। ऐसे दिन की प्रकृति को जानकर विशेष
सावधानी रखनी चाहिए।
ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन
चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक
होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है।
आध्यात्मिक शोध द्वारा यह भी स्पष्ट हुआ है
कि अमावस्या और पूर्णिमा के दिन मनुष्य पर होने वाले प्रभाव में
सूक्ष्म अंतर होता है । पूर्णिमा के चंद्रमा का प्रतिकूल परिणाम
साधारणतः स्थूलदेह पर, जबकि अमावस्या के चंद्रमा का परिणाम
मन पर होता है । पूर्णिमा के चंद्रमा का परिणाम अधिकांशत:
दृश्य स्तर पर होता है, जबकि अमावस्या के चंद्रमाका परिणाम
अनाकलनीय (सूक्ष्म) होता है । अमावस्या के
चंद्रमा का परिणाम दृश्य स्तर पर न होने से व्यक्ति के लिए
वह अधिक भयावह होता है । क्योंकि व्यक्ति को इसका भान न
होनेसे वह उस पर विजय प्राप्त करने के कोई प्रयास
नहीं करता ।
जो साधक आध्यात्मिक साधना के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार
बहुत साधना करते हैं, वे मुख्यतः स्वभाव से सात्त्विक होते
हैं । परिणामस्वरूप साधारण मनुष्य की तुलना में
(जो स्वयं रज-तमयुक्त होता है), उसकी तुलना में
वे वातावरण के रज-तमके प्रति अधिक संवेदनशील
होते हैं । साधकों के लिए अच्छी बात यह है
कि उन्हें अनिष्ट शक्तियों से बचने की ईश्वर
द्वारा सुविधा प्राप्त होती है । कितने आध्यात्मिक
स्तर पर अनिष्ट शक्तियों से (भूत,प्रेत, पिशाच इ.) बचने के लिए
सुरक्षा कवच प्राप्त होता है
हानिप्रद परिणामों से सुरक्षा पाने के लिए हम क्या कर सकते
हैं ?
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अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के
हानिकारी प्रभाव आध्यात्मिक कारणों से होते हैं,
इसलिए केवल आध्यात्मिक उपचार
अथवा साधना ही इनसे बचने में सहायक
हो सकती है ।
वैश्विक स्तर पर इन दिनों में महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने
अथवा क्रय-विक्रय करने से बचना चाहिए; क्योंकि अनिष्ट
शक्तियां इन माध्यमों से अपना प्रभाव डाल सकती हैं
। पूर्णिमा और अमावस्या के २ दिन पहले तथा २ दिन पश्चात
आध्यात्मिक साधना में संख्यात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि करें ।
अपने पंथ अथवा धर्म के अनुसार देवताका नामजप
करना लाभदायी होता है और आध्यात्मिक सुरक्षा के
लिए श्री गुरुदेव दत्त का जप करें ।
चंद्रमा की कलाओं के क्षयकाल में, अर्थात
पूर्णिमा और अमावस्या के मध्य की कालवधि में जब
चंद्रमा का आकार उत्तरोत्तर न्यून होता जाता है, उससे
प्रक्षेपित मूलभूत सूक्ष्म-स्तरीय स्पंदन
उत्तरोत्तर बढते जाते हैं । ऐसा चंद्रमा के अंधेरे भाग में
उत्तरोत्तर हो रही वृद्धि के कारण होता है ।
इसलिए अपने आप को रज-तम की वृद्धि के कारण
होने वाले प्रतिकूल प्रभाव से बचाने के लिए इस कालवधि में
साधना बढाना महत्त्वपूर्ण है ।
चंद्रमा के क्षय काल में, पहले के पखवाडे में वृद्धिंगत किए
प्रयत्नों को न्यूनतम स्थिर रखने का प्रयास हमें करना चाहिए ।
इस प्रकार से हम अगले क्षयकाल में अधिक साधना करने के
लिए पुनः प्रयास आरंभ कर सकते हैं ।
क्यों होते हैं हादसे ?
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ज्यादातर दुर्घटनाएं अमावस्या और पूर्णिमा पर
ही क्यों होती है? आइए जानते हैं
यह रहस्य-
पूर्णिमा और अमावस्या यूं तो खगोलीय घटनाएं हैं,
पूर्णिमा के दिन मोहक दिखने वाला और अमावस्या पर रात में छुप
जाने वाला चांद अनिष्टकारी होता है।
हादसों और प्राकृतिक प्रकोप का भी अक्सर
यही समय होता है। चांद के कारण समुद्र में उठने
वाली लहरें इसी बात को पुष्ट
करती हैं। हादसों के आंकड़े भी इस
बात को काफी हद तक प्रमाणित करते हैं।
चंद्र ग्रह मनुष्य को मानसिक तनाव देने के साथ
ही कई बार आपराधिक कृत्य के लिए प्रेरित
भी करता है। इसके प्रकोप से जहां प्राकृतिक
आपदाएं जैसी स्थितियां निर्मित होती हैं,
वहीं आपराधिक घटनाएं
भी बढ़ती हैं।
मानव शरीर में 80 प्रतिशत जल होने से मन
तथा मस्तिष्क पर चंद्रमा का असर अधिक होता है। यह प्रभाव
पूर्णिमा व अमावस्या पर अधिक दिखाई देता है।
हालांकि चंद्र सबसे कमजोर ग्रह माना जाता है।
इसकी गति धीमी होती है
और यह ढाई दिन में राशि परिवर्तन करता है। चंद्रमा मनुष्य
को तनाव देने के साथ ही अप्रिय घटनाओं को अंजाम
भी देता है। यही वजह है
कि पूर्णिमा तथा अमावस्या पर सबसे
ज्यादा अनिष्टकारी घटनाएं घटित
होती हैं।
पूर्णिमा एवं अमावस्या को चंद्रमा के बढे हुए प्रभाव के परिणाम
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अमावस्या के दिन, रज-तम फैलाने वाली अनिष्ट
शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इ.), गूढ कर्मकांडों में (काला जादू)
फंसे लोग और प्रमुखरूप से राजसिक और तामसिक लोग अधिक
प्रभावित होते हैं और अपने रज-तमात्मक कार्य के लिए
काली शक्ति प्राप्त करते हैं । यह दिन अनिष्ट
शक्तियों के कार्य के अनुकूल होता है, इसलिए अच्छे कार्य के
लिए अपवित्र माना जाता है । चंद्रमा के रज-तमसे मन प्रभावित
होने के कारण पलायन करना (भाग जाना),
आत्महत्या अथवा भूतों द्वारा आवेशित होना आदि घटनाएं अधिक
मात्रा में होती हैं । विशेषरूप से रात्रि के समय, जब
सूर्य से मिलने वाला ब्रह्मांड का मूलभूत अग्नितत्त्व
(तेजतत्त्व) अनुपस्थित रहता है,
अमावस्या की रात अनिष्ट शक्तियों के लिए मनुष्य
को कष्ट पहुंचाने का स्वर्णिर्म अवसर होता है ।
पूर्णिमा की रातमें, जब चंद्र का प्रकाशित भाग
पृथ्वी की ओर होता है, अन्य
रात्रियों की तुलना में मूलभूत सूक्ष्म-
स्तरीय रज-तम न्यूनतम मात्रा में प्रक्षेपित
होता है । अतः इस रात में अनिष्ट शक्तियों, रज-तमयुक्त
लोगों अथवा गूढ कर्मकांड (काला जादू) करने वाले लोगों को रज-
तमात्मक शक्ति न्यूनतम मात्रा में उपलब्ध होती है
। तथापि, अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) पूर्णिमा के दिन
चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का लाभ उठाकर कष्ट
की तीव्रता बढाती हैं ।
पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और
नींद कम ही आती है।
कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के
विचार बढ़ जाते हैं। चांद का धरती के जल से संबंध
है। जब पूर्णिमा आती है तो समुद्र में ज्वार-
भाटा उत्पन्न होता है, क्योंकि चंद्रमा समुद्र के जल को ऊपर
की ओर खींचता है। मानव के
शरीर में भी लगभग 85 प्रतिशत जल
रहता है। पूर्णिमा के दिन इस जल की गति और
गुण बदल जाते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन चन्द्रमा का प्रभाव
काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर
के अंदर रक्तञ में न्यूरॉन सेल्स क्रियाशील हो जाते
हैं और ऐसी स्थिति में इंसान ज्यादा उत्तेजित
या भावुक रहता है। एक बार नहीं, प्रत्येक
पूर्णिमा को ऐसा होता रहता है तो व्यक्ति का भविष्य
भी उसी अनुसार बनता और
बिगड़ता रहता है।
जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय
की क्रिया शिथिल होती है, तब अक्सर
सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्ति भोजन करने के बाद
नशा जैसा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल
हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम,
भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्तिहयों पर
चन्द्रमा का प्रभाव गलत दिशा लेने लगता है। इस कारण
पूर्णिमा व्रत का पालन रखने की सलाह
दी जाती है।कार्तिक पूर्णिमा, माघ
पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा आदि।
इस दिन किसी भी प्रकार
की तामसिक वस्तुओं का सेवन
नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से
भी दूर रहना चाहिए।
इसके शरीर पर ही नहीं,
आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं।
जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, पूर्णिमा और
प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई
है।
वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष
में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन
और कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय
रहती हैं।
जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय
रहती हैं, तब मनुष्यों में
भी दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है
इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में
व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़
दिया जाता है।
अमावस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर
जीव-जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त
रहते हैं। ऐसे दिन की प्रकृति को जानकर विशेष
सावधानी रखनी चाहिए।
ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन
चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक
होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है।
आध्यात्मिक शोध द्वारा यह भी स्पष्ट हुआ है
कि अमावस्या और पूर्णिमा के दिन मनुष्य पर होने वाले प्रभाव में
सूक्ष्म अंतर होता है । पूर्णिमा के चंद्रमा का प्रतिकूल परिणाम
साधारणतः स्थूलदेह पर, जबकि अमावस्या के चंद्रमा का परिणाम
मन पर होता है । पूर्णिमा के चंद्रमा का परिणाम अधिकांशत:
दृश्य स्तर पर होता है, जबकि अमावस्या के चंद्रमाका परिणाम
अनाकलनीय (सूक्ष्म) होता है । अमावस्या के
चंद्रमा का परिणाम दृश्य स्तर पर न होने से व्यक्ति के लिए
वह अधिक भयावह होता है । क्योंकि व्यक्ति को इसका भान न
होनेसे वह उस पर विजय प्राप्त करने के कोई प्रयास
नहीं करता ।
जो साधक आध्यात्मिक साधना के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार
बहुत साधना करते हैं, वे मुख्यतः स्वभाव से सात्त्विक होते
हैं । परिणामस्वरूप साधारण मनुष्य की तुलना में
(जो स्वयं रज-तमयुक्त होता है), उसकी तुलना में
वे वातावरण के रज-तमके प्रति अधिक संवेदनशील
होते हैं । साधकों के लिए अच्छी बात यह है
कि उन्हें अनिष्ट शक्तियों से बचने की ईश्वर
द्वारा सुविधा प्राप्त होती है । कितने आध्यात्मिक
स्तर पर अनिष्ट शक्तियों से (भूत,प्रेत, पिशाच इ.) बचने के लिए
सुरक्षा कवच प्राप्त होता है
हानिप्रद परिणामों से सुरक्षा पाने के लिए हम क्या कर सकते
हैं ?
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अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के
हानिकारी प्रभाव आध्यात्मिक कारणों से होते हैं,
इसलिए केवल आध्यात्मिक उपचार
अथवा साधना ही इनसे बचने में सहायक
हो सकती है ।
वैश्विक स्तर पर इन दिनों में महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने
अथवा क्रय-विक्रय करने से बचना चाहिए; क्योंकि अनिष्ट
शक्तियां इन माध्यमों से अपना प्रभाव डाल सकती हैं
। पूर्णिमा और अमावस्या के २ दिन पहले तथा २ दिन पश्चात
आध्यात्मिक साधना में संख्यात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि करें ।
अपने पंथ अथवा धर्म के अनुसार देवताका नामजप
करना लाभदायी होता है और आध्यात्मिक सुरक्षा के
लिए श्री गुरुदेव दत्त का जप करें ।
चंद्रमा की कलाओं के क्षयकाल में, अर्थात
पूर्णिमा और अमावस्या के मध्य की कालवधि में जब
चंद्रमा का आकार उत्तरोत्तर न्यून होता जाता है, उससे
प्रक्षेपित मूलभूत सूक्ष्म-स्तरीय स्पंदन
उत्तरोत्तर बढते जाते हैं । ऐसा चंद्रमा के अंधेरे भाग में
उत्तरोत्तर हो रही वृद्धि के कारण होता है ।
इसलिए अपने आप को रज-तम की वृद्धि के कारण
होने वाले प्रतिकूल प्रभाव से बचाने के लिए इस कालवधि में
साधना बढाना महत्त्वपूर्ण है ।
चंद्रमा के क्षय काल में, पहले के पखवाडे में वृद्धिंगत किए
प्रयत्नों को न्यूनतम स्थिर रखने का प्रयास हमें करना चाहिए ।
इस प्रकार से हम अगले क्षयकाल में अधिक साधना करने के
लिए पुनः प्रयास आरंभ कर सकते हैं ।
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