गायत्री मन्त्र सर्वोपरि मन्त्र है। इससे बड़ा और कोई
मन्त्र नहीं। जो काम संसार के किसी अन्य
मन्त्र से नहीं हो सकता, वह निश्चित रूप से
गायत्री द्वारा हो सकता है।
दक्षिणमार्गी योग साधक वेदोक्त पद्धति से जिन कार्यों के
लिये अन्य किसी मन्त्र से सफलता प्राप्त करते हैं, वे
सब प्रयोजन गायत्री से पूरे हो सकते हैं।
इसी प्रकार वाममार्गी तान्त्रिक जो कार्य
तन्त्र प्रणाली से किसी मन्त्र के आधार पर
करते हैं, वह भी गायत्री द्वारा किये
जा सकते हैं। यह एक प्रचण्ड शक्ति है, जिसे जिधर
भी लगा दिया जायेगा, उधर
ही चमत्कारी सफलता मिलेगी।
काम्य कर्मों के लिये, सकाम प्रयोजनों के लिये अनुष्ठान
करना आवश्यक होता है। सवालक्ष का पूर्ण अनुष्ठान,
चौबीस हजार का आंशिक अनुष्ठान अपनी-
अपनी मर्यादा के अनुसार फल देते हैं। ‘जितना गुड़
डालो उतना मीठा’ वाली कहावत इस क्षेत्र में
भी चरितार्थ होती है। साधना और
तपश्चर्या द्वारा जो आत्मबल संग्रह किया गया है, उसे जिस काम में
भी खर्च किया जायेगा, उसका प्रतिफल अवश्य मिलेगा।
बन्दूक उतनी ही उपयोगी सिद्ध
होगी, जितनी बढिय़ा और जितने अधिक कारतूस
होंगे। गायत्री की प्रयोग विधि एक प्रकार
की आध्यात्मिक बन्दूक है।
तपश्चर्या या साधना द्वारा संग्रह की हुई आत्मिक
शक्ति कारतूसों की पेटी है। दोनों के मिलने से
ही निशाना साधकर शिकार को मार गिराया जा सकता है। कोई
व्यक्ति प्रयोग विधि जानता हो, पर उसके पास साधन- बल न हो,
तो ऐसा ही परिणाम होगा जैसा खाली बन्दूक
का घोड़ा बार- बार चटकाकर कोई यह आशा करे कि अचूक निशाना लगेगा।
इसी प्रकार जिनके पास तपोबल है, पर उसका काम्य
प्रयोजन के लिये विधिवत् प्रयोग करना नहीं जानते, वैसे
हैं जैसे कोई कारतूस की पोटली बाँधे फिरे और
उन्हें हाथ से फेंक- फेंककर शत्रुओं की सेना का संहार
करना चाहे। यह उपहासास्पद तरीके हैं।
आत्मबल सञ्चय करने के लिये जितनी अधिक साधनायें
की जाएँ, उतना ही अच्छा है। पाँच प्रकार
के साधक गायत्री सिद्ध समझे जाते हैं- (१) लगातार
बारह वर्ष तक प्रतिदिन कम से कम एक माला नित्य जप किया हो।
(२) गायत्री की ब्रह्मसन्ध्या को नौ वर्ष
किया हो, (३) ब्रह्मचर्यपूर्वक पाँच वर्ष तक प्रतिदिन एक हजार
मन्त्र जपे हों, (४) चौबीस लक्ष
गायत्री का अनुष्ठान किया हो, (५) पाँच वर्ष तक विशेष
गायत्री जप किया हो। जो व्यक्ति इन साधनाओं में कम से
कम एक या एक से अधिक का तप पूरा कर चुके हों, वे
गायत्री मन्त्र का काम्य कर्म में प्रयोग करके
सफलता प्राप्त कर सकते हैं। चौबीस हजार वाले
अनुष्ठानों की पूँजी जिनके पास है, वे
भी अपनी-
अपनी पूँजी के अनुसार एक
सीमा तक सफल हो सकते हैं।
नीचे कुछ खास- खास प्रयोजनों के लिये
गायत्री प्रयोग
की विधियाँ दी जाती हैं—
रोग निवारण—
स्वयं रोगी होने पर जिस स्थिति में
भी रहना पड़े, उसी में मन
ही मन गायत्री का जप करना चाहिये। एक
मन्त्र समाप्त होने और दूसरा आरम्भ होने के बीच में
एक ‘बीज मन्त्र’ का सम्पुट भी लगाते
चलना चाहिये। सर्दी प्रधान (कफ) रोग में ‘एं’
बीज मन्त्र, गर्मी प्रधान पित्त रोगों में ‘ऐं’,
अपच एवं विष तथा वात रोगों में ‘हूं’ बीज मन्त्र
का प्रयोग करना चाहिये। नीरोग होने के लिये
वृषभवाहिनी हरितवस्त्रा गायत्री का ध्यान
करना चाहिये।
दूसरों को नीरोग करने के लिये
भी इन्हीं बीज मन्त्रों का और
इसी ध्यान का प्रयोग करना चाहिये। रोगी के
पीडि़त अंगों पर उपर्युक्त ध्यान और जप करते हुए
हाथ फेरना, जल अभिमन्त्रित करके रोगी पर मार्जन
देना एवं छिडक़ना चाहिये। इन्हीं परिस्थितियों में
तुलसी पत्र और कालीमिर्च गंगाजल में
पीसकर दवा के रूप में देना, यह सब उपचार ऐसे हैं,
जो किसी भी रोग के रोगी को दिये
जाएँ, उसे लाभ पहुँचाये बिना न रहेंगे।
विष निवारण—
सर्प, बिच्छू, बर्र, ततैया, मधुमक्खी और
जहरीले जीवों के काट लेने पर
बड़ी पीड़ा होती है। साथ
ही शरीर में विष फैलने से मृत्यु हो जाने
की सम्भावना रहती है। इस प्रकार
की घटनायें घटित होने पर
गायत्री शक्ति द्वारा उपचार किया जा सकता है।
पीपल वृक्ष की समिधाओं से विधिवत् हवन
करके उसकी भस्म को सुरक्षित रख लेना चाहिये।
अपनी नासिका का जो स्वर चल रहा है,
उसी हाथ पर थोड़ी- सी भस्म
रखकर दूसरे हाथ से उसे अभिमन्त्रित करता चले और
बीच में ‘हूं’ बीजमन्त्र का सम्पुट लगावे
तथा रक्तवर्ण अश्वारूढ़ा गायत्री का ध्यान करता हुआ
उस भस्म को विषैले कीड़े के काटे हुए स्थान पर दो- चार
मिनट मसले। पीड़ा में जादू के समान आराम होता है।
सर्प के काटे हुए स्थान पर रक्त चन्दन से किये हुए हवन
की भस्म मलनी चाहिये और अभिमन्त्रित
करके घृत पिलाना चाहिये।
पीली सरसों अभिमन्त्रित करके उसे
पीसकर दशों इन्द्रियों के द्वार पर थोड़ा-
थोड़ा लगा देना चाहिये। ऐसा करने से सर्प- विष दूर हो जाता है।
बुद्धि- वृद्धि—
गायत्री मन्त्र प्रधानत: बुद्धि को शुद्ध, प्रखर और
समुन्नत करने वाला मन्त्र है। मन्द बुद्धि, स्मरण
शक्ति की कमी वाले लोग इससे विशेष रूप से
लाभ उठा सकते हैं। जो बालक अनुत्तीर्ण हो जाते हैं,
पाठ ठीक प्रकार याद नहीं कर पाते, उनके
लिये निम्न उपासना बहुत उपयोगी है।
सूर्योदय के समय की प्रथम किरणें पानी से
भीगे हुए मस्तक पर लगने दें। पूर्व
की ओर मुख करके अधखुले नेत्रों से सूर्य का दर्शन
करते हुए आरम्भ में तीन बार ऊँ का उच्चारण करते
हुए गायत्री का जप करें। कम से कम एक माला (१०८
मन्त्र)अवश्य जपना चाहिये। पीछे
हाथों की हथेली का भाग सूर्य
की ओर इस प्रकार करें मानो आग पर ताप रहे हैं। इस
स्थिति में बारह मन्त्र जपकर हथेलियों को आपस में रगडऩा चाहिये
और उन उष्ण हाथों को मुख, नेत्र, नासिका, ग्रीवा, कर्ण,
मस्तक आदि समस्त शिरोभागों पर फिराना चाहिये।
राजकीय सफलता—
किसी सरकारी कार्य, मुकदमा, राज्य
स्वीकृति, नियुक्ति आदि में सफलता प्राप्त करने के लिये
गायत्री का उपयोग किया जा सकता है। जिस समय
अधिकारी के सम्मुख उपस्थित होना हो अथवा कोई
आवेदन पत्र लिखना हो, उस समय यह देखना चाहिये कि कौन-
सा स्वर चल रहा है। यदि दाहिना स्वर चल रहा हो,
तो पीतवर्ण ज्योति का मस्तिष्क में ध्यान करना चाहिये
और यदि बायाँ स्वर चल रहा हो, तो हरे रंग के प्रकाश का ध्यान
करना चाहिये। मन्त्र में सप्त व्याहृतियाँ (ऊँ भू: भुव: स्व: मह:
जन: तप: सत्यम्) लगाते हुए बारह मन्त्रों का मन
ही मन जप करना चाहिये। दृष्टि उस हाथ के अँगूठे के
नाखून पर रखनी चाहिये, जिसका स्वर चल रहा हो।
भगवती की मानसिक आराधना, प्रार्थना करते
हुए राजद्वार में प्रवेश करने से सफलता मिलती है।
दरिद्रता का नाश—
दरिद्रता, हानि, ऋण, बेकारी, साधनहीनता,
वस्तुओं का अभाव, कम आमदनी, बढ़ा हुआ खर्च, कोई
रुका हुआ आवश्यक कार्य आदि की व्यर्थ चिन्ता से
मुक्ति दिलाने में गायत्री साधना बड़ी सहायक
सिद्ध होती है। उससे ऐसी मनोभूमि तैयार
हो जाती है, जो वर्तमान अर्थ- चक्र से निकालकर
साधक को सन्तोषजनक स्थिति पर पहुँचा दे।
दरिद्रता नाश के लिये
गायत्री की ‘श्रीं’
शक्ति की उपासना करनी चाहिये। मन्त्र के
अन्त में तीन बार ‘श्रीं’ बीज
का सम्पुट लगाना चाहिये। साधना काल के लिये पीत वस्त्र,
पीले पुष्प, पीला यज्ञोपवीत,
पीला तिलक, पीला आसन प्रयोग करना चाहिये
और रविवार को उपवास करना चाहिये। शरीर पर शुक्रवार
को हल्दी मिले हुए तेल की मालिश
करनी चाहिये। पीताम्बरधारी,
हाथी पर चढ़ी हुई
गायत्री का ध्यान करना चाहिये। पीतवर्ण
लक्ष्मी का प्रतीक है। भोजन में
भी पीली चीजें
प्रधान रूप से लेनी चाहिये। इस प्रकार
की साधना से धन की वृद्धि और
दरिद्रता का नाश होता है।
सुसन्तति की प्राप्ति—
जिसकी सन्तान नहीं होती हैं,
होकर मर जाती हैं,
रोगी रहती हैं, गर्भपात हो जाते हैं, केवल
कन्याएँ होती हैं, तो इन कारणों से माता-
पिता को दु:खी रहना स्वाभाविक है। इस प्रकार के
दु:खों से भगवती की कृपा द्वारा छुटकारा मिल
सकता है।इस प्रकार की साधना में स्त्री-
पुरुष दोनों ही सम्मिलित हो सकें, तो बहुत
ही अच्छा; एक पक्ष के द्वारा ही पूरा भार
कन्धे पर लिये जाने से आंशिक
सफलता ही मिलती है। प्रात:काल
नित्यकर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख होकर साधना पर बैठें। नेत्र
बन्द करके श्वेत वस्त्राभूषण अलंकृत, किशोर आयु
वाली, कमल पुष्प हाथ में धारण किये हुए
गायत्री का ध्यान करें। ‘यैं’ बीज के
तीन सम्पुट लगाकर गायत्री का जप चन्दन
की माला पर करें।
नासिका से साँस खींचते हुए पेडू तक ले
जानी चाहिए। पेडू को जितना वायु से भरा जा सके
भरना चाहिये। फिर साँस रोककर ‘यैं’ बीज सम्पुटित
गायत्री का कम से कम एक, अधिक से अधिक
तीन बार जप करना चाहिये। इस प्रकार पेडू में
गायत्री शक्ति का आकर्षण और धारण कराने वाला यह
प्राणायाम दस बार करना चाहिये। तदनन्तर अपने
वीर्यकोष या गर्भाशय में शुभ्र वर्ण ज्योति का ध्यान
करना चाहिये।
यह साधना स्वस्थ, सुन्दर, तेजस्वी, गुणवान्, बुद्धिमान्
सन्तान उत्पन्न करने के लिये है। इस साधना के दिनों में प्रत्येक
रविवार को चावल, दूध, दही आदि केवल श्वेत वस्तुओं
का ही भोजन करना चाहिये।
मन्त्र नहीं। जो काम संसार के किसी अन्य
मन्त्र से नहीं हो सकता, वह निश्चित रूप से
गायत्री द्वारा हो सकता है।
दक्षिणमार्गी योग साधक वेदोक्त पद्धति से जिन कार्यों के
लिये अन्य किसी मन्त्र से सफलता प्राप्त करते हैं, वे
सब प्रयोजन गायत्री से पूरे हो सकते हैं।
इसी प्रकार वाममार्गी तान्त्रिक जो कार्य
तन्त्र प्रणाली से किसी मन्त्र के आधार पर
करते हैं, वह भी गायत्री द्वारा किये
जा सकते हैं। यह एक प्रचण्ड शक्ति है, जिसे जिधर
भी लगा दिया जायेगा, उधर
ही चमत्कारी सफलता मिलेगी।
काम्य कर्मों के लिये, सकाम प्रयोजनों के लिये अनुष्ठान
करना आवश्यक होता है। सवालक्ष का पूर्ण अनुष्ठान,
चौबीस हजार का आंशिक अनुष्ठान अपनी-
अपनी मर्यादा के अनुसार फल देते हैं। ‘जितना गुड़
डालो उतना मीठा’ वाली कहावत इस क्षेत्र में
भी चरितार्थ होती है। साधना और
तपश्चर्या द्वारा जो आत्मबल संग्रह किया गया है, उसे जिस काम में
भी खर्च किया जायेगा, उसका प्रतिफल अवश्य मिलेगा।
बन्दूक उतनी ही उपयोगी सिद्ध
होगी, जितनी बढिय़ा और जितने अधिक कारतूस
होंगे। गायत्री की प्रयोग विधि एक प्रकार
की आध्यात्मिक बन्दूक है।
तपश्चर्या या साधना द्वारा संग्रह की हुई आत्मिक
शक्ति कारतूसों की पेटी है। दोनों के मिलने से
ही निशाना साधकर शिकार को मार गिराया जा सकता है। कोई
व्यक्ति प्रयोग विधि जानता हो, पर उसके पास साधन- बल न हो,
तो ऐसा ही परिणाम होगा जैसा खाली बन्दूक
का घोड़ा बार- बार चटकाकर कोई यह आशा करे कि अचूक निशाना लगेगा।
इसी प्रकार जिनके पास तपोबल है, पर उसका काम्य
प्रयोजन के लिये विधिवत् प्रयोग करना नहीं जानते, वैसे
हैं जैसे कोई कारतूस की पोटली बाँधे फिरे और
उन्हें हाथ से फेंक- फेंककर शत्रुओं की सेना का संहार
करना चाहे। यह उपहासास्पद तरीके हैं।
आत्मबल सञ्चय करने के लिये जितनी अधिक साधनायें
की जाएँ, उतना ही अच्छा है। पाँच प्रकार
के साधक गायत्री सिद्ध समझे जाते हैं- (१) लगातार
बारह वर्ष तक प्रतिदिन कम से कम एक माला नित्य जप किया हो।
(२) गायत्री की ब्रह्मसन्ध्या को नौ वर्ष
किया हो, (३) ब्रह्मचर्यपूर्वक पाँच वर्ष तक प्रतिदिन एक हजार
मन्त्र जपे हों, (४) चौबीस लक्ष
गायत्री का अनुष्ठान किया हो, (५) पाँच वर्ष तक विशेष
गायत्री जप किया हो। जो व्यक्ति इन साधनाओं में कम से
कम एक या एक से अधिक का तप पूरा कर चुके हों, वे
गायत्री मन्त्र का काम्य कर्म में प्रयोग करके
सफलता प्राप्त कर सकते हैं। चौबीस हजार वाले
अनुष्ठानों की पूँजी जिनके पास है, वे
भी अपनी-
अपनी पूँजी के अनुसार एक
सीमा तक सफल हो सकते हैं।
नीचे कुछ खास- खास प्रयोजनों के लिये
गायत्री प्रयोग
की विधियाँ दी जाती हैं—
रोग निवारण—
स्वयं रोगी होने पर जिस स्थिति में
भी रहना पड़े, उसी में मन
ही मन गायत्री का जप करना चाहिये। एक
मन्त्र समाप्त होने और दूसरा आरम्भ होने के बीच में
एक ‘बीज मन्त्र’ का सम्पुट भी लगाते
चलना चाहिये। सर्दी प्रधान (कफ) रोग में ‘एं’
बीज मन्त्र, गर्मी प्रधान पित्त रोगों में ‘ऐं’,
अपच एवं विष तथा वात रोगों में ‘हूं’ बीज मन्त्र
का प्रयोग करना चाहिये। नीरोग होने के लिये
वृषभवाहिनी हरितवस्त्रा गायत्री का ध्यान
करना चाहिये।
दूसरों को नीरोग करने के लिये
भी इन्हीं बीज मन्त्रों का और
इसी ध्यान का प्रयोग करना चाहिये। रोगी के
पीडि़त अंगों पर उपर्युक्त ध्यान और जप करते हुए
हाथ फेरना, जल अभिमन्त्रित करके रोगी पर मार्जन
देना एवं छिडक़ना चाहिये। इन्हीं परिस्थितियों में
तुलसी पत्र और कालीमिर्च गंगाजल में
पीसकर दवा के रूप में देना, यह सब उपचार ऐसे हैं,
जो किसी भी रोग के रोगी को दिये
जाएँ, उसे लाभ पहुँचाये बिना न रहेंगे।
विष निवारण—
सर्प, बिच्छू, बर्र, ततैया, मधुमक्खी और
जहरीले जीवों के काट लेने पर
बड़ी पीड़ा होती है। साथ
ही शरीर में विष फैलने से मृत्यु हो जाने
की सम्भावना रहती है। इस प्रकार
की घटनायें घटित होने पर
गायत्री शक्ति द्वारा उपचार किया जा सकता है।
पीपल वृक्ष की समिधाओं से विधिवत् हवन
करके उसकी भस्म को सुरक्षित रख लेना चाहिये।
अपनी नासिका का जो स्वर चल रहा है,
उसी हाथ पर थोड़ी- सी भस्म
रखकर दूसरे हाथ से उसे अभिमन्त्रित करता चले और
बीच में ‘हूं’ बीजमन्त्र का सम्पुट लगावे
तथा रक्तवर्ण अश्वारूढ़ा गायत्री का ध्यान करता हुआ
उस भस्म को विषैले कीड़े के काटे हुए स्थान पर दो- चार
मिनट मसले। पीड़ा में जादू के समान आराम होता है।
सर्प के काटे हुए स्थान पर रक्त चन्दन से किये हुए हवन
की भस्म मलनी चाहिये और अभिमन्त्रित
करके घृत पिलाना चाहिये।
पीली सरसों अभिमन्त्रित करके उसे
पीसकर दशों इन्द्रियों के द्वार पर थोड़ा-
थोड़ा लगा देना चाहिये। ऐसा करने से सर्प- विष दूर हो जाता है।
बुद्धि- वृद्धि—
गायत्री मन्त्र प्रधानत: बुद्धि को शुद्ध, प्रखर और
समुन्नत करने वाला मन्त्र है। मन्द बुद्धि, स्मरण
शक्ति की कमी वाले लोग इससे विशेष रूप से
लाभ उठा सकते हैं। जो बालक अनुत्तीर्ण हो जाते हैं,
पाठ ठीक प्रकार याद नहीं कर पाते, उनके
लिये निम्न उपासना बहुत उपयोगी है।
सूर्योदय के समय की प्रथम किरणें पानी से
भीगे हुए मस्तक पर लगने दें। पूर्व
की ओर मुख करके अधखुले नेत्रों से सूर्य का दर्शन
करते हुए आरम्भ में तीन बार ऊँ का उच्चारण करते
हुए गायत्री का जप करें। कम से कम एक माला (१०८
मन्त्र)अवश्य जपना चाहिये। पीछे
हाथों की हथेली का भाग सूर्य
की ओर इस प्रकार करें मानो आग पर ताप रहे हैं। इस
स्थिति में बारह मन्त्र जपकर हथेलियों को आपस में रगडऩा चाहिये
और उन उष्ण हाथों को मुख, नेत्र, नासिका, ग्रीवा, कर्ण,
मस्तक आदि समस्त शिरोभागों पर फिराना चाहिये।
राजकीय सफलता—
किसी सरकारी कार्य, मुकदमा, राज्य
स्वीकृति, नियुक्ति आदि में सफलता प्राप्त करने के लिये
गायत्री का उपयोग किया जा सकता है। जिस समय
अधिकारी के सम्मुख उपस्थित होना हो अथवा कोई
आवेदन पत्र लिखना हो, उस समय यह देखना चाहिये कि कौन-
सा स्वर चल रहा है। यदि दाहिना स्वर चल रहा हो,
तो पीतवर्ण ज्योति का मस्तिष्क में ध्यान करना चाहिये
और यदि बायाँ स्वर चल रहा हो, तो हरे रंग के प्रकाश का ध्यान
करना चाहिये। मन्त्र में सप्त व्याहृतियाँ (ऊँ भू: भुव: स्व: मह:
जन: तप: सत्यम्) लगाते हुए बारह मन्त्रों का मन
ही मन जप करना चाहिये। दृष्टि उस हाथ के अँगूठे के
नाखून पर रखनी चाहिये, जिसका स्वर चल रहा हो।
भगवती की मानसिक आराधना, प्रार्थना करते
हुए राजद्वार में प्रवेश करने से सफलता मिलती है।
दरिद्रता का नाश—
दरिद्रता, हानि, ऋण, बेकारी, साधनहीनता,
वस्तुओं का अभाव, कम आमदनी, बढ़ा हुआ खर्च, कोई
रुका हुआ आवश्यक कार्य आदि की व्यर्थ चिन्ता से
मुक्ति दिलाने में गायत्री साधना बड़ी सहायक
सिद्ध होती है। उससे ऐसी मनोभूमि तैयार
हो जाती है, जो वर्तमान अर्थ- चक्र से निकालकर
साधक को सन्तोषजनक स्थिति पर पहुँचा दे।
दरिद्रता नाश के लिये
गायत्री की ‘श्रीं’
शक्ति की उपासना करनी चाहिये। मन्त्र के
अन्त में तीन बार ‘श्रीं’ बीज
का सम्पुट लगाना चाहिये। साधना काल के लिये पीत वस्त्र,
पीले पुष्प, पीला यज्ञोपवीत,
पीला तिलक, पीला आसन प्रयोग करना चाहिये
और रविवार को उपवास करना चाहिये। शरीर पर शुक्रवार
को हल्दी मिले हुए तेल की मालिश
करनी चाहिये। पीताम्बरधारी,
हाथी पर चढ़ी हुई
गायत्री का ध्यान करना चाहिये। पीतवर्ण
लक्ष्मी का प्रतीक है। भोजन में
भी पीली चीजें
प्रधान रूप से लेनी चाहिये। इस प्रकार
की साधना से धन की वृद्धि और
दरिद्रता का नाश होता है।
सुसन्तति की प्राप्ति—
जिसकी सन्तान नहीं होती हैं,
होकर मर जाती हैं,
रोगी रहती हैं, गर्भपात हो जाते हैं, केवल
कन्याएँ होती हैं, तो इन कारणों से माता-
पिता को दु:खी रहना स्वाभाविक है। इस प्रकार के
दु:खों से भगवती की कृपा द्वारा छुटकारा मिल
सकता है।इस प्रकार की साधना में स्त्री-
पुरुष दोनों ही सम्मिलित हो सकें, तो बहुत
ही अच्छा; एक पक्ष के द्वारा ही पूरा भार
कन्धे पर लिये जाने से आंशिक
सफलता ही मिलती है। प्रात:काल
नित्यकर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख होकर साधना पर बैठें। नेत्र
बन्द करके श्वेत वस्त्राभूषण अलंकृत, किशोर आयु
वाली, कमल पुष्प हाथ में धारण किये हुए
गायत्री का ध्यान करें। ‘यैं’ बीज के
तीन सम्पुट लगाकर गायत्री का जप चन्दन
की माला पर करें।
नासिका से साँस खींचते हुए पेडू तक ले
जानी चाहिए। पेडू को जितना वायु से भरा जा सके
भरना चाहिये। फिर साँस रोककर ‘यैं’ बीज सम्पुटित
गायत्री का कम से कम एक, अधिक से अधिक
तीन बार जप करना चाहिये। इस प्रकार पेडू में
गायत्री शक्ति का आकर्षण और धारण कराने वाला यह
प्राणायाम दस बार करना चाहिये। तदनन्तर अपने
वीर्यकोष या गर्भाशय में शुभ्र वर्ण ज्योति का ध्यान
करना चाहिये।
यह साधना स्वस्थ, सुन्दर, तेजस्वी, गुणवान्, बुद्धिमान्
सन्तान उत्पन्न करने के लिये है। इस साधना के दिनों में प्रत्येक
रविवार को चावल, दूध, दही आदि केवल श्वेत वस्तुओं
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