Monday, August 25, 2014

गर्भाधान

गर्भाधान करने से गुणवान व सुयोग्य पुत्र का आगमन होता है।
ऋतुकाल - रजस्राव के प्रथम दिन
स्त्री चाण्डाली, दूसरे दिन
ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिन के
समान अपवित्र रहती है। इन तीन
दिनों में गर्भाधान करने से नरक से आये हुए
पापी जीव के शरीर
की उत्पत्ति होती है। अतः ऋतुकाल
के प्रारंभिक दिनों में गर्भाधान कदापि न करें। मासिक धर्म
(ऋतुकाल) के दिनों में स्त्रियों को चाहिए कि वे
किसी पुरुष से संपर्क न करें। किसी के
पास बैठना और वार्तालाप नहीं करना चाहिए।
ऐसा करने से आने वाली संतान पर अशुभ प्रभाव
पड़ता है। वेदांग ज्योतिष में ऋतुकाल की प्रथम चार
रात्रियां तथा ग्यारहवीं और
तेरहवीं निन्दित है। ऋतुस्राव के प्रथम 4 दिन-रात
रोगप्रद होने के कारण गर्भाधान हेतु वर्जित है।
ग्यारहवीं रात्रि में गर्भाधान करने से अधर्माचरण
करने वाली कन्या उत्पन्न होती है।
तेरहवीं रात्रि के गर्भाधान से मूर्ख, पापाचरण करने
वाली, अपने माता-पिता को दुःख, शोक और भय प्रदान
करने वाली दुष्ट कन्या का जन्म होता है।
कड़वी, खट्टी,
तीखी, उष्ण वस्तुओं का सेवन न करके
पांच दिन तक मधुर सेवन करें। छठवीं रात्रि में स्नान
आदि से शुद्ध होकर गर्भ धारण करना चाहिए।
जीव का गर्भ में प्रवेश जीव का मनुष्य
योनि में प्रवेश: श्रीमद् भगवद्गीता के
अनुसार शुभ-अशुभ कर्म (मिश्रित कर्म) करने वाला राजस
प्रकृति (प्रवृत्ति) का जीव मनुष्य योनि में जन्म
लेता है। अन्य शास्त्रों के अनुसार चैरासी लाख
योनियों में जन्म लेने के बाद जीव को मनुष्य
योनि (शरीर)
की प्राप्ति होती है। नरक लोक में
पापी जीव नरक यातना भुगतने के बाद
पाप कर्मों का क्षय होने के उपरांत शुद्ध होकर मनुष्य योनि में
जन्म लेता है तथा पुण्यवान पुरुष स्वर्ग लोक में अपने पुण्य
कर्मों का सुख भोगता है, पुण्य कर्मों के क्षीण
हो जाने के बाद जीव धर्मात्मा या धनवान मनुष्यों के
यहां जन्म लेता है। ”जन्म प्राप्नोति पुण्यात्मा ग्रहेषूच्चगतेषु
च।“ पुण्यात्मा पुरुष के जन्म के समय अधिकांश ग्रह
अपनी उच्च राशि में होते हैं। एक रात्रि के शुक्र-
शोणित योग से कोदो के सदृश्य, पांच रात्रि में बुद्बुद सदृश्य, दस
दिन होने पर बदरी फल के समान होता है। तदंतर
मांस पिण्डाकार होता हुआ पेशीपिंड अण्डाकार
होता है। एक माह में गर्भस्थ भ्रूण पुरुष के हाथ के अंगूठे
के अग्रिम पोर के बराबर आकार का हो जाता है। विरोध परिहार:
सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि गर्भ
मासों की गणना गर्भाधान के दिन से करना चाहिए।
पूर्व या पश्चात की एम.सी. तिथि -
राजो दर्शन के समय से नहीं। प्रथम माह में मास
पिंड में से शिशु के (अर्थात् भ्रूण के)
बाहरी मस्तक
की रचना हो जाती है। हाथ, पैर
आदि अंगों की रचना दूसरे माह में
हो जाती है। यह तो स्पष्ट ही है।
इसके साथ ही आंख, कान, नाक, मुंह, लिंग और
गुदा की रचना भी हो जाती
किंतु इनके छिद्र नहीं खुलते हैं।
तीसरा माह पूर्ण होने तक
सभी इन्द्रियों के छिद्र खुल जाते हैं।
ज्ञानेन्द्रियों की रचना के बाद भी ज्ञान
प्राप्ति नहीं होती है। रूधिर, मेद,
मास, मज्जा, हड्डियों व नसों की रचना चैथे माह में
हो जाती है। आचार्य वराह मिहिर ने हड्डियों व
नसों की चैथे माह में होना तो ठीक
बताया है किंतु पांचवें माह में चमड़ी का और छठवें
माह में रुधिर व नख (नाखूनों) का निर्माण ठीक
नहीं है। क्योंकि इनका निर्माण तो पूर्व में
ही हो जाता है। ऐसा गुरुड़ पुराण का मत है।
पांचवें माह में क्षुधा-तृष्णा उत्पन्न होना यह पौराणिक मत
ठीक नहीं है क्योंकि गर्भस्थ
जीव में चेतना और ज्ञान
की प्राप्ति सातवें माह में बताई गई है तो फिर इससे
पूर्व क्षुधा व तृष्णा (भूख-प्यास) कैसे उत्पन्न
होगी ? भूख-प्यास, स्वाद और ओज
आदि का आठवें माह में उत्पन्न होना। यह आचार्य
वराहमिहिर का मत उपयुक्त व सटीक जान
पड़ता है। मासाधिपति के पीड़ित होने पर गर्भपात
हो जाता है।- आचार्य वराहमिहिर के अनुसार -
मासाधिपतौ निपीड़िते, तत्कालं स्त्रवणं समादिशेत्।
अतः गर्भ मास के स्वामी ग्रह के
पीड़ित होने पर तत्काल गर्भ स्राव/गर्भपात
हो जाता है। जिस मास में मासाधिपति बलवान या शुभ दृष्ट
हो उस मास में सुखपूर्वक गर्भ
की वृद्धि होती है। जब गोचर मान से
मंगल, शुक्र या गुरु पाप ग्रह से दृष्ट या युत होते हैं,
अथवा अपनी नीच या शत्रु राशि में होते
हैं तो क्रमशः प्रथम, द्वितीय या तृतीय
मास में गर्भपात हो जाता है। सबसे अधिक गर्भपात मंगल के
कारण ही होते हैं क्योंकि मंगल रक्त का कारक
है। अतः गर्भावस्था के प्रारंभ में मंगल ग्रह के शांत्यर्थ उपाय
करना चाहिए तथा शुक्रादि कोई ग्रह यदि पाप पीड़ित
हो तो उस हेतु भी मंत्र जाप व दान
आदि करना चाहिए इससे गर्भ सुरक्षित रहता है। यहां हम
एक बात देना चाहते हैं कि सूर्य, चंद्रमा गर्भ को पुष्ट करने
वाले और प्रसव कारक होते हैं। गर्भ के तीसरे
महिने में जब गर्भस्थ शिशु के
लिंगादि अंगों की रचना होती है उस
समय गर्भवती स्त्री को यदि सूर्य
तत्व वाली औषधियां खिलाई जावे तो सूर्य तत्व
की अधिकता के कारण गर्भस्थ शिशु पुरूष
लिंगी बन जाता है। गर्भ
रक्षा की नवमांस चिकित्सा प्रयत्नपूर्वक गर्भ
की रक्षा करना पति-
पत्नी दोनों का संयुक्त दायित्व है। गर्भावस्था में
स्त्री को काम, क्रोध, लोभ, मोह से बचना चाहिए।
गर्भवती स्त्री को अत्यधिक ऊंचे
या नीचे स्थानों पर नहीं जाना चाहिए।
गर्भवती स्त्री को कठिन यात्राऐं वर्जित
है। गर्भवती स्त्री को कठिन आसन
या व्यायाम नहीं करना चाहिए। तीखे,
खट्टे, कड़वे अत्याधिक गरम पदार्थों का सेवन करने से या गर्भ
पर किसी प्रकार का दबाव पड़ने से गर्भ नष्ट
हो जाता है। लड़ाई, झगड़ा, शोक, कलह और मैथुन/संभोग से
स्त्री को बचना चाहिए। गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य
अच्छा रहे, उसके शरीर का समुचित विकास
होता रहे
तथा गर्भवती स्त्री शारीरि
रूप से इतनी सक्षम हो कि उचित समय पर
सर्वगुण संपन्न, सुखी व स्वस्थ शिशु
को सुखपूर्वक जन्म दे सके। इस हेतु ‘चरक संहिता’ में
महर्षि चरक ने नवमास चिकित्सा का विधान वर्णित किया है।
प्रथम मास: मासिक धर्म का समय आने पर भी जब
ऋतुस्राव न हो तथा गर्भ स्थापना के लक्षण प्रकट होने लगे
तब प्रथम मास में
गर्भवती स्त्री को सुबह शाम
मिश्री मिला हुआ ठंडा दूध पीना चाहिए।
द्वितीय मास: द्वितीय मास में दस ग्राम
शतावर के मोटे चूर्ण को 200 ग्राम दूध में 200 ग्राम
पानी मिलाकर, दस ग्राम मिश्री डालकर
धीमी आग पर उबाले, जब
सारा पानी उड़ जाए और दूध ही शेष
बचे तो इसे छानकर गुनगुना होने पर घूंट घूंट करके
गर्भवती स्त्री पीएं। यह
प्रयोग सुबह और रात को सेाने से आधा घंटा पूर्व करेें।
तृतीय मास: इस मास में गर्म दूध को ठंडा करके एक
चम्मच शुद्ध घी और तीन चम्मच
शहद घोलकर सुबह शाम पीना चाहिए। चतुर्थ
मास: इस मास में दूध के साथ ताजा मख्खन बीस
ग्राम की मात्रा में सुबह शाम सेवन करना चाहिए।
पंचम मास: पांचवें मास में सिर्फ दूध व शुद्ध
घी का अपनी पाचन शक्ति के अनुरूप
सेवन करें। छठा मास: इस मास में द्वितीय मास
की भांति क्षीर पाक (शतावर साधित दूध)
का सेवन करना चाहिए। सप्तम मास: इस मास में छठे मास
का प्रयोग जारी रखें। आठवां मास: इस मास में दूध -
दलिया, घी उबालकर शाम के भोजन में भरपेट
खाना चाहिए। नवम मास: नवें मास में शतावर साधित तेल में रुई
का फाहा भिगोकर रोजाना रात को सोते समय योनि के अंदर गहराई में
रख लिया करें। एक माह तक यह प्रयोग करने से प्रसव के
समय अधिक कष्ट नहीं होगा और सुखपूर्वक
प्रसव हो सकेगा। दसवें माह में जब प्रसव वेदना होने लगे
तब वचा (वच) की छाल को एरंड के तेल में घिसकर
गर्भवती स्त्री की नाभि के
आसपास और नीचे पेडू पर मलें। लगाएं ऐसा करने
से सुखपूर्वक नार्मल
डिलीवरी होगी। आधुनिक
प्रजनन तकनीक भले ही निःसंतान
दंपत्ति के लिए आशा की किरण साबित हुई हो। किंतु
‘डिजाईनर किड्स’ टेस्ट ट्यूब बेबी और
सेरोगेसी को समाज के अधिकांश लोग यदि अपनाने लग
जाये तो आगे आने
वाली पीढ़ी में असंवेदना,
संस्कारहीनता और
अनैतिकता तथा असामाजिकता निश्चित ही बढ़
जायेगी। इसमें कोई संदेह नहीं है।
कौन नहीं चाहता कि उसके बच्चे तन-मन से सुंदर,
स्वस्थ तथा बुद्धि से तेजस्वी हो। किंतु मात्र
चाहने से क्या हो ? बोते तो हम नीम
की निबोली है फिर हमें आम के
मीठे फल कैसे प्राप्त होंगे ? गांव का अनपढ़ किसान
भी भलीभांति जानता है कि कौन
सी फसल कब बोना चाहिए। प्रत्येक पशु
पक्षी भी किसी विशेष ऋतु
काल में ही समागम करते हैं। किंतु स्वयं
को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहने वाला मनुष्य आज भूल
गया है कि उसे गर्भाधान कब करना चाहिए और कब
नहीं। श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न संतान
प्राप्ति का भारतीय मनीषियों के पास एक
पूरा जन्म विज्ञान था। उनके पास ऐसे अनेक नुस्खे थे जिससे वे
शिशु के जन्म से पूर्व
ही उसकी प्रोग्रामिंग कर लेते थे
फलतः उन्हें मनोवांछित संतान
की प्राप्ति हो जाती थी।
अथर्ववेदांग ज्योतिष, मनुस्मृति और व्यास सूत्र में बुद्धिमान और
प्रतिभाशाली तथा गुण, कर्म, स्वभाव से
अच्छी संतान प्राप्ति के सूत्र दिये हुए हैं। उन्हें
हम समीक्षात्मक ढंग से सार रूप में लोक कल्याण
हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं। 1. जिस दिन
स्त्री को रजस्राव (रजोदर्शन) शुरू होता है वह
उसके मासिक धर्म का प्रथम दिन/रात
कही जाती है। स्त्री के
मासिक धर्म के प्रथम दिन से लेकर सोलहवें दिन तक
का स्वाभाविक ऋतुकाल माना गया है। ऋतुकाल में
ही गर्भाधान करें। 2. ऋतुकाल
की प्रथम चार रात्रियां रोगकारक होने के कारण
निषिद्ध हैं। इसी तरह ग्यारहवीं और
तेरहवीं रात्रि भी निंदित है। अतः इन
छः रात्रियों को छोड़कर शेष दस रात्रियों में
ही गर्भाधान करें। इन दस रात्रियों में
भी यदि कोई पर्व-
व्रतादि हो तो भी समागम न करें। 3. उपरोक्त
विधि से चयन की गई रात्रियों के अलावा शेष समय
पति-पत्नी संयम से रहें।
क्योंकि ब्रह्मचारी का वीर्य
ही श्रेष्ठ होता है,
कामी पुरूषों का नहीं और श्रेष्ठ
बीजों से ही श्रेष्ठ
फलों की उत्पत्ति होती है। 4.
गर्भाधान हेतु ऋषियों ने रात्रि ही महत्वपूर्ण
मानी है। अतः रात्रि के द्वितीय प्रहर
(10 से 1 बजे) में ही समागम करें। ऐतरेयोपनिषद्
के अनुसार- ‘दिन में संभोग करने से प्राण क्षीण
होते हैं’। इसी उपनिषद में प्रदोष काल अर्थात्
गोधूली बेला भी संभोग हेतु निषिद्ध
कही गई है। 5. शारीरिक, मानसिक रूप
से स्वस्थ तथा निरोगी, बुद्धिमान और श्रेष्ठ संतान
चाहने वाली दंपत्ति को चाहिए कि वह गर्भकाल/
गर्भावस्था में संभोग कदापि न करें। अन्यथा होने
वाली संतान जीवन भर काम वासना से
त्रस्त रहेगी तथा उसे
किसी भी प्रकार का शारीरिक
मानसिक रोग/विकृति हो सकती है। 6. संस्कारवान
और सच्चरित्र संतान
की कामना वाली गर्भवती स्
वह गर्भावस्था के दौरान काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष
आदि विकारों का परित्याग कर दे। शुभ आचरण करें और
प्रसन्नचित रहें। किस रात्रि के गर्भ से कैसी संतान
होगी ? चौथी रात्रि में गर्भधारण
करने से जो पुत्र पैदा होता है, वह अल्पायु, गुणों से रहित,
दुःखी और दरिद्री होता है। 
पांचवीं रात्रि के गर्भ से
जन्मी कन्या भविष्य में सिर्फ
लड़कियां ही पैदा करेगी। 
छठवीं रात्रि के गर्भ से उत्पन्न पुत्र मध्यम आयु
(32-64 वर्ष) का होगा। सातवीं रात्रि के गर्भ
से उत्पन्न कन्या अल्पायु और बांझ होगी। 
आठवीं रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र
सौभाग्यशाली और ऐश्वर्यवान होगा। 
नौवीं रात्रि के गर्भ से सौभाग्यवती और
ऐश्वर्यशालिनी कन्या उत्पन्न
होती है। दसवीं रात्रि के गर्भ से
चतुर (प्रवीण) पुत्र का जन्म होता है। 
ग्यारहवीं रात्रि के गर्भ से अधर्माचरण करने
वाली चरित्रहीन
पुत्री पैदा होती है। 
बारहवीं रात्रि के गर्भ से पुरूषोत्तम/सर्वोत्तम पुत्र
का जन्म होता है। तेरहवीं रात्रि के गर्भ से
मूर्ख, पापाचरण करने वाली, दुःख चिंता और भय देने
वाली सर्वदुष्टा पुत्री का जन्म
होता है। ऐसी पुत्री वर्णशंकर कोख
वाली होती है जो विजातीय
विवाह करती है जिससे परंपरागत जाति, कुल, धर्म
नष्ट हो जाते हैं। चैदहवीं रात्रि के गर्भ से
जो पुत्र पैदा होता है तो वह पिता के समान धर्मात्मा, कृतज्ञ,
स्वयं पर नियंत्रण रखने वाला, तपस्वी और
अपनी विद्या बुद्धि से संसार पर शासन करने
वाला होता है। पंद्रहवीं रात्रि के गर्भ से
राजकुमारी के समान सुंदर, परम
सौभाग्यवती और सुखों को भोगने
वाली तथा पतिव्रता कन्या उत्पन्न
होती है। सोलहवीं रात्रि के गर्भ
से विद्वान, सत्यभाषी, जितेंद्रिय एवं सबका पालन
करने वाला सर्वगुण संपन्न पुत्र जन्म लेता है।

1 comment: