सूर्य को अर्ध्य क्यों दिया जाता है ? सूर्य प्रत्यक्ष
देवता है,सम्पूर्ण जगत के नेत्र
हैं.इन्ही के द्वारा दिन और रात का सृजन
होता है.इनसे अधिक निरन्तर साथ रहने
वाला और कोई देवता नही है.इन्ही के
उदय होने
पर सम्पूर्ण जगत का उदय होता है,और इन्ही के
अस्त होने पर समस्त जगत सो जाता है.इन्ही के
उगने पर लोग अपने घरों के किवाड खोल कर आने
वाले का स्वागत करते हैं,और अस्त होने पर अपने
घरों के किवाड बन्द कर लेते हैं.
सूर्य ही कालचक्र के प्रणेता है.सूर्य से
ही दिन-
रात ,पल,मास,पक्ष तथा संवत
आदि का विभाजन होता है. सूर्य सम्पूर्ण संसार
के प्रकाशक हैं,इनके बिना अन्धकार के
अलावा और कुछ नही है. सूर्य आत्माकारक ग्रह
है,यह राज्य-सुख, सत्ता, ऐश्वर्य, वैभव,
अधिकार,आदि प्रदान करता है.यह सौरमंडल
का प्रथम ग्रह है, इसके बिना उसी प्रकार से हम
सौरजगत को नही जान सकते थे,जिस प्रकार से
माता के द्वारा पैदा नही करने पर हम संसार
को नही जान सकते थे. सूर्य सम्पूर्ण सौर जगत
का आधार स्तम्भ है
स्कन्द पुराण में कहा गया है – सूर्य को अर्ध्य
दिये बिना भोजन करना पाप करने के समान है
वेद घोषणा करते है – अथ संध्याय यदपः प्रयुक्ते
ता विप्रुषा वजीयुत्वा असुरान पाध्नन्ति ||
अर्थात संध्या में जो जल का प्रयोग
किया जाता है वे जलकण वज्र बनकर
असुरों का नाश करते है सूर्य
किरणों द्वारा असुरों का नाश एक अलंकारिक
भाषा है मानव जाति के लिये ये असुर है –
टाइफाइड, राज्यक्षमा,
निमोनिया जिनका विनाश सूर्य
किरणों की दिव्य सामथ्र्य से प्राप्त होता है
एंन्थेक्स के स्पार जो कई वर्षो के शुष्कीकरण से
नहीं मरते सूर्य प्रकाश से ड़ेढ घंटे में मर जाते
है !
सूर्यार्ध्य में साधक जलपूरित अंजली लेकर
सुर्याभिमुख खड़ा होकर जब जल भूमि पर
गिराता है तो नवोदित सूर्य
की सीधी पड़ती हुई
किरणों से अनुबिद्ध वह
जलराशि, मस्तक से लेकर पांव पर्यंन्त साधक के
शरीर के समान सूत्र में गिरती हुई,
सूर्य किरणो से
उतप्त रंगों के प्रभाव को ऊपर से
नीची तक समस्त
शरीर में प्रवाहित कर देती है इसलिए
प्रातः पूर्वाभिमुख,उगते हुए सूर्य के सामने और
सायं पश्चिमाभिमुख छुपते हुए सूर्य के सामने खड़े
होकर सूर्यार्ध्य देने का विधान है!
सूर्य अर्ध्य विधि - सूर्य उदय के थोडे ही समय के
बाद लोटे को जल से भरकर,उसमे लाल पुष्प, रोली,
चावल,डाले सूर्य की और मुख करके खड़े हो जाये!
लोटे की स्थिति छाती के बीच
में
रहनी चाहिये अब धीरे-
धीरे जल की धार
छोडनी चाहिये! लोटे के उभरे किनारे पर
द्रृष्टिपात करने से आप सूर्य के प्रतिबिंब
को बिंदुरूप में देखेगे,उस बिंदुरूप प्रतिबिम्ब में
ध्यानपूर्वक देखने में आपको सप्तवर्ण वलय देखने
को मिलेगे! लोटा तांबे, पीतल
आदि का होना चाहिये! इस तरह तेजवर्धक
तथा नेत्रो को लाभान्वित करने वाली शीतल
सौम्य रश्मियों को सेवन करने का महर्षियों ने
यह एक सरल क्रम प्रदान किया है !
अर्ध्य देते समय निम्न मंत्र बोले –
ध्येय:सदा सवितृ मंडल मध्यवर्ती
नारायण:सरसिजासन सन्निविष्ट:
केयुरवान मकर कुंडलवान किरीटि:
हारी हिरण्यमय वपुर्धृत शंख चक्र:
एहि सूर्य सहस्त्रांशो तेजो राशे जगत्पते
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाण अर्ध्य
दिवाकर
अर्ध्य देते समय इस सूर्य गायत्री मंत्र
का उच्चारण भी करना चाहिए।
"ऊं आदित्याय विद्महे भास्कराय
धीमहि। तन्नो भानु: प्रचोदयात्। "
पृथ्वी के एक परिक्रमण काल को सूर्य के बारह
स्वरूपों में बांटा गया है।
१.- "चैत्र मास" में सूर्य धाता रूप में रहते हैं
जो आठ हजार किरणों के साथ तपते हैं। सूर्य रक्त
वर्ण के होते हैं। सूर्य का यह स्वरूप
महाकल्याणकारी है। अन्तर्मन के अन्धकार
को दूर करने वाला है। चैत्र मास में सूर्य
की उपासना का क्ल्याण करता है। आर्यावर्त्त
में इस सूर्य का स्वरूप बड़ा ही मनोरम और किरणें
शान्ति प्रदान करने वाली होती हैं।
२.- "वैशाख मास" में सूर्य का आर्यमा रूप
होता है जो दस सहस्त्र किरणों के साथ तपते हैं।
इनका वर्ण पीत होता है। फलों के पेड़ों में नई
पत्तियों दिखाई पड़ने लगती हैं। अन्न के पौधे
पकने लगते हैं। किसानों के खुशहाली का दिन
होता है। मनुष्य को अपने परिश्रम का फल
मिलता प्रतीत होता है।
३. - "ज्येष्ठ मास" में भगवान सूर्य मित्र नाम से
जाने जाते हैं। मित्र आदित्य सात सहस्त्र
किरणों से तपते हैं। इनका अरुण वर्ण है। सूर्य
का यह स्वरूप प्रकृति को रोग मुक्त करता है। रक्त
दोष का नाश होता है। शरीर से दोष बाहर
निकलता है और शरीर शोधन
की क्रिया होती है।
४. - "आषाढ़ मास " में भगवान सूर्य वरूण रूप में
होते हैं और इनका स्वरूप श्याम वर्ण का होता है।
ज्येष्ठ मास का अवशोषित जल
प्रकृति को सिंचित करने के लिए आषाढ़ मास में
बादल का स्वरूप ले लेता है।
५. - "श्रावण मास" में सूर्य का नाम इन्द्र
आदित्य है। ये सात सहस्त्र रश्मियों से तपते हैं
और इनका वर्ण श्वेत है। प्रकृति हरियाली से
आच्छादित हो जाती है। दरिद्रता का नाश
होता है। सूखे हुए सरोवर जल से आच्छादित
हो जाते हैं। सूर्य के इस इन्द्ररूप की सर्वत्र
पूजा होती है।
६ . -"भाद्रपद मास" में विवस्वान नामक
आदित्य हैं। इनका वर्ण भूरा है।
७ . - "आश्विन मास" में पूषा आदित्य
का स्वरूप है।
८ . - "कार्तिक मास" में पर्जन्य आदित्य
का रूप है। यह बहुत ही पवित्र मास है।
गंगा स्नान और सूर्य को अर्ध्य प्रदान कर मनुष्य
पापों से मुक्त होता है। मन पवित्र होकर भगवत
अराधना की ओर प्रेरित होता है। सुख और
शान्ति प्राप्त होती है। शरीर ऊर्जावान
होता है।
९ . - "मार्गशीर्ष मास" में सूर्य का स्वरूप
अंशुमान सूर्य के रूप में होता है।
१० . - "पौष मास" में भग आदित्य के रूप में सूर्य
पूजित होते हैं जो सौभाग्य प्रदान करने वाले
होते हैं।
११ . "माघ मास" में सूर्य का स्वरूप त्वष्टा रूप में
होता है जो मनुष्य में शिल्प कला का विकास
करता है। मन को कलात्मक कार्यों की ओर
प्रेरित करता है।
१२ . - "फाल्गुन मास" में सूर्य विष्णु आदित्य के
रूप में पूजित होते हैं। मनुष्य के जीवन में मोक्ष
प्राप्ति की इच्छा सूर्य के इसी स्वरूप से
प्राप्त
होती है। यह रूप विष्णुलोक गमण का कारक है।
अत: हम देखते हैं कि सूर्य उपासना धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष प्राप्त करने के लिए एक महासाधन है।
ताम्र पात्र में जल लेकर और फल और पुष्प से सूर्य
को अर्ध्य प्रदान करने से सभी पापों से मुक्त
होकर मनुष्य अपने जीवन को सुन्दर, कर्म
को निश्चित फल देने वाला, धर्मावलम्बी और
अन्त में ईश्वर के सानिध्य को प्राप्त कर
सकता है। सूर्य प्रत्यक्ष ईश्वर के स्वरूप हैं, जो मन,
कर्म, अर्थ और मोक्ष की कामना को सम्पुष्ट कर
ईश्वर की सेवा का मार्ग प्रशस्त करते हैं। चाहे
हम
किसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात करें,
कितना भी गहन अन्वेषण करें, ऊर्जा के इस
विनिमय को कितना भी परमाणु संलयन का रूप
दें, प्रत्यक्ष रूप में यह प्रमाणित होता है
कि पृथ्वी पर जीवन
तभी तक है जब तक सूर्य है।
अत: सूर्य ही जीवन है।
जीवन की सम्पूर्ण
सार्थकता सूर्य के किरणों में ही समाहित है।
क्यों न हम इनका नमन करें। कोई धार्मिक स्वरूप न
भी दें तो भी सूर्य उपासना के योग्य हैं
और
पृथ्वी पर सम्पूर्ण जीवन-
लीला के प्रणेता हैं। हर
युग में हर काल में सूर्य श्रद्धेय हैं, पूजनीय हैं
और
आराध्य हैं।
"क्षं सूर्य जगतां नाथं ज्ञान विज्ञान
मोक्षदम्।
महापापहरं देवं तं सूर्य प्रणामाम्यहम्॥"
देवता है,सम्पूर्ण जगत के नेत्र
हैं.इन्ही के द्वारा दिन और रात का सृजन
होता है.इनसे अधिक निरन्तर साथ रहने
वाला और कोई देवता नही है.इन्ही के
उदय होने
पर सम्पूर्ण जगत का उदय होता है,और इन्ही के
अस्त होने पर समस्त जगत सो जाता है.इन्ही के
उगने पर लोग अपने घरों के किवाड खोल कर आने
वाले का स्वागत करते हैं,और अस्त होने पर अपने
घरों के किवाड बन्द कर लेते हैं.
सूर्य ही कालचक्र के प्रणेता है.सूर्य से
ही दिन-
रात ,पल,मास,पक्ष तथा संवत
आदि का विभाजन होता है. सूर्य सम्पूर्ण संसार
के प्रकाशक हैं,इनके बिना अन्धकार के
अलावा और कुछ नही है. सूर्य आत्माकारक ग्रह
है,यह राज्य-सुख, सत्ता, ऐश्वर्य, वैभव,
अधिकार,आदि प्रदान करता है.यह सौरमंडल
का प्रथम ग्रह है, इसके बिना उसी प्रकार से हम
सौरजगत को नही जान सकते थे,जिस प्रकार से
माता के द्वारा पैदा नही करने पर हम संसार
को नही जान सकते थे. सूर्य सम्पूर्ण सौर जगत
का आधार स्तम्भ है
स्कन्द पुराण में कहा गया है – सूर्य को अर्ध्य
दिये बिना भोजन करना पाप करने के समान है
वेद घोषणा करते है – अथ संध्याय यदपः प्रयुक्ते
ता विप्रुषा वजीयुत्वा असुरान पाध्नन्ति ||
अर्थात संध्या में जो जल का प्रयोग
किया जाता है वे जलकण वज्र बनकर
असुरों का नाश करते है सूर्य
किरणों द्वारा असुरों का नाश एक अलंकारिक
भाषा है मानव जाति के लिये ये असुर है –
टाइफाइड, राज्यक्षमा,
निमोनिया जिनका विनाश सूर्य
किरणों की दिव्य सामथ्र्य से प्राप्त होता है
एंन्थेक्स के स्पार जो कई वर्षो के शुष्कीकरण से
नहीं मरते सूर्य प्रकाश से ड़ेढ घंटे में मर जाते
है !
सूर्यार्ध्य में साधक जलपूरित अंजली लेकर
सुर्याभिमुख खड़ा होकर जब जल भूमि पर
गिराता है तो नवोदित सूर्य
की सीधी पड़ती हुई
किरणों से अनुबिद्ध वह
जलराशि, मस्तक से लेकर पांव पर्यंन्त साधक के
शरीर के समान सूत्र में गिरती हुई,
सूर्य किरणो से
उतप्त रंगों के प्रभाव को ऊपर से
नीची तक समस्त
शरीर में प्रवाहित कर देती है इसलिए
प्रातः पूर्वाभिमुख,उगते हुए सूर्य के सामने और
सायं पश्चिमाभिमुख छुपते हुए सूर्य के सामने खड़े
होकर सूर्यार्ध्य देने का विधान है!
सूर्य अर्ध्य विधि - सूर्य उदय के थोडे ही समय के
बाद लोटे को जल से भरकर,उसमे लाल पुष्प, रोली,
चावल,डाले सूर्य की और मुख करके खड़े हो जाये!
लोटे की स्थिति छाती के बीच
में
रहनी चाहिये अब धीरे-
धीरे जल की धार
छोडनी चाहिये! लोटे के उभरे किनारे पर
द्रृष्टिपात करने से आप सूर्य के प्रतिबिंब
को बिंदुरूप में देखेगे,उस बिंदुरूप प्रतिबिम्ब में
ध्यानपूर्वक देखने में आपको सप्तवर्ण वलय देखने
को मिलेगे! लोटा तांबे, पीतल
आदि का होना चाहिये! इस तरह तेजवर्धक
तथा नेत्रो को लाभान्वित करने वाली शीतल
सौम्य रश्मियों को सेवन करने का महर्षियों ने
यह एक सरल क्रम प्रदान किया है !
अर्ध्य देते समय निम्न मंत्र बोले –
ध्येय:सदा सवितृ मंडल मध्यवर्ती
नारायण:सरसिजासन सन्निविष्ट:
केयुरवान मकर कुंडलवान किरीटि:
हारी हिरण्यमय वपुर्धृत शंख चक्र:
एहि सूर्य सहस्त्रांशो तेजो राशे जगत्पते
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाण अर्ध्य
दिवाकर
अर्ध्य देते समय इस सूर्य गायत्री मंत्र
का उच्चारण भी करना चाहिए।
"ऊं आदित्याय विद्महे भास्कराय
धीमहि। तन्नो भानु: प्रचोदयात्। "
पृथ्वी के एक परिक्रमण काल को सूर्य के बारह
स्वरूपों में बांटा गया है।
१.- "चैत्र मास" में सूर्य धाता रूप में रहते हैं
जो आठ हजार किरणों के साथ तपते हैं। सूर्य रक्त
वर्ण के होते हैं। सूर्य का यह स्वरूप
महाकल्याणकारी है। अन्तर्मन के अन्धकार
को दूर करने वाला है। चैत्र मास में सूर्य
की उपासना का क्ल्याण करता है। आर्यावर्त्त
में इस सूर्य का स्वरूप बड़ा ही मनोरम और किरणें
शान्ति प्रदान करने वाली होती हैं।
२.- "वैशाख मास" में सूर्य का आर्यमा रूप
होता है जो दस सहस्त्र किरणों के साथ तपते हैं।
इनका वर्ण पीत होता है। फलों के पेड़ों में नई
पत्तियों दिखाई पड़ने लगती हैं। अन्न के पौधे
पकने लगते हैं। किसानों के खुशहाली का दिन
होता है। मनुष्य को अपने परिश्रम का फल
मिलता प्रतीत होता है।
३. - "ज्येष्ठ मास" में भगवान सूर्य मित्र नाम से
जाने जाते हैं। मित्र आदित्य सात सहस्त्र
किरणों से तपते हैं। इनका अरुण वर्ण है। सूर्य
का यह स्वरूप प्रकृति को रोग मुक्त करता है। रक्त
दोष का नाश होता है। शरीर से दोष बाहर
निकलता है और शरीर शोधन
की क्रिया होती है।
४. - "आषाढ़ मास " में भगवान सूर्य वरूण रूप में
होते हैं और इनका स्वरूप श्याम वर्ण का होता है।
ज्येष्ठ मास का अवशोषित जल
प्रकृति को सिंचित करने के लिए आषाढ़ मास में
बादल का स्वरूप ले लेता है।
५. - "श्रावण मास" में सूर्य का नाम इन्द्र
आदित्य है। ये सात सहस्त्र रश्मियों से तपते हैं
और इनका वर्ण श्वेत है। प्रकृति हरियाली से
आच्छादित हो जाती है। दरिद्रता का नाश
होता है। सूखे हुए सरोवर जल से आच्छादित
हो जाते हैं। सूर्य के इस इन्द्ररूप की सर्वत्र
पूजा होती है।
६ . -"भाद्रपद मास" में विवस्वान नामक
आदित्य हैं। इनका वर्ण भूरा है।
७ . - "आश्विन मास" में पूषा आदित्य
का स्वरूप है।
८ . - "कार्तिक मास" में पर्जन्य आदित्य
का रूप है। यह बहुत ही पवित्र मास है।
गंगा स्नान और सूर्य को अर्ध्य प्रदान कर मनुष्य
पापों से मुक्त होता है। मन पवित्र होकर भगवत
अराधना की ओर प्रेरित होता है। सुख और
शान्ति प्राप्त होती है। शरीर ऊर्जावान
होता है।
९ . - "मार्गशीर्ष मास" में सूर्य का स्वरूप
अंशुमान सूर्य के रूप में होता है।
१० . - "पौष मास" में भग आदित्य के रूप में सूर्य
पूजित होते हैं जो सौभाग्य प्रदान करने वाले
होते हैं।
११ . "माघ मास" में सूर्य का स्वरूप त्वष्टा रूप में
होता है जो मनुष्य में शिल्प कला का विकास
करता है। मन को कलात्मक कार्यों की ओर
प्रेरित करता है।
१२ . - "फाल्गुन मास" में सूर्य विष्णु आदित्य के
रूप में पूजित होते हैं। मनुष्य के जीवन में मोक्ष
प्राप्ति की इच्छा सूर्य के इसी स्वरूप से
प्राप्त
होती है। यह रूप विष्णुलोक गमण का कारक है।
अत: हम देखते हैं कि सूर्य उपासना धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष प्राप्त करने के लिए एक महासाधन है।
ताम्र पात्र में जल लेकर और फल और पुष्प से सूर्य
को अर्ध्य प्रदान करने से सभी पापों से मुक्त
होकर मनुष्य अपने जीवन को सुन्दर, कर्म
को निश्चित फल देने वाला, धर्मावलम्बी और
अन्त में ईश्वर के सानिध्य को प्राप्त कर
सकता है। सूर्य प्रत्यक्ष ईश्वर के स्वरूप हैं, जो मन,
कर्म, अर्थ और मोक्ष की कामना को सम्पुष्ट कर
ईश्वर की सेवा का मार्ग प्रशस्त करते हैं। चाहे
हम
किसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात करें,
कितना भी गहन अन्वेषण करें, ऊर्जा के इस
विनिमय को कितना भी परमाणु संलयन का रूप
दें, प्रत्यक्ष रूप में यह प्रमाणित होता है
कि पृथ्वी पर जीवन
तभी तक है जब तक सूर्य है।
अत: सूर्य ही जीवन है।
जीवन की सम्पूर्ण
सार्थकता सूर्य के किरणों में ही समाहित है।
क्यों न हम इनका नमन करें। कोई धार्मिक स्वरूप न
भी दें तो भी सूर्य उपासना के योग्य हैं
और
पृथ्वी पर सम्पूर्ण जीवन-
लीला के प्रणेता हैं। हर
युग में हर काल में सूर्य श्रद्धेय हैं, पूजनीय हैं
और
आराध्य हैं।
"क्षं सूर्य जगतां नाथं ज्ञान विज्ञान
मोक्षदम्।
महापापहरं देवं तं सूर्य प्रणामाम्यहम्॥"
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