कालसर्प योग क्या है?
कालसर्प योग का विचार करनेसे पहले राहू केतू का विचार
करना आवश्यक है। राहू सर्प का मु़ख माना गया है। तो केतू को पूंछ
मानी जाती है। इस दो ग्रहोंकें कारण
कालसर्प योग बनता है। इस संसार में जब कोई
भी प्राणी जिस पल मे जन्म लेता है, वह
पल(समय) उस प्राणी के सारे जीवन के लिए
अत्यन्त ही महत्वपुर्ण माना जाता है।
क्यों की उसी एक पल को आधार बनाकर
ज्योतिष शास्त्र की सहायता सें उसके समग्र
जीवन का एक ऐसा लेखा जोखा तैयार किया जा सकता है,
जिससे उसके जीवन में समय समय पर घटने
वाली शुभ-अशुभ घटनाऔं के विषय में समय से पूर्व
जाना जा सकता है।
जन्म समय के आधार पर बनायी गयी जन्म
कुंडली के बारह भाव स्थान होते है ।
जन्मकुंडली के इन भावों में
नवग्रहो की स्थिती योग
ही जातक के भविष्य के बारे में
जानकारी प्रकट करते है। जन्मकुंडली के
विभिन्न भावों मे इन नवग्रहों कि स्थिति और योग से अलग अलग
प्रकार के शुभ-अशुभ योग बनते है। ये योग ही उस
व्यक्ती के जीवन पर अपना शुभ-अशुभ
प्रभाव डालते है।
जन्म कुंडली में जब सभी ग्रह राहु और
केतु के एक ही और स्थित
हों तो ऐसी ग्रह स्थिती को कालसर्प योग
कहते है। कालसर्प योग एक कष्ट कारक योग है।
सांसारीक ज्योतिषशास्त्र में इस योग के विपरीत
परिणाम देखने में आते है। प्राचीन भारतीय
ज्योतिषशास्त्र कालसर्प योग के विषय में मौन साधे बैठा है। आधुनिक
ज्योतिष विव्दानों ने भी कालसर्प योग पर कोई प्रकाश डालने
का कष्ट नहीं उठाया है की जातक के
जीवन पर इसका क्या परिणाम होता है ?
राहु-केतु यानि कालसर्प योग
वास्तव में राहू केतु छायाग्रह है।
उनकी उपनी कोई
दृष्टी नही होती। राहू
का जन्म नक्षत्र भरणी और केतू का जन्म नक्षत्र
आश्लेषा हैं। राहू के जन्म नक्षत्र भरणी के
देवता काल और केतु के जन्म नक्षत्र आश्लेषा के देवता सर्प है।
इस दोष निवारण
हेतू हमारे वैदिक परंपरा के अनुसार ग्रह्शांती पुजन मे
प्रमुख देवता राहू का उनके अधिदेवता काल और प्रत्यादि देवता सर्प
सहित पुजन अनिवार्य है।
काल
यदि काल का विचार किया जाये तो काल हि ईश्वर के प्रशासन क्षेत्र
का अधिकारी है जन्म से लेकर मृत्यू तक
सभी अवस्थाओं
के परिवर्तन चक्र काल के आधीन है। काल हि संसार
का नियामक है।
कालसर्प योग से पिडीत जातक का भाग्य प्रवाह राहु केतु
अवरुध्द करते है। जिसके परिणाम स्वरुप जातक
की प्रगति नही होती। उसे
जीवीका चलाने का साधन
नहीं मिलता अगर मिलता है तो उसमें अनेक समस्यायें
पैदा होती है। जिससे
उसको जिविका चलानी मुश्किल हो जाती है।
विवाह नही हो पाता। विवाह हो भी जाए
तो संतान-सुख में बाधाएं आती है।
वैवाहीक जीवन मे कलहपुर्ण झगडे
आदि कष्ट रहते हैं। हमेशा कर्जं के बोझ में दबा रहाता है और
उसे अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पडते है।
दुर्भाग्य
जाने अन्जाने में किए गए कर्मो का परिणाम दुर्भाग्य का जन्म होता है।
दुर्भाग्य चार प्रकार के होते है-
1. अधिक परिश्रम के बाद भी फल न मिलना धन
का अभाव बने रहना।
2. शारीरीक एवं मानसिक दुर्बलता के कारण
निराशा उत्पन्न होती है। अपने
जीवीत तन का बोझ ढाते हुए
शीघ्र से
शीघ्र मृत्यु की कामना करता है।
3. संतान के व्दारा अनेक कष्ट मिलते है
4. बदचनल एवं कलहप्रिय पति या पती का मिलना है।
उपरोक्त दुर्भाग्य के चारों लक्षण कालसर्प युक्त जन्मांग में पूर्ण रूप
से दृष्टिगत होते है।
कालसर्प योग से पिडित जातक दुर्भाग्य से मूक्ति पाने के लिए अनेक
उपायो का सहारा लेता है वह हकीम वैदय डॉक्टरों के
पास जाता है। धन प्राप्ति के अनेक उपाय करता है बार बार प्रयास
करने पर भी सफलता नही मिलने पर अंत में
उपाय ढुंढने के लिए वह ज्योतिषशास्त्र का सहारा लेता है।
अपनी जन्म पत्री मे कौन कौन से दोष है
कौन कौन से कुयोग से है उन्हें तलाशता है। पुर्वजन्म के पितृशाप,
सर्पदोष, भातृदोष आदि दोष कोई
उसकी कुंडली में है - कालसर्प योग।
कोई माने या न माने कालसर्प योग होता है। किसी के मानने
या न मानने से शास्त्री य सिध्दांत न
कभी बदले थे औ न ही बदलेंगे । शास्त्र
आखिर शास्त्र हैं इसे कोई माने या न माने इससे कोई अंतर
नही पडता । कालसर्प योग प्रमाणित है इसे प्रमाणित
करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
कालसर्प योगके बाराह प्रकार है।
१) अनंत कालसर्प योग
जब कुंडली मे प्रथम एवंम सप्तम स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को अनंत कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती के चिंता, न्युनगंड, जलसे
भय आदी प्रकारसे नुकसान होता है।
२) कुलिक कालसर्प योग
जब कुंडली मे दुसरे एवंम आठवे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को कुलिक कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती को आर्थिक
हानी, अपघात, वाणी मे दोष, कुटुंब मे कलह,
नर्व्हस ब्रेक डाउन आदी
आपतीयोंका सामना करना पडता है।
३) वासुकि कालसर्प योग
जब कुंडली मे तीसरे एवंम नवम स्थान मे
राहू, केतु होते है। तब इस योग को वासुकि कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती को भाई बहनोंसे
हानी, ब्लडप्रेशर, आकस्मित मृत्यु तथा रिश्तेदारोंसे
नुकसान होता है।
४) शंखपाल कालसर्प योग
जब कुंडली मे चौथे एवंम दसवे स्थान मे राहू, केतु होते
है। तब इस योग को शंखपाल कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्तीके माता को पिडा, पितृसुख
नही, कष्टमय जिवन, नोकरी मे
बडतर्फी, परदेश जाकर
बुरी तरह मृत्यु आदी।
५) पद्दम कालसर्प योग
जब कुंडली मे पांचवे एवंम ग्यारहवे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को पद्दम कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्तीके विध्याअध्ययन मे रुकावट,
पत्नी को बिमारी, संतान प्राप्ती मे
विलंब, मित्रोंसे हानी होती है।
६) महापद्दम कालसर्प योग
जब कुंडली मे छ्ठे एवंम बारहवे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को महापद्दम कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती को कमर
की पिडा, सरदर्द्, त्वचारोग्, धन
की कमी, शत्रुपीडा यह सब
हो सकता है
७) तक्षक कालसर्प योग
जब कुंडली मे सातवे एवंम पहले स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को तक्षक कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती के दुराचारी,
व्यापार मे हानी, वैवाहिक जीवन मे दु:ख,
अपघात, नौकरीमे परेशानी
होती है। ७) तक्षक कालसर्प योग
जब कुंडली मे सातवे एवंम पहले स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को तक्षक कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती के दुराचारी,
व्यापार मे हानी, वैवाहिक जीवन मे दु:ख,
अपघात, नौकरीमे परेशानी
होती है।
८) कर्कोटक
जब कुंडली मे आठवे एवंम दुसरे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को कर्कोटक कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती को पितृक
संपत्ती का नाश, गुप्तरोग, हार्ट अटैक, कुटुंब मे तंटे
और जहरीले जनवरोंसे
डर रहता है।
९) शंखचुड कालसर्प योग
जब कुंडली मे नवम एवंम तीसरे स्थान मे
राहू, केतु होते है। तब इस योग को शंखचुड कालसर्पयोग कहते
है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती धर्म का विरोध, कठोर
वर्तन, हाय ब्लड प्रेशर, सदैव चिंता, संदेहास्पद
चरीत्रवाला
होता है।
१०) पातक कालसर्प योग
जब कुंडली मे दशम एवंम चौथे स्थान मे राहू, केतु होते
है। तब इस योग को पातक कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती दुष्ट,
दुराचारी लो ब्लड प्रेशर जीवन मे कष्ट, घर
मे पिशाच्च पीडा, चोरी की
संभावना होती है।
११) विषधर कालसर्प योग
जब कुंडली मे ग्यारहवे एवंम पांचवे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को विषधर कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती को अस्थिरता,
संततीसंबंधी चिंता, जेल मे कैद होने
की संभावना होती है।
१२) शेषनाग कालसर्प योग
जब कुंडली मे बारहवे एवंम छ्ठे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को शेषनाग कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती अपयश, ऑंख
की बिमारी, गुप्त
शत्रुअओंकी पिडा, तंटे बखेडे
आदी मुकाबला करना
पडता है।
नियम :
१) नारायण नागबली-नारायणबली,
नागबली तीन दिन में संपन्न
कालसर्प योग का विचार करनेसे पहले राहू केतू का विचार
करना आवश्यक है। राहू सर्प का मु़ख माना गया है। तो केतू को पूंछ
मानी जाती है। इस दो ग्रहोंकें कारण
कालसर्प योग बनता है। इस संसार में जब कोई
भी प्राणी जिस पल मे जन्म लेता है, वह
पल(समय) उस प्राणी के सारे जीवन के लिए
अत्यन्त ही महत्वपुर्ण माना जाता है।
क्यों की उसी एक पल को आधार बनाकर
ज्योतिष शास्त्र की सहायता सें उसके समग्र
जीवन का एक ऐसा लेखा जोखा तैयार किया जा सकता है,
जिससे उसके जीवन में समय समय पर घटने
वाली शुभ-अशुभ घटनाऔं के विषय में समय से पूर्व
जाना जा सकता है।
जन्म समय के आधार पर बनायी गयी जन्म
कुंडली के बारह भाव स्थान होते है ।
जन्मकुंडली के इन भावों में
नवग्रहो की स्थिती योग
ही जातक के भविष्य के बारे में
जानकारी प्रकट करते है। जन्मकुंडली के
विभिन्न भावों मे इन नवग्रहों कि स्थिति और योग से अलग अलग
प्रकार के शुभ-अशुभ योग बनते है। ये योग ही उस
व्यक्ती के जीवन पर अपना शुभ-अशुभ
प्रभाव डालते है।
जन्म कुंडली में जब सभी ग्रह राहु और
केतु के एक ही और स्थित
हों तो ऐसी ग्रह स्थिती को कालसर्प योग
कहते है। कालसर्प योग एक कष्ट कारक योग है।
सांसारीक ज्योतिषशास्त्र में इस योग के विपरीत
परिणाम देखने में आते है। प्राचीन भारतीय
ज्योतिषशास्त्र कालसर्प योग के विषय में मौन साधे बैठा है। आधुनिक
ज्योतिष विव्दानों ने भी कालसर्प योग पर कोई प्रकाश डालने
का कष्ट नहीं उठाया है की जातक के
जीवन पर इसका क्या परिणाम होता है ?
राहु-केतु यानि कालसर्प योग
वास्तव में राहू केतु छायाग्रह है।
उनकी उपनी कोई
दृष्टी नही होती। राहू
का जन्म नक्षत्र भरणी और केतू का जन्म नक्षत्र
आश्लेषा हैं। राहू के जन्म नक्षत्र भरणी के
देवता काल और केतु के जन्म नक्षत्र आश्लेषा के देवता सर्प है।
इस दोष निवारण
हेतू हमारे वैदिक परंपरा के अनुसार ग्रह्शांती पुजन मे
प्रमुख देवता राहू का उनके अधिदेवता काल और प्रत्यादि देवता सर्प
सहित पुजन अनिवार्य है।
काल
यदि काल का विचार किया जाये तो काल हि ईश्वर के प्रशासन क्षेत्र
का अधिकारी है जन्म से लेकर मृत्यू तक
सभी अवस्थाओं
के परिवर्तन चक्र काल के आधीन है। काल हि संसार
का नियामक है।
कालसर्प योग से पिडीत जातक का भाग्य प्रवाह राहु केतु
अवरुध्द करते है। जिसके परिणाम स्वरुप जातक
की प्रगति नही होती। उसे
जीवीका चलाने का साधन
नहीं मिलता अगर मिलता है तो उसमें अनेक समस्यायें
पैदा होती है। जिससे
उसको जिविका चलानी मुश्किल हो जाती है।
विवाह नही हो पाता। विवाह हो भी जाए
तो संतान-सुख में बाधाएं आती है।
वैवाहीक जीवन मे कलहपुर्ण झगडे
आदि कष्ट रहते हैं। हमेशा कर्जं के बोझ में दबा रहाता है और
उसे अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पडते है।
दुर्भाग्य
जाने अन्जाने में किए गए कर्मो का परिणाम दुर्भाग्य का जन्म होता है।
दुर्भाग्य चार प्रकार के होते है-
1. अधिक परिश्रम के बाद भी फल न मिलना धन
का अभाव बने रहना।
2. शारीरीक एवं मानसिक दुर्बलता के कारण
निराशा उत्पन्न होती है। अपने
जीवीत तन का बोझ ढाते हुए
शीघ्र से
शीघ्र मृत्यु की कामना करता है।
3. संतान के व्दारा अनेक कष्ट मिलते है
4. बदचनल एवं कलहप्रिय पति या पती का मिलना है।
उपरोक्त दुर्भाग्य के चारों लक्षण कालसर्प युक्त जन्मांग में पूर्ण रूप
से दृष्टिगत होते है।
कालसर्प योग से पिडित जातक दुर्भाग्य से मूक्ति पाने के लिए अनेक
उपायो का सहारा लेता है वह हकीम वैदय डॉक्टरों के
पास जाता है। धन प्राप्ति के अनेक उपाय करता है बार बार प्रयास
करने पर भी सफलता नही मिलने पर अंत में
उपाय ढुंढने के लिए वह ज्योतिषशास्त्र का सहारा लेता है।
अपनी जन्म पत्री मे कौन कौन से दोष है
कौन कौन से कुयोग से है उन्हें तलाशता है। पुर्वजन्म के पितृशाप,
सर्पदोष, भातृदोष आदि दोष कोई
उसकी कुंडली में है - कालसर्प योग।
कोई माने या न माने कालसर्प योग होता है। किसी के मानने
या न मानने से शास्त्री य सिध्दांत न
कभी बदले थे औ न ही बदलेंगे । शास्त्र
आखिर शास्त्र हैं इसे कोई माने या न माने इससे कोई अंतर
नही पडता । कालसर्प योग प्रमाणित है इसे प्रमाणित
करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
कालसर्प योगके बाराह प्रकार है।
१) अनंत कालसर्प योग
जब कुंडली मे प्रथम एवंम सप्तम स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को अनंत कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती के चिंता, न्युनगंड, जलसे
भय आदी प्रकारसे नुकसान होता है।
२) कुलिक कालसर्प योग
जब कुंडली मे दुसरे एवंम आठवे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को कुलिक कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती को आर्थिक
हानी, अपघात, वाणी मे दोष, कुटुंब मे कलह,
नर्व्हस ब्रेक डाउन आदी
आपतीयोंका सामना करना पडता है।
३) वासुकि कालसर्प योग
जब कुंडली मे तीसरे एवंम नवम स्थान मे
राहू, केतु होते है। तब इस योग को वासुकि कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती को भाई बहनोंसे
हानी, ब्लडप्रेशर, आकस्मित मृत्यु तथा रिश्तेदारोंसे
नुकसान होता है।
४) शंखपाल कालसर्प योग
जब कुंडली मे चौथे एवंम दसवे स्थान मे राहू, केतु होते
है। तब इस योग को शंखपाल कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्तीके माता को पिडा, पितृसुख
नही, कष्टमय जिवन, नोकरी मे
बडतर्फी, परदेश जाकर
बुरी तरह मृत्यु आदी।
५) पद्दम कालसर्प योग
जब कुंडली मे पांचवे एवंम ग्यारहवे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को पद्दम कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्तीके विध्याअध्ययन मे रुकावट,
पत्नी को बिमारी, संतान प्राप्ती मे
विलंब, मित्रोंसे हानी होती है।
६) महापद्दम कालसर्प योग
जब कुंडली मे छ्ठे एवंम बारहवे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को महापद्दम कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती को कमर
की पिडा, सरदर्द्, त्वचारोग्, धन
की कमी, शत्रुपीडा यह सब
हो सकता है
७) तक्षक कालसर्प योग
जब कुंडली मे सातवे एवंम पहले स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को तक्षक कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती के दुराचारी,
व्यापार मे हानी, वैवाहिक जीवन मे दु:ख,
अपघात, नौकरीमे परेशानी
होती है। ७) तक्षक कालसर्प योग
जब कुंडली मे सातवे एवंम पहले स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को तक्षक कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती के दुराचारी,
व्यापार मे हानी, वैवाहिक जीवन मे दु:ख,
अपघात, नौकरीमे परेशानी
होती है।
८) कर्कोटक
जब कुंडली मे आठवे एवंम दुसरे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को कर्कोटक कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती को पितृक
संपत्ती का नाश, गुप्तरोग, हार्ट अटैक, कुटुंब मे तंटे
और जहरीले जनवरोंसे
डर रहता है।
९) शंखचुड कालसर्प योग
जब कुंडली मे नवम एवंम तीसरे स्थान मे
राहू, केतु होते है। तब इस योग को शंखचुड कालसर्पयोग कहते
है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती धर्म का विरोध, कठोर
वर्तन, हाय ब्लड प्रेशर, सदैव चिंता, संदेहास्पद
चरीत्रवाला
होता है।
१०) पातक कालसर्प योग
जब कुंडली मे दशम एवंम चौथे स्थान मे राहू, केतु होते
है। तब इस योग को पातक कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती दुष्ट,
दुराचारी लो ब्लड प्रेशर जीवन मे कष्ट, घर
मे पिशाच्च पीडा, चोरी की
संभावना होती है।
११) विषधर कालसर्प योग
जब कुंडली मे ग्यारहवे एवंम पांचवे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को विषधर कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती को अस्थिरता,
संततीसंबंधी चिंता, जेल मे कैद होने
की संभावना होती है।
१२) शेषनाग कालसर्प योग
जब कुंडली मे बारहवे एवंम छ्ठे स्थान मे राहू, केतु
होते है। तब इस योग को शेषनाग कालसर्पयोग कहते है।
इस योग के प्रभाव से व्यक्ती अपयश, ऑंख
की बिमारी, गुप्त
शत्रुअओंकी पिडा, तंटे बखेडे
आदी मुकाबला करना
पडता है।
नियम :
१) नारायण नागबली-नारायणबली,
नागबली तीन दिन में संपन्न
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