Thursday, May 1, 2014

शीघ्र फलदायी होते है शाबर मन्त्र

~ शीघ्र फलदायी होते है शाबर मन्त्र ~
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‘शाबर’ का प्रतीक अर्थ होता है ग्राम्य, अपरिष्कृत । ‘शाबर-तन्त्र’ – तन्त्र की ग्राम्य-शाखा है । इसके प्रथम प्रवर्तक भगवान् शंकर है, किन्तु जिन सिद्धों ने इसको आगे बढ़ाया, वे परम-शिव-भक्त अवश्य थे । मानव गुरुओ में गुरु गोरखनाथ तथा गुरु मछन्दर नाथ ‘शाबर-मन्त्र’ के जनक माने जाते हैं । अपने तप-प्रभाव से वे भगवान् शंकर के समान पूज्य माने जाते हैं । अपनी साधना के कारण वे मन्त्र-प्रवर्तक ऋषियों के समान विश्वास और श्रद्धा के पात्र हैं । ‘सिद्ध’ और ‘नाथ’ सम्प्रदायों ने परम्परागत मन्त्रों के मूल सिद्धान्तों को लेकर बोल-चाल की भाषा को मन्त्रो का दर्जा दिया गया ।
‘शाबर’-मन्त्रों में ‘आन’ और ‘शाप’, ‘श्रद्धा’ और ‘धमकी’ - दोनों का प्रयोग किया जाता है । साधक ‘याचक’ होता हुआ भी देवता को सब कुछ कहता है, उसी से सब कुछ कराना चाहता है । आश्चर्य यह है कि उसकी यह ‘आन’ भी काम करती है । ‘आन’ का अर्थ है – सौगन्ध ।
शास्त्रीय प्रयोगों में उक्त प्रकार की ‘आन’ नहीं रहती । बाल-सुलभ सरलता का विश्वास ‘शाबर मन्त्रों का साधक मन्त्र के देवता के प्रति रखता है । जिस प्रकार अबोध बालक की अभद्रता पर उसके माता-पिता अपने वात्सल्य-प्रेम के कारण कोई ध्यान नहीं देते, वैसे ही बाल-सुलभ ‘सरलता’ और ‘विश्वास’ के आधार पर ‘शाबर’ मन्त्रों की साधना करना वाला सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।
‘शाबर’-मन्त्रों में संस्कृत, प्राकृत और क्षेत्रीय – सभी भाषाओं का उपयोग मिलता है । किन्हीं-किन्हीं मन्त्रों में संस्कृत और मलयालय, कन्नड़, गुजराती, बंगला या तमिल भाषाओं का मिश्रित रुप मिलेगा, तो किन्हीं में शुद्ध क्षेत्रीय भाषाओं की ग्राम्य-शैली और कल्पना भी मिल जायेगी ।
भारत के एक बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली भाषा ‘हिन्दी’ है । अतः अधिकांश ‘शाबर’ – मन्त्र हिन्दी में ही मिलते हैं । इस मन्त्रों में शास्त्रीय मन्त्रों के समान ‘षडङ्ग’ - ऋषि, छन्द, वीज, शक्ति, कीलक और देवता - की योजना अलग से नहीं रहती, अपितु इन अंगों का वर्णन मन्त्र में ही निहित रहता है । इसलिए प्रत्येक ‘शाबर’ मन्त्र अपने आप में पूर्ण होता है । उपदेष्टा ‘ऋषि’ के रुप में गोरखनाथ जैसे सिद्ध-पुरुष हैं । कई मन्त्रों में इनके नाम लिए जाते हैं और कइयों में केवल ‘गुरु के नाम से ही काम चल जाता है ।
‘पल्लव’ (मन्त्र के अन्त में लगाए जाने वाले शब्द) के स्थान में ‘शब्द साँचा पिण्ड काचा, फुरो मन्त्र ईश्वरी वाचा’ – वाक्य ही सामान्यतः रहता है । इस वाक्य का अर्थ है “शब्द ही सत्य है, नष्ट नहीं होता । यह देह अनित्य है, बहुत कच्चा है । हे मन्त्र ! तुम ईश्वरी वाणी हो (ईश्वर के वचन से प्रकट हो)” इसी प्रकार के या इससे मिलते-जुलते दूसरे शब्द इस मन्त्रों के ‘पल्लव’ होते हैं

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