Monday, April 28, 2014

व्यवसाय में वास्तु का महत्व

. व्यवसाय में वास्तु का महत्व
==========================================
संत तुलसीदास कहते हैं ‘‘अर्थ प्रधान जगत
करी राखा’’ सांसारिक जीवन में धन का महत्व
सर्वविदित है। आज के युग में तो सभी वैयक्तिक,
सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियों की धुरी धन
ही बन गया है। धन का आविष्कार मनुष्य ने
जीवन निर्वाह में सुख-सुविधा के लिए किया था। पर मनुष्य
आज अर्थ का दास बन गया है। अर्थोपार्जन के चक्कर में पफंसकर
मनुष्य वास्तव में जीवन का अर्थ ही भूल
गया है। पूंजीवाद का दूसरा नाम बाजारवाद
ही है और बाजार तत्व मनुष्य के व्यवहार और
उसकी भावनाओं में भी प्रवेश कर चुका है
जिसने अनेकानेक समस्याओं को जन्म दिया है। भारतीय
संस्कृति सदा से ही भौतिकता और आध्यात्मिकता के
बीच संतुलन बैठाने के पक्ष में रही है।
धन के महत्व को हमने कभी अस्वीकार
नहीं किया। वैदिक ऋषि, धन, सुख-
समृद्धि की कामना के मंत्र गाते थे। जीवन के
चार पुरुषार्थ माने गए हैं – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – जो मानव
जीवन के सर्वांगीण विकास के परिचायक हैं।
यह हमारी संस्कृति की विशेषता है
कि यहां अर्थ और काम को हेय नहीं माना गया है।
केवल उनको धर्म की मर्यादा से बांधा गया है।
अर्थोपार्जन और कामोपभोग बुरे नही हैं, केवल वे धर्म
विरुद्ध नहीं होने चाहिएं।
कमर्शल वास्तु शास्त्रा एक नई विधा है जिसमें अर्थोपार्जन
क्षेत्रा – दुकान, फैक्टरी, कार्यालय आदि में धनागम
संबंधी बाधाओं का निवारण वास्तु दोषों को दूर करके
किया जाता है। गणित में धन योग का चिन्ह है। एक प्रकार से
जीवन में
जो भी स्पृहणीय ;प्रसन्नतादायक,
प्रशंसनीयद्ध वस्तु या गुण है वही धन
है। जैसे स्त्री धन, पुत्र धन, रूप धन, विद्या धन
इत्यादि। अतः अधिकाधिक धन प्राप्ति के लिए वास्तु शास्त्रा का उपयोग
करने में कोई बुराई नहीं है, पर यह ध्यान रखना चाहिए
कि धन प्रारब्धजन्य है। संसार में सुख-
सम्पदा का असीम भंडार भरा पड़ा है। पर हमें उसमें से
उतनी ही प्राप्ति होगी जितना हमें
भाग्य रूपी पात्रा मिला है। प्रारब्ध उस
ईश्वरीय दुर्निवार योजना का दूसरा नाम है जो निश्चित
करता है कि हमें कितना धन कब और कहां से कैसे प्राप्त होगा।
इस ईश्वरीय मंगल विधान पर अटूट विश्वास करके हम
अर्थोपार्जन के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहें और आवश्यकतानुसार
वास्तु शास्त्रा की सहायता भी लेते रहें। पर
मात्रा अर्थोपार्जन को ही जीवन का प्रधान
लक्ष्य नहीं बनाना चाहिए।
व्यापारियों के सामने सबसे
पहली समस्या होती है कि वे
अपना गल्ला या तिजोरी कहां रखें। प्रायः कुबेर
की उत्तर दिशा में तिजोरी रखने
की सलाह दी जाती है। पर
वास्तु शास्त्रा के आधारभूत नियमों के अनुसार उत्तर
दिशा खुली होनी चाहिए। इसलिए
सुरक्षा की दृष्टि से उत्तर दिशा में
तिजोरी रखने की सलाह
नहीं दी जा सकती। अतः इसे
दक्षिण-पश्चिम दिशा में रखा जा सकता है। पर यह स्थान मुख्य
द्वार से दूर होना चाहिए। तिजोरी स्थिर 4 पायों पर
बनी होनी चाहिए और इसमें 5 कमलगट्टे
और हल्दी की साबुत 5 गांठें
भी रखनी चाहिए। तिजोरी पर
स्वास्तिक चिन्ह अवश्य अंकित होना चाहिए। हरिद्रा से
महालक्ष्मी बहुत प्रसन्न रहती हैं।
दुकान एवं व्यावसायिक प्रतिष्ठान में
श्रीयंत्रा की स्थापना की जानी चाहिए
और इसके समक्ष स्वयं या किसी पंडित के
द्वारा श्रीसूक्त और कनकधारा स्त्रोत का पाठ
होना चाहिए।
विभिन्न दिशाओ में तिजोरी रखने के परिणाम-
उत्तर पूर्व धन हानि
दक्षिण पूर्व अनावश्यक व्यय
दक्षिण पश्चिम धनागम वृद्दि
उत्तर पश्चिम अत्यधिक उटपटांग खर्च
तिजोरी रखने के स्थान की टायलों और
दीवारों का रंग सुनहरी या गेहुआ
होना चाहिए।
तिजोरी कभी भी शहतीर
के नीचे नहीं रखनी चाहिए।
तिजोरी के आसपास, पूजा के स्थान या भवन के अन्य भाग
में मकड़ी के जाले नहीं होने चाहिएं।
मकड़ी के जाले होने से दरिद्रता बढ़ती है।
तिजोरी का पिछला हिस्सा दक्षिण पश्चिम में होना चाहिए
ताकि वह उत्तर या पूर्व दिशा में खुले।
तिजोरी जहां रखी है उस कमरे
की उचाई अन्य कमरों की उचाई से कम
नहीं होनी चाहिए और इसका आकार
वर्गाकार या आयताकार होना चाहिए

No comments:

Post a Comment