Sunday, April 27, 2014

तंत्र

परन्तु दोष तंत्र का नहीं, उन पथभ्रष्ट
लोगों का रहा, जिनकी वजह से तंत्र
भी बदनाम हो गया! सही अर्थों में
देखा जायें तो तंत्र का तात्पर्य तो जीवन
को सभी दृष्टियों से पूर्णता देना हैं!
जब हम मंत्र के माध्यम से देवता को अनुकूल बना सकते हैं,
तो फिर तंत्र की हमारे जीवन में
कहाँ अनुकूलता रह जाती हैं? मंत्र का तात्पर्य
हैं, देवता की प्रार्थना करना, हाथ जोड़ना, निवेदन
करना, भोग लगाना, आरती करना, धुप
अगरबत्ती करना, पर यह आवश्यक
नहीं कि लक्ष्मी प्रसन्ना हो ही और
हमारा घर अक्षय धन से भर दे! तब दुसरे तरीके
से यदि आपमें हिम्मत हैं, साहस हैं, हौसला हैं,
तो क्षमता के साथ लक्ष्मी की आँख में
आँख डालकर आप खड़े हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं यह
तंत्र साधना कर रहा हूँ, मैं तुम्हें तंत्र में आबद्ध कर
रहा हूँ और तुम्हें हर हालत में
सम्पन्नता देनी हैं, और
देनी ही पड़ेगी!
पहले प्रकार से स्तुति या प्रार्थना करने से देवता प्रसन्ना न
भी हो परन्तु तंत्र से तो देवता बाध्य होते
ही हैं, उन्हें वरदान
देना ही पड़ता हैं! मंत्र और तंत्र
दोनों ही पद्धतियों में साधना विधि, पूजा का प्रकार,
न्यास सभी कुछ लगभग एक
जैसा ही होता हैं, बस अंतर होता हैं, तो दोनों के
मंत्र विन्यास में, तांत्रोक्त मंत्र अधिक तीक्ष्ण
होता हैं! जीवन
की किसी भी विपरीत
स्थिति में तंत्र अचूक और अनिवार्य विधा हैं.

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